Saturday 23 July 2011

अमेरिकी वापसी संभव नहीं

सुभाष धूलिया

ओबामा का इस दावे से कि अमेरिका अफगानिस्तान कें अपने लक्ष्य काफी हद तक हासिल कर चुका है युद्ध की ज्वाला थम रही है, सवाल पैदा होतें हैं कि आखिर अमेरिका के लक्ष्य थे क्या ? अगर अल-कायदा और इसकी संरक्षक तालिबानी सत्ता को ध्वस्त करना ही अगर अमेरिका का लक्ष्य था तो यह तो युद्ध छेडने के एक वर्ष के भीतर ही हासिल हो गया था. फिर दस वर्षों से यह युद्ध क्यों लड़ा जा रहा है जो अमेरिका के इतिहास का सबसे लंबा युद्ध है ? अमेरिका अफगान युद्ध में अरबों डॉलर खर्च कर चुका है . केवल इसी वर्ष १२० अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं, दिसम्बर २००९ में खुद ओबामा ने अफगानिस्तान में ३३ हज़ार सैनिक भेज कर अमेरिकी सैनिकों की संख्या लगभग एक लाख कर दी थी और अब इस वर्ष और सितम्बर २०१२ में इतने ही सैनिक वापस बुलाएं जा रहें हैं. इसलिए वास्तविक अर्थों में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति में कोई कमी नहीं हो रही है .
सच तो यह है की अमेरिका अपने लक्ष्य से कहीं अधिक दूर है और अमेरिका-विरोधी इस्लामी उग्रवाद पहले से भी उग्र हो गया है और अब तो पाकिस्तान में भी इसका आधार विस्तृत हुआ है. यही इस्लमी उग्रवाद आतंकवाद को जन्म देता है.
आज यह युद्ध पहले से कहीं अधिक नाजुक और जटिल मोड पर पहुँच गया है. लादेन को मारने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान को अँधेरे में रखकर सैनिक कार्रवाई करनी पडी पाक सरहदी इलाकों में अमेरिकी ड्रोन हवाई हमले तेज हो रहे हैं. पाकिस्तान के सत्ता और सैनिक प्रतिष्टान में का प्रभावशाली तबका अमेरिका से काफी नाराज है. अमेरिका इस बात से नाखुश है की पाकिस्तान ने अमेरिकी युद्ध को कभी भी उतना समर्थन नहीं दिया जितने की जरुरत थी और पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरण और इसका संकट इतना गहरा होता जा रहा है कि अमेरिकी सैनिक अभियान को समर्थन देने की इसकी क्षमता सीमित होती जा रही है और इस सबसे बढ़कर अमेरिका अफगानिस्तान में बिना पाकिस्तान के समर्थन के अपना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता. आज कहीं से भी ऐसे संकेत नहीं मिल रहे हैं जिनके आधार पर यह कहा जो सके की १९१४ तक अफगानिस्तान में ऐसी स्थिति पैदा हो सकेगी की अमेरिका की पूरी तरह सैनिक वापसी संभव हो सके. खुद अमेरिका के भीतर सैनिक वापसी को लेकर घहरे मतभेद हैं. सैनिक प्रतिष्टान तो इसके खिलाफ है और विदेश मानती क्लिटन तक इसके पक्ष में नहीं थीं. लेकिन अंततः इस कारण सहमति हो पाई कि अमेरिका अपनी रणनीति में परिवर्तन करेगा और अब विशेष सैनिक अभियानों और हवाई हमलों पर अधिक निर्भर रहेगा. इसके अलावा अमेरिका के भीतर आर्थिक संकट और बेरोज़गारी रुकने का नाम नहीं ले रही है और ओबामा कि लोकप्रियता लगातार गिर रही है. ओबामा ने यह भी कहा है कि युद्ध से संसाधनों को बेरोज़गारी दूर करने और राष्ट्रीय निर्माण में लगाया जायेगा. लेकिन उनका यह दावा भी खोखला है क्यूंकि अमेरिका कि वैश्विक सामरिक रणनीति में कोई बदलाव नहीं आया है. अफगानिस्तान में अमेरिका के बड़े सामरिक हित दाव पर लगे हैं. मध्य एशिया और खाड़ी कि तेल संसाधनों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए अफगानिस्तान पर नियंत्रण ज़रूरी है. आज कि स्थिति में अफगानिस्तान में ऐसी कोई सत्ता कायम होने के असार नहीं है जो अमेरिका विरोधी न हों. पाकिस्तान अफगान भू-भाग में आज घोर अमेरिका-विरोधी इस्लामी उग्रवाद गहरी जड़े जमा चुका है और यही उग्रवाद आतंकवाद को उपजाऊ ज़मीन मुहैया करता है. इस उग्रवाद को पराजित किये बिना अमेरिका के सामरिक हितों कि पूर्ती नहीं हो सकती. दस वर्षों के युद्ध में इस भू-भाग में उग्रवाद शिथिल पड़ने कि बजाये और भी उग्र हुआ है. अफगानिस्तान में पाकिस्तान के भी सामरिक हित दाव पर लगें हैं और आज ऐसी किसी सत्ता कि कल्पना नहीं कि जा सकती जो अमेरिका-विरोधी भी न हो और पाकिस्तान परस्त भी हो. अफगानिस्तान में पाकिस्तान के पास केवल तालिबान का विकल्प है और तालिबान के साथ संपर्क साधने के अमेरिका के प्रयास विफल हुए हैं. तालिबानी नेतृत्व का मानना है कि “ साम्राज्यों के कब्रिस्तान” अफगानिस्तान में अमेरिका युद्ध नहीं जीत सकता और एक न एक दिन पाकिस्तान के समर्थन से उसके सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्थ होगा. ओसामा को मार गिराने के लिए पाकिस्तान कि प्रभुसत्ता और अखंडता कि धज्जियाँ उड़ाते हुए अमेरिका ने इसके राजधानी के करीब सैनिक आक्रमण किया और पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में हमले लगातार तेज हो रहे हैं. एक तरह से अमेरिका अब केवल अफगानिस्तान में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी युद्ध ग्रस्त हो गया है. इस कारण पाकिस्तान के सत्ता और सैनिक प्रतिष्टान के भीतर अमेरिका विरोधी तबके की ताकत बढ़ी है और पाकिस्तान के सैनिक कमांडरों अमेरिका से बेहद नाखुश हैं. अफगानिस्तान में किसी भी तरह के स्थायित्व कायम करने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान कि ज़रूरत है. लेकिन अमेरिका कि शिकायत है पाकिस्तान ने अमेरिकी युद्ध को कभी भी उतना समर्थन नहीं दिया जितने कि ज़रूरत थी. पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिकी हमलों ले कारण अब पाकिस्तान को उतना समर्थन देना भी भारी पड़ रहा है जितना समर्थन वह अब तक देता रहा है.
इस पृष्टभूमि में कहीं से भी ऐसे कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ते जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि १९१४ तक अमेरिका अफगानिस्तान से पूरी तरह हट जाएगा. सच तो यह है कि अमेरिका के सामरिक हितों कि पूर्ती के लिए अफगानिस्तान पर नियंत्रण ज़रूरी है. आज अमेरिका कि वौश्विक सामरिक रणनीति में कहीं भी यह प्रतिबिंबित नहीं होता कि वह किसी भी सूरत में अफगानिस्तान पर अपना नियंत्रण खत्म करेगा. इस लक्ष्य कि पूर्ती के लिए मौजूदा स्थिति में अमेरिका को अफगानिस्तान पर नियंत्रण बनाकर रखने के लिए १९१४ में वापसी तो दूर अफगानिस्तान में अपने सैनिक अड्डों को कायम रखना होगा और इस संकट ग्रस्त भू-भाग में इन सैनिक अड्डों को बनाये रखने के लिए अमेरिका को स्थायी रूप से हज़ारों सैनिक अफगानिस्तान में तैनात रखने होंगे. इन परिस्थितियों में ओबामा का यह दावा खोखला और झूठा है कि अफगानिस्तान में अमेरिका के लक्ष्य काफी हद तक पूरे हो गए हैं और इस भूभाग में युद्ध कि ज्वाला थम रही है.

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