Thursday 14 January 2010

युद्ध से नहीं पनपता लोकतंत्र

सुभाष धूलिया

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस्लामी दुनिया का दिल जीतने के लिए नई पहल के साथ अपनी पारी की शुरुआत की थी लेकिन अभी हाल ही में उन्होंने कहा है कि ‘हिंसक उग्रवाद’ के खिलाफ अमेरिका का संघर्ष केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसके तत्काल बाद यमन में एक अमेरिकी विमान को उड़ाने के विफल प्रयास के बाद अमेरिका ने यमन के तथाकथित अलकायदा के ठिकानों पर हवाई हमले किए जिनमें अनेक निर्दोष लोग मारे गए। 9/11 के आतंकवादी हमलों के उपरांत अमेरिका ने ‘आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध’ छेड़ने की घोषणा की थी अब यह ‘हिंसक उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष’ के रूप में पारिभाषित हो चुका है। लेकिन धरातल की वास्तविकता तो यही है कि यह संघर्ष इस्लामी दुनिया में एक बड़े युद्ध या कई युद्धों का रूप धारण करता चला जा रहा है।

अमेरिकी हमले सउदी अरब की सीमा से लगे यमन के शिया बहुल प्रांत में किए गए। इसके साथ ही यमन की अमेरिकीपरस्त तानाशाही सरकार ने भी अल कायदा के गढ़ों को ध्वस्त करने के लिए सैनिक अभियान छेड़ दिया है। इस अभियान में सउदी अरब की अमेरिकी पिठ्ठू सामंती सत्ता ने भी इस प्रांत में सैनिक कार्रवाईयां की हैं। मिस्त्र भी इस टकराव में कूद पड़ा है और सऊदी अरब के साथ इसने भी यमन में इस इस्लामी उग्रवाद के लिए ईरान को दोषी ठहराया है।

इस दृष्टि से ये घटनाक्रम एक छोटे से देश यमन के एक प्रांत में सैनिक कार्रवाई तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि एक ओर अमेरिका और उसके समर्थक स्वयं यमन सरकार, सऊदी अरब और मिस्त्र और दूसरी ओर विरोधी ईरान भी इस टकराव से संबंद्ध हो गए हैं। यमन पर अमेरिका के हवाई हमले ऐसे समय में हुए हैं जब अफगानिस्तान में अमेरिका ने 30 हजार और सैनिक तैनात कर दिये हैं और पाकिस्तान की अफगानिस्तान से लगी सीमा पर विशेष दस्तों की गुप्त कार्रवाईयों के अलावा चालकविहीन विमान (ड्रोन) के हमले भी तेज हो गए हैं।

एक ओर तो अफगानिस्तान की स्थिति संभाले नहीं संभल रही है और दूसरी ओर पाकिस्तान पर बढ़ रहे हमलो से पाकिस्तान के भीतर भी नाजुक स्थिति पैदा हो रही है। साथ ही अमेरिका ने पाकिस्तान ने इस समय एक नई तरह की सैनिक उपस्थिति कायम कर ली है और अपने प्रतिष्टठानों की सुरक्षा के नाम पर एक निजी सुरक्षा एजेंसी ‘ब्लैकवाटर’ के दस्ते भी तैयार कर लिए हैं। दरअसल ब्लैकवाटर अमेरिकी की एक ऐसी निजी सुरक्षा एजेंसी है जिसे अमेरिकी सुरक्षातंत्र के अत्यंत प्रशिक्षित सेनानिवृत सुरक्षाकर्मी चलाते हैं। इसकी सैनिक और खुफिया क्षमता अमेरिकी एजेंसियों से किसी भी मायने में कम नहीं है। इराक और कई अन्य देशों में हिंसक कार्रवाईयों के लिए ये संस्था पहले ही काफी बदनाम हो चुकी है। अमेरिका ने इस एजेंसी के दस्तों को समय-समय पर ऐसे दशों में तैनात किया जिनमें अमेरिका प्रत्यक्ष रूप से युद्द में शामिल नहीं हो या किन्हीं अन्य कारणों से अमेरिकी सैनिकों की तैनाती का मसला संवेदनशील रहा है- पाकिस्तान भी इस श्रेणी के देशों में आता है। पाकिस्तान का सत्तातंत्र पहले ही ही अस्त-व्यस्त है और ऐसे में अमेरिका की इन कार्रवाईयों से इस पर संकट के नए बादल मंडरा रहे हैं।

पाकिस्तान में ऐसे समय में सत्ता के अनेक केन्द्र पैदा हो गए हैं जब इसे एक केन्द्रीकृत मजबूत सरकार की सबसे अधिक जरूरत है। राष्ट्रपति जरदारी के बारे में आम धारणा यह है कि वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए अमेरिका को रिझाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि पाकिस्तान के सुरक्षातंत्र को एक तरह से अमेरिका के हवाले कर दिया है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान को अमेरिका से मिल रही अरबों डॉलर की मदद में एक शर्त यह भी है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाकिस्तानी सेना को यह प्रमाणपत्र देना होगा कि वे आतंकवाद के खिलाफ मजबूती से लड़ रहे हैं। अमेरिकी की इन तमाम तरह की दखल से अमेरिक –विरोधी रुझान प्रबल हो रहे हैं। ऐसे में पाकिस्तानी सत्ता के लोकप्रिय समर्थन में भारी ह्रास हो रहा है और इससे ‘सीमित पाकिस्तानी लोकतंत्र’ का भविष्य खतरे में पड़ता नजर आ रहा है।

अब ‘हिसंक उग्रावाद’ के खिलाफ अमेरिकी संघर्ष युद्ध इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि यमन तक इसका विस्तार हो गया है और सउदी अरब और मिस्त्र भी इसमें कूद पड़े हैं। ईरान पहले ही अमेरिका के निशाने पर है और तमाम संकेत यही हैं कि ईरान नाभिकीय प्रोद्योगिकी विकसित करने के अपने कार्यक्रम से पीछ नहीं हटेगा और ऐसे में ईरान पर अमेरिकी-इजराइल हमला निश्चित सा जान पड़ता है। ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त किया जा सकता है और ऐसा नहीं भी होता और यह चन्द नाभिकीय हथियार विकसित भी कर लेता है तो भी इससे कहीं अधिक चिंता का विषय पाकिस्तान है जिसके पास अपेक्षातया कहीं बड़ा नाभिकीय हथियारों का जखीरा है। ईरान के अलावा अल्जीरिया, सूडान, सीरिया और सोमालिया अमेरिका के हिट लिस्ट में शामिल हैं।

इराक पर अमेरिका ने ‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता’ के नाम पर हमला किया था और तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन पर नव-अनुदारवादी इस कदर हावी थे कि उन्होंने सैनिक अभियान के बल पर इस्लामी दुनिया को ‘आधुनिक और लोकतांत्रिक’ बनाने का बीड़ा उठा लिया। इस अभियान में अमेरिका को उन सैनिक हितों औऱ आर्थिक हितों का भी पूरा समर्थन मिला जो इस क्षेत्र के तेल संसाधनों पर नियंत्रण कायम करना चाहते थे। लेकिन आज स्थिति यह है कि लोकतंत्र तो दूर की बात रही इराक और अफगानिस्तान तो एक देश के रूप में भी विखंडित हो चुके हैं।आज पाकिस्तान के लोकतंत्र का भविष्य भी अंधकारमय है। अमेरिका के सहयोगी यमन और सउदी अरब में सामंती तानाशाहियां राज करती हैं। दुनिया के इस भूभाग में लोकतंत्र का अकाल है और इस कारण अमेरिकी समर्थक और विरोधी दोनों ही श्रेणी के देशों में धार्मिक उग्रवाद का सामाजिक और राजनीतिक आधार विस्तृत हो रहा है। अमेरिका के सैनिक अभियान से रही-सही उदार लोकतांत्रिक और राजनीतिक धाराएं भी तबाह हो रही हैं। ‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता’ का अमेरिकी अभियान विजय की दिशाहीन खोज में बर्बर तानाशाही सत्ताओं पर ही निर्भर होता चला जा रहा है।