Saturday 23 July 2011

युद्ध और संघर्ष : सैनिक सफलता ही काफी नहीं

सुभाष धूलिया
आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के वैश्विक युद्ध को लगभग दस वर्ष हो गए हैं. इस युद्ध के रूप-स्वरूप और इससे लड़ने की रणनीतियों को लेकर भी निरंतर बहसें और विमर्श होते रहे हैं. ओबामा के सत्ता में आने के बाद इसे “आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध” के बजाय “हिंसक उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष” नाम तो दे दिया गया लेकिन इसके रूप –स्वरूप में कोई अंतर नहीं आया. आज इस संघर्ष का केंद्र पाक-अफगान भूभाग बना हुआ है और अमेरिका की रणनीति सैनिक ताकत के बल पर आतंकवाद को परास्त करने पर ही केंद्रित है. इस्लामी दुनिया को लेकर अमेरिका में हमेशा ये सवाल उठाया जाता रहा है कि “वे हमसे नफरत क्यों करते हैं” और इसका जवाब यहीं तक सीमित रहा की इस्लामी दुनिया के साथ संवाद को सही करने की जरुरत है और वे नफरत इसलिए करतें हैं की वे हमें ठीक से नहीं जानते.

अमेरिका में इस्लामी दुनिया के दिलो-दिमाग को जीतने के लिए अध्ययन पर अध्ययन होते चले गए और “थिंक टैंक्स” ने विचारों और रणनीतिओं का अम्बार खड़ा कर दिया पर दस वर्ष के इतिहास में अमेरिका ने कोई भी ऐसी कोशिश नहीं की, कोई भी ऐसा संघर्ष नहीं किया, जिससे दिलोदिमाग जीते जा सके बल्कि अमेरिका सिर्फ युद्ध ही लड़ता रहा है और सैनिक ताकत का ही सहारा लेता रही है. दस वर्ष के युद्ध के शुरू से ही अमेरिका यह कहता रहा की ये युद्ध आतंकवाद के खिलाफ है इस्लाम के खिलाफ नहीं लेकिन सच तो ये है की इस युद्ध के जितने भी निशाने रहे वे सभी इस्लामी देश हैं या इस्लाम के प्रतीक हैं. अमेरिका ने जिस तरह से यह युद्ध लड़ा और चाहे मकसद कुछ भी क्यों न रहा हो पर यह युद्ध किसी न किसी रूप में इस्लाम-विरोधी रूप अख्तियार करता चला गया. अमेरिका का हर युद्ध आज किसी इस्लामी देश में लड़ा जा रहा है और इस्लामी दुनिया की नफ़रत कम नहीं हुई है और न ही दिलोदिमाग जीते जा सकें हैं. अमेरिकी “थिंक टैंक्स” यही कहते रहे की इस्लामी दुनिया से संवाद बढ़ाना चाहिए ताकि वे हमें वे हमें सही ढंग से समझ सकें पर इस बारे में बहुत कुछ नहीं सोचा गया की अमेरिका इस्लामी दुनिया को कितना समझता है और दस वर्ष तो यही अधिक दर्शाते हैं कि इस्लामी दुनिया के सन्दर्भ में अमेरिका ‘युद्ध’ और ‘संघर्ष’ के बीच फर्क करने में ही असमर्थ है.
दस वर्षों में निश्चय ही अमेरिका ने सैनिक ताकत के बल पर काफी हद तक अमेरिका-विरोधी आतंकवादी संगठनों की कमर तोड़ दी है और खुद तो एक तरह के “इलेक्ट्रोनिक किले” में तब्दील कर दिया है. आज अमेरिका की जमीन पर कोई आतंकवादी हमला लगभग नामुमकिन सा हो गया है. लेकिन अमेरिका की सैनिक रूप से ही सफल भर हो पाया है. आतंकवाद की ऊपजाऊ जमीन धार्मिक उग्रवाद तो पहले से कहीं अधिक गहरा और व्यापक हो गया है.
अगर अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को अगर युद्ध के बजाय संघर्ष के रूप में लिया होता तो निश्चय ही उसे इससे लड़ने के लिए सैनिक गठजोड़ों के सामानांतर राजनीतिक गठजोड़ों की भी जरुरत होती और आज अफगानिस्तान और लगभग समूचे इस्लामी जगत में उस स्थिति का सामना न करना पड़ता जो आज करना पड़ रहा है. अमेरिका ने आतंकवाद को लेकर दोहरे मानदंड अपनाये. अब अमेरिका खुद आतंकवाद के निशाने पर आया तब जाकर आतंकवाद अमेरिका के लिए वैश्विक मुद्दा बना. शीत युद्ध के पूरे इतिहास में अमेरिका ने इस्लामी जगत में उदार राजनीतिक धाराओं की कीमत पर धार्मिक उग्रवाद तो समर्थन दिया. अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोविएत संघ को परास्त करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान का दमन थामा और इस्लामी उग्रवाद की उस धारा को जन्म दिया जो आज दुनिया के सबसे बड़े आतंकवाद का आधार है. सोविएत संघ के पतन के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान को पाकिस्तान के हवाले कर दिया. पाकिस्तान की मदद से तालिबान सत्तासीन हुआ और फिर तालिबान के अल कायदा को काबुल में अपना मुख्यालय खोलने के लिए आमंत्रिक कर डाला और अफगानिस्तान वैश्विक आतंकवाद के गढ़ के रूप में उभरा. काबुल में तालाबानी सत्ता को पूरी दुनिया में केवल पाकिस्तान और सउदी अरब ने ही मान्यता दी थी और ये दोनों ही देश अमेरिका के सहयोगी नहीं बल्कि पिट्ठू रहे हैं. जब तालिबानी सत्ता बुद्ध कि प्राचीन मूर्तियों को तोपों से गिरा रही थी तो पूरी दुनिया सकते में थी पर कहीं किसी तरफ से भी कोई कारवाही नहीं कि गई. मानवजाति की ऐतिहासिक धरोहर और सांस्कृतिक विरासत को इस तरह ध्वस्त किया गया लेकिन पूरी दुनिया खामोश बैठी रही. इसी वक्त विश्व नेता होने का दावा करने वाले अमेरिका को एहसास हो जाना चाहए था कि अगर आज बुद्ध आक्रमण के निशाने पर हैं तो कल स्टैचू ऑफ लिबरटी पर भी निशाना साधा जा सकता है. और यही हुआ. अमेरिका पर ९/११ आतंकवादी हमलों को खुद राष्ट्रपति बुश ने लोकतंत्र और स्वतंत्रता पर आक्रमण करार दिया. ९/११ के बाद विश्व का पूरा परिदृश्य बदल गया. २००१ में अमेरिका ने अफ्घान्सितन पर आक्रमण किया और पाकिस्तान को मजबूरन अमेरिका के युद्ध में शामिल होना पड़ा. अमेरिका ने आतंकवाद को पराजित करने के लिए किसी राजनैतिक गठजोड़ को कायम करने कि कोशिश नहीं कि बल्कि पाकिस्तान के साथ सैनिक गठजोड़ कायम कर सैनिक ताकत के बल पर ही आतंकवाद को पराजित करने का रास्ता अपनाया. इसी का परिणाम है कि आज एक ओर अमेरिका अफगानिस्तान अपनी फौजें वापस बुलाने कि तयारी कर रहा है और दूसरी और अफगानिस्तान में आतंकवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. संयुक्त राष्ट्र कि एक रिपोर्ट के अनुससार पिछले छह महीनों में अफगानिस्तान में जितनी हिंसा हुई है वह इससे पहले दस वर्षों में कभी नहीं हुई थी. अमेरिका ने वैश्विक आतंकवाद को ध्वस्थ करने के लिए किसी राजनैतिक गठजोड़ का सहारा नहीं लिया जिसमें स्वाभाविक रूप से भारत, रूस और यहाँ तक कि ईरान का भी साथ लिया जा सकता था. क्यूंकि यह सभी देश अफगानिस्तान के करीब हैं और वहाँ के घटनाक्रम को लेकर इनके हित भी उतने ही दाव पर लगे थे जितने कि अफघानिस्तान से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित अमेरिका के हित दाव पर लगे थे.
आज अफघानिस्तान के स्थिति बहुत नाज़ुक बन चुकी है. पाक- अफगान भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जटिल होता चला जा रहा है. अमेरिका जहाँ सैनिक वापसी के लिए अपने कुछ मकसद जल्द से जल्द पूरे कर देना चाहता है वहीँ पाकिस्तान इसमें एक रोड़ा साबित हो रहा है.
लादेन को मारने की कार्रवई और सीमा पर बढते हवाई हमलों से पाकिस्तान की सेना का एक वर्ग अमेरिका विरोधी भावनाएं भड़क उठी हैं. पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई अपने आप को उस आतंकवाद से अलग नहीं कर पा रही है इसे इसने पिछले 30 वर्षों से पाला-पोसा है और जिसका इस्तेमाल भारत और अफगानिस्तान दोनों के खिलाफ किया है. आज भी आई.एस.आई अफगानिस्तान में उग्रवादी गुटों से पल्ला नहीं झाड रहा है. अमेरिका का मानना है की आतंकवाद के खिलफ अभियान इसलिए सफल नहीं हो पा रह है क्योंकि पाकिस्तान में आतंकवादी अड्डे हैं और फिर अफगानिस्तान के भीतर तमाम ऐसे आतंकवादी गुट हैं जिन्हें पाकिस्तान अपनी “सामरिक सम्पतियें” मानता है ताकि कभी इनका इस्तेमाल काबुल में पाक-परस्त सत्ता कायम करने के लिए किया जा सके. हक्कानी गुट इनमे सबसे ऊपर है और अमेरिका इस पर लगातार प्रहार किये जा रहा है.

अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका ने पाकिस्तान को खुश रखने के लिए भारत को हमेशा दूर ही रखा. भारत ने भी अफगानिस्तान में अपना सहयोग पुनर्निर्माण तक ही सीमित रखा. इतिहास में तालिबान के शाशनकाल को छोड़कर कभी भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सम्बन्ध दोस्ताना नहीं रहे हैं. जबकि भारत ओर अफगानिस्तान सम्बन्ध हमेशा ही मैत्रीपूर्ण रहे हैं. पाकिस्तान अफगानिस्तान अपने प्रभुत्व में रहना चाहता है. और काबुल में एक ऐसे सत्ता देखना चाहता है जो भारत विरोधी हो. आज अफगानिस्तान एक ऐसी गुत्थी बना हुआ है जिसके भावी राजनैतिक मानचित्र कि कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभरती . अमेरिका अफगानिस्तान से हटना चाहता है, वहाँ एक स्थायित्व कायम करना चाहता है और एक ऐसी सत्ता के हवाले उसे करना चाहता है जो अमेरिका विरोधी न हो. लेकिन अफगानिस्तान में पाकिस्तान के जो भी सहयोगी हैं वे इस्लामी उग्रवादी है और अमेरिका के घनघोर विरोधी हैं. ऐसे में किसी सत्ता के उदय कि संभावना नहीं है जो अमेरिका विरोधी भी न हो और पाकिस्तान-परस्त भी हो. ऐसे में अमेरिका को भारत कि भूमिका को स्वीकार करना होगा. अफगानिस्तान राजनैतिक जीवन में जो भी थोडा बहुत उदार राजनैतिक शक्तियां हैं वे भारत समर्थक हैं और अगर अमेरिका एक ऐसा अफगानिस्तान चाहता है जो अमेरिका विरोधी न हो और अपने पैरों पर खड़े होने कि संभावना रखता हो उसे तभी कायम किया जा सकता है जब पाकिस्तान को अफगान समस्या के समाधान के केंद्र से हटाकर इसमें उन ताकतों को भी शामिल किया जाए जो पाकिस्तान को रास नहीं आती है. इस भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई पाकिस्तान के बूते पर नहीं लड़ी जा सकती ओर आज अमेरिका को भी अहसास हो रहा है कि आतंकवाद को लेकर दोहरे मानदंड नहीं हो सकते. यह कभी भी कहीं भी हमला कर सकता है इसलिए अब ९/११, २६/११ और हाल ही के मुंबई पर हुए हमलों को अलग अलग डिब्बों में बंद नहीं रखा जा सकता.
पाक-अफगान भूभाग में अमेरिका एक दलदल में फसा हुआ है जिससे निकलने के लिए वह पाकिस्तान पर निर्भर है. विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान अगर ऐसी कोई उम्मीद कि गई थी कि अमेरिका पाक-अफगान भूभाग में उभर रहे समीकरण में भारत को भागीदार बनाएगा तो इस दृष्टि से यह यात्रा निराशाजनक ही रही. अमेरिका ने भारत के आंतरिक सुरक्षातंत्र को पुख्ता करने के लिए मदद के प्रस्ताव किये हैं लेकिन अफगानिस्तान सन्दर्भ में दक्षिण एशिया के सामरिक समीकरणों में भारत को भागीदार बनाने के लिए अमेरिका अब भी तैयार नही है. पाकिस्तान के आतंकीतंत्र को लेकर खुफिया जानकारियाँ भी भारत को अमेरिका देने में कतरा रहा है. अफगानिस्तान भारत के सामरिक हितों कि अमेरिका अब भी अनदेखी कर रहा है और इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि अफगान समस्या का कोई भी टिकाऊ समाधान तब तक संभव नहीं होगा जब तक भारत कि इस में सक्रिय भागीदारी नहीं होगी.

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