Saturday 23 July 2011

अमेरिकी वापसी संभव नहीं

सुभाष धूलिया

ओबामा का इस दावे से कि अमेरिका अफगानिस्तान कें अपने लक्ष्य काफी हद तक हासिल कर चुका है युद्ध की ज्वाला थम रही है, सवाल पैदा होतें हैं कि आखिर अमेरिका के लक्ष्य थे क्या ? अगर अल-कायदा और इसकी संरक्षक तालिबानी सत्ता को ध्वस्त करना ही अगर अमेरिका का लक्ष्य था तो यह तो युद्ध छेडने के एक वर्ष के भीतर ही हासिल हो गया था. फिर दस वर्षों से यह युद्ध क्यों लड़ा जा रहा है जो अमेरिका के इतिहास का सबसे लंबा युद्ध है ? अमेरिका अफगान युद्ध में अरबों डॉलर खर्च कर चुका है . केवल इसी वर्ष १२० अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं, दिसम्बर २००९ में खुद ओबामा ने अफगानिस्तान में ३३ हज़ार सैनिक भेज कर अमेरिकी सैनिकों की संख्या लगभग एक लाख कर दी थी और अब इस वर्ष और सितम्बर २०१२ में इतने ही सैनिक वापस बुलाएं जा रहें हैं. इसलिए वास्तविक अर्थों में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति में कोई कमी नहीं हो रही है .
सच तो यह है की अमेरिका अपने लक्ष्य से कहीं अधिक दूर है और अमेरिका-विरोधी इस्लामी उग्रवाद पहले से भी उग्र हो गया है और अब तो पाकिस्तान में भी इसका आधार विस्तृत हुआ है. यही इस्लमी उग्रवाद आतंकवाद को जन्म देता है.
आज यह युद्ध पहले से कहीं अधिक नाजुक और जटिल मोड पर पहुँच गया है. लादेन को मारने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान को अँधेरे में रखकर सैनिक कार्रवाई करनी पडी पाक सरहदी इलाकों में अमेरिकी ड्रोन हवाई हमले तेज हो रहे हैं. पाकिस्तान के सत्ता और सैनिक प्रतिष्टान में का प्रभावशाली तबका अमेरिका से काफी नाराज है. अमेरिका इस बात से नाखुश है की पाकिस्तान ने अमेरिकी युद्ध को कभी भी उतना समर्थन नहीं दिया जितने की जरुरत थी और पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरण और इसका संकट इतना गहरा होता जा रहा है कि अमेरिकी सैनिक अभियान को समर्थन देने की इसकी क्षमता सीमित होती जा रही है और इस सबसे बढ़कर अमेरिका अफगानिस्तान में बिना पाकिस्तान के समर्थन के अपना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता. आज कहीं से भी ऐसे संकेत नहीं मिल रहे हैं जिनके आधार पर यह कहा जो सके की १९१४ तक अफगानिस्तान में ऐसी स्थिति पैदा हो सकेगी की अमेरिका की पूरी तरह सैनिक वापसी संभव हो सके. खुद अमेरिका के भीतर सैनिक वापसी को लेकर घहरे मतभेद हैं. सैनिक प्रतिष्टान तो इसके खिलाफ है और विदेश मानती क्लिटन तक इसके पक्ष में नहीं थीं. लेकिन अंततः इस कारण सहमति हो पाई कि अमेरिका अपनी रणनीति में परिवर्तन करेगा और अब विशेष सैनिक अभियानों और हवाई हमलों पर अधिक निर्भर रहेगा. इसके अलावा अमेरिका के भीतर आर्थिक संकट और बेरोज़गारी रुकने का नाम नहीं ले रही है और ओबामा कि लोकप्रियता लगातार गिर रही है. ओबामा ने यह भी कहा है कि युद्ध से संसाधनों को बेरोज़गारी दूर करने और राष्ट्रीय निर्माण में लगाया जायेगा. लेकिन उनका यह दावा भी खोखला है क्यूंकि अमेरिका कि वैश्विक सामरिक रणनीति में कोई बदलाव नहीं आया है. अफगानिस्तान में अमेरिका के बड़े सामरिक हित दाव पर लगे हैं. मध्य एशिया और खाड़ी कि तेल संसाधनों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए अफगानिस्तान पर नियंत्रण ज़रूरी है. आज कि स्थिति में अफगानिस्तान में ऐसी कोई सत्ता कायम होने के असार नहीं है जो अमेरिका विरोधी न हों. पाकिस्तान अफगान भू-भाग में आज घोर अमेरिका-विरोधी इस्लामी उग्रवाद गहरी जड़े जमा चुका है और यही उग्रवाद आतंकवाद को उपजाऊ ज़मीन मुहैया करता है. इस उग्रवाद को पराजित किये बिना अमेरिका के सामरिक हितों कि पूर्ती नहीं हो सकती. दस वर्षों के युद्ध में इस भू-भाग में उग्रवाद शिथिल पड़ने कि बजाये और भी उग्र हुआ है. अफगानिस्तान में पाकिस्तान के भी सामरिक हित दाव पर लगें हैं और आज ऐसी किसी सत्ता कि कल्पना नहीं कि जा सकती जो अमेरिका-विरोधी भी न हो और पाकिस्तान परस्त भी हो. अफगानिस्तान में पाकिस्तान के पास केवल तालिबान का विकल्प है और तालिबान के साथ संपर्क साधने के अमेरिका के प्रयास विफल हुए हैं. तालिबानी नेतृत्व का मानना है कि “ साम्राज्यों के कब्रिस्तान” अफगानिस्तान में अमेरिका युद्ध नहीं जीत सकता और एक न एक दिन पाकिस्तान के समर्थन से उसके सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्थ होगा. ओसामा को मार गिराने के लिए पाकिस्तान कि प्रभुसत्ता और अखंडता कि धज्जियाँ उड़ाते हुए अमेरिका ने इसके राजधानी के करीब सैनिक आक्रमण किया और पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में हमले लगातार तेज हो रहे हैं. एक तरह से अमेरिका अब केवल अफगानिस्तान में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी युद्ध ग्रस्त हो गया है. इस कारण पाकिस्तान के सत्ता और सैनिक प्रतिष्टान के भीतर अमेरिका विरोधी तबके की ताकत बढ़ी है और पाकिस्तान के सैनिक कमांडरों अमेरिका से बेहद नाखुश हैं. अफगानिस्तान में किसी भी तरह के स्थायित्व कायम करने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान कि ज़रूरत है. लेकिन अमेरिका कि शिकायत है पाकिस्तान ने अमेरिकी युद्ध को कभी भी उतना समर्थन नहीं दिया जितने कि ज़रूरत थी. पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिकी हमलों ले कारण अब पाकिस्तान को उतना समर्थन देना भी भारी पड़ रहा है जितना समर्थन वह अब तक देता रहा है.
इस पृष्टभूमि में कहीं से भी ऐसे कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ते जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि १९१४ तक अमेरिका अफगानिस्तान से पूरी तरह हट जाएगा. सच तो यह है कि अमेरिका के सामरिक हितों कि पूर्ती के लिए अफगानिस्तान पर नियंत्रण ज़रूरी है. आज अमेरिका कि वौश्विक सामरिक रणनीति में कहीं भी यह प्रतिबिंबित नहीं होता कि वह किसी भी सूरत में अफगानिस्तान पर अपना नियंत्रण खत्म करेगा. इस लक्ष्य कि पूर्ती के लिए मौजूदा स्थिति में अमेरिका को अफगानिस्तान पर नियंत्रण बनाकर रखने के लिए १९१४ में वापसी तो दूर अफगानिस्तान में अपने सैनिक अड्डों को कायम रखना होगा और इस संकट ग्रस्त भू-भाग में इन सैनिक अड्डों को बनाये रखने के लिए अमेरिका को स्थायी रूप से हज़ारों सैनिक अफगानिस्तान में तैनात रखने होंगे. इन परिस्थितियों में ओबामा का यह दावा खोखला और झूठा है कि अफगानिस्तान में अमेरिका के लक्ष्य काफी हद तक पूरे हो गए हैं और इस भूभाग में युद्ध कि ज्वाला थम रही है.

युद्ध और संघर्ष : सैनिक सफलता ही काफी नहीं

सुभाष धूलिया
आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के वैश्विक युद्ध को लगभग दस वर्ष हो गए हैं. इस युद्ध के रूप-स्वरूप और इससे लड़ने की रणनीतियों को लेकर भी निरंतर बहसें और विमर्श होते रहे हैं. ओबामा के सत्ता में आने के बाद इसे “आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध” के बजाय “हिंसक उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष” नाम तो दे दिया गया लेकिन इसके रूप –स्वरूप में कोई अंतर नहीं आया. आज इस संघर्ष का केंद्र पाक-अफगान भूभाग बना हुआ है और अमेरिका की रणनीति सैनिक ताकत के बल पर आतंकवाद को परास्त करने पर ही केंद्रित है. इस्लामी दुनिया को लेकर अमेरिका में हमेशा ये सवाल उठाया जाता रहा है कि “वे हमसे नफरत क्यों करते हैं” और इसका जवाब यहीं तक सीमित रहा की इस्लामी दुनिया के साथ संवाद को सही करने की जरुरत है और वे नफरत इसलिए करतें हैं की वे हमें ठीक से नहीं जानते.

अमेरिका में इस्लामी दुनिया के दिलो-दिमाग को जीतने के लिए अध्ययन पर अध्ययन होते चले गए और “थिंक टैंक्स” ने विचारों और रणनीतिओं का अम्बार खड़ा कर दिया पर दस वर्ष के इतिहास में अमेरिका ने कोई भी ऐसी कोशिश नहीं की, कोई भी ऐसा संघर्ष नहीं किया, जिससे दिलोदिमाग जीते जा सके बल्कि अमेरिका सिर्फ युद्ध ही लड़ता रहा है और सैनिक ताकत का ही सहारा लेता रही है. दस वर्ष के युद्ध के शुरू से ही अमेरिका यह कहता रहा की ये युद्ध आतंकवाद के खिलाफ है इस्लाम के खिलाफ नहीं लेकिन सच तो ये है की इस युद्ध के जितने भी निशाने रहे वे सभी इस्लामी देश हैं या इस्लाम के प्रतीक हैं. अमेरिका ने जिस तरह से यह युद्ध लड़ा और चाहे मकसद कुछ भी क्यों न रहा हो पर यह युद्ध किसी न किसी रूप में इस्लाम-विरोधी रूप अख्तियार करता चला गया. अमेरिका का हर युद्ध आज किसी इस्लामी देश में लड़ा जा रहा है और इस्लामी दुनिया की नफ़रत कम नहीं हुई है और न ही दिलोदिमाग जीते जा सकें हैं. अमेरिकी “थिंक टैंक्स” यही कहते रहे की इस्लामी दुनिया से संवाद बढ़ाना चाहिए ताकि वे हमें वे हमें सही ढंग से समझ सकें पर इस बारे में बहुत कुछ नहीं सोचा गया की अमेरिका इस्लामी दुनिया को कितना समझता है और दस वर्ष तो यही अधिक दर्शाते हैं कि इस्लामी दुनिया के सन्दर्भ में अमेरिका ‘युद्ध’ और ‘संघर्ष’ के बीच फर्क करने में ही असमर्थ है.
दस वर्षों में निश्चय ही अमेरिका ने सैनिक ताकत के बल पर काफी हद तक अमेरिका-विरोधी आतंकवादी संगठनों की कमर तोड़ दी है और खुद तो एक तरह के “इलेक्ट्रोनिक किले” में तब्दील कर दिया है. आज अमेरिका की जमीन पर कोई आतंकवादी हमला लगभग नामुमकिन सा हो गया है. लेकिन अमेरिका की सैनिक रूप से ही सफल भर हो पाया है. आतंकवाद की ऊपजाऊ जमीन धार्मिक उग्रवाद तो पहले से कहीं अधिक गहरा और व्यापक हो गया है.
अगर अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को अगर युद्ध के बजाय संघर्ष के रूप में लिया होता तो निश्चय ही उसे इससे लड़ने के लिए सैनिक गठजोड़ों के सामानांतर राजनीतिक गठजोड़ों की भी जरुरत होती और आज अफगानिस्तान और लगभग समूचे इस्लामी जगत में उस स्थिति का सामना न करना पड़ता जो आज करना पड़ रहा है. अमेरिका ने आतंकवाद को लेकर दोहरे मानदंड अपनाये. अब अमेरिका खुद आतंकवाद के निशाने पर आया तब जाकर आतंकवाद अमेरिका के लिए वैश्विक मुद्दा बना. शीत युद्ध के पूरे इतिहास में अमेरिका ने इस्लामी जगत में उदार राजनीतिक धाराओं की कीमत पर धार्मिक उग्रवाद तो समर्थन दिया. अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोविएत संघ को परास्त करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान का दमन थामा और इस्लामी उग्रवाद की उस धारा को जन्म दिया जो आज दुनिया के सबसे बड़े आतंकवाद का आधार है. सोविएत संघ के पतन के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान को पाकिस्तान के हवाले कर दिया. पाकिस्तान की मदद से तालिबान सत्तासीन हुआ और फिर तालिबान के अल कायदा को काबुल में अपना मुख्यालय खोलने के लिए आमंत्रिक कर डाला और अफगानिस्तान वैश्विक आतंकवाद के गढ़ के रूप में उभरा. काबुल में तालाबानी सत्ता को पूरी दुनिया में केवल पाकिस्तान और सउदी अरब ने ही मान्यता दी थी और ये दोनों ही देश अमेरिका के सहयोगी नहीं बल्कि पिट्ठू रहे हैं. जब तालिबानी सत्ता बुद्ध कि प्राचीन मूर्तियों को तोपों से गिरा रही थी तो पूरी दुनिया सकते में थी पर कहीं किसी तरफ से भी कोई कारवाही नहीं कि गई. मानवजाति की ऐतिहासिक धरोहर और सांस्कृतिक विरासत को इस तरह ध्वस्त किया गया लेकिन पूरी दुनिया खामोश बैठी रही. इसी वक्त विश्व नेता होने का दावा करने वाले अमेरिका को एहसास हो जाना चाहए था कि अगर आज बुद्ध आक्रमण के निशाने पर हैं तो कल स्टैचू ऑफ लिबरटी पर भी निशाना साधा जा सकता है. और यही हुआ. अमेरिका पर ९/११ आतंकवादी हमलों को खुद राष्ट्रपति बुश ने लोकतंत्र और स्वतंत्रता पर आक्रमण करार दिया. ९/११ के बाद विश्व का पूरा परिदृश्य बदल गया. २००१ में अमेरिका ने अफ्घान्सितन पर आक्रमण किया और पाकिस्तान को मजबूरन अमेरिका के युद्ध में शामिल होना पड़ा. अमेरिका ने आतंकवाद को पराजित करने के लिए किसी राजनैतिक गठजोड़ को कायम करने कि कोशिश नहीं कि बल्कि पाकिस्तान के साथ सैनिक गठजोड़ कायम कर सैनिक ताकत के बल पर ही आतंकवाद को पराजित करने का रास्ता अपनाया. इसी का परिणाम है कि आज एक ओर अमेरिका अफगानिस्तान अपनी फौजें वापस बुलाने कि तयारी कर रहा है और दूसरी और अफगानिस्तान में आतंकवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. संयुक्त राष्ट्र कि एक रिपोर्ट के अनुससार पिछले छह महीनों में अफगानिस्तान में जितनी हिंसा हुई है वह इससे पहले दस वर्षों में कभी नहीं हुई थी. अमेरिका ने वैश्विक आतंकवाद को ध्वस्थ करने के लिए किसी राजनैतिक गठजोड़ का सहारा नहीं लिया जिसमें स्वाभाविक रूप से भारत, रूस और यहाँ तक कि ईरान का भी साथ लिया जा सकता था. क्यूंकि यह सभी देश अफगानिस्तान के करीब हैं और वहाँ के घटनाक्रम को लेकर इनके हित भी उतने ही दाव पर लगे थे जितने कि अफघानिस्तान से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित अमेरिका के हित दाव पर लगे थे.
आज अफघानिस्तान के स्थिति बहुत नाज़ुक बन चुकी है. पाक- अफगान भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जटिल होता चला जा रहा है. अमेरिका जहाँ सैनिक वापसी के लिए अपने कुछ मकसद जल्द से जल्द पूरे कर देना चाहता है वहीँ पाकिस्तान इसमें एक रोड़ा साबित हो रहा है.
लादेन को मारने की कार्रवई और सीमा पर बढते हवाई हमलों से पाकिस्तान की सेना का एक वर्ग अमेरिका विरोधी भावनाएं भड़क उठी हैं. पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई अपने आप को उस आतंकवाद से अलग नहीं कर पा रही है इसे इसने पिछले 30 वर्षों से पाला-पोसा है और जिसका इस्तेमाल भारत और अफगानिस्तान दोनों के खिलाफ किया है. आज भी आई.एस.आई अफगानिस्तान में उग्रवादी गुटों से पल्ला नहीं झाड रहा है. अमेरिका का मानना है की आतंकवाद के खिलफ अभियान इसलिए सफल नहीं हो पा रह है क्योंकि पाकिस्तान में आतंकवादी अड्डे हैं और फिर अफगानिस्तान के भीतर तमाम ऐसे आतंकवादी गुट हैं जिन्हें पाकिस्तान अपनी “सामरिक सम्पतियें” मानता है ताकि कभी इनका इस्तेमाल काबुल में पाक-परस्त सत्ता कायम करने के लिए किया जा सके. हक्कानी गुट इनमे सबसे ऊपर है और अमेरिका इस पर लगातार प्रहार किये जा रहा है.

अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका ने पाकिस्तान को खुश रखने के लिए भारत को हमेशा दूर ही रखा. भारत ने भी अफगानिस्तान में अपना सहयोग पुनर्निर्माण तक ही सीमित रखा. इतिहास में तालिबान के शाशनकाल को छोड़कर कभी भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सम्बन्ध दोस्ताना नहीं रहे हैं. जबकि भारत ओर अफगानिस्तान सम्बन्ध हमेशा ही मैत्रीपूर्ण रहे हैं. पाकिस्तान अफगानिस्तान अपने प्रभुत्व में रहना चाहता है. और काबुल में एक ऐसे सत्ता देखना चाहता है जो भारत विरोधी हो. आज अफगानिस्तान एक ऐसी गुत्थी बना हुआ है जिसके भावी राजनैतिक मानचित्र कि कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभरती . अमेरिका अफगानिस्तान से हटना चाहता है, वहाँ एक स्थायित्व कायम करना चाहता है और एक ऐसी सत्ता के हवाले उसे करना चाहता है जो अमेरिका विरोधी न हो. लेकिन अफगानिस्तान में पाकिस्तान के जो भी सहयोगी हैं वे इस्लामी उग्रवादी है और अमेरिका के घनघोर विरोधी हैं. ऐसे में किसी सत्ता के उदय कि संभावना नहीं है जो अमेरिका विरोधी भी न हो और पाकिस्तान-परस्त भी हो. ऐसे में अमेरिका को भारत कि भूमिका को स्वीकार करना होगा. अफगानिस्तान राजनैतिक जीवन में जो भी थोडा बहुत उदार राजनैतिक शक्तियां हैं वे भारत समर्थक हैं और अगर अमेरिका एक ऐसा अफगानिस्तान चाहता है जो अमेरिका विरोधी न हो और अपने पैरों पर खड़े होने कि संभावना रखता हो उसे तभी कायम किया जा सकता है जब पाकिस्तान को अफगान समस्या के समाधान के केंद्र से हटाकर इसमें उन ताकतों को भी शामिल किया जाए जो पाकिस्तान को रास नहीं आती है. इस भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई पाकिस्तान के बूते पर नहीं लड़ी जा सकती ओर आज अमेरिका को भी अहसास हो रहा है कि आतंकवाद को लेकर दोहरे मानदंड नहीं हो सकते. यह कभी भी कहीं भी हमला कर सकता है इसलिए अब ९/११, २६/११ और हाल ही के मुंबई पर हुए हमलों को अलग अलग डिब्बों में बंद नहीं रखा जा सकता.
पाक-अफगान भूभाग में अमेरिका एक दलदल में फसा हुआ है जिससे निकलने के लिए वह पाकिस्तान पर निर्भर है. विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान अगर ऐसी कोई उम्मीद कि गई थी कि अमेरिका पाक-अफगान भूभाग में उभर रहे समीकरण में भारत को भागीदार बनाएगा तो इस दृष्टि से यह यात्रा निराशाजनक ही रही. अमेरिका ने भारत के आंतरिक सुरक्षातंत्र को पुख्ता करने के लिए मदद के प्रस्ताव किये हैं लेकिन अफगानिस्तान सन्दर्भ में दक्षिण एशिया के सामरिक समीकरणों में भारत को भागीदार बनाने के लिए अमेरिका अब भी तैयार नही है. पाकिस्तान के आतंकीतंत्र को लेकर खुफिया जानकारियाँ भी भारत को अमेरिका देने में कतरा रहा है. अफगानिस्तान भारत के सामरिक हितों कि अमेरिका अब भी अनदेखी कर रहा है और इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि अफगान समस्या का कोई भी टिकाऊ समाधान तब तक संभव नहीं होगा जब तक भारत कि इस में सक्रिय भागीदारी नहीं होगी.

इतिहास का सबसे जटिल युद्ध

सुभाष धूलिया


पाकिस्तान आज ऐसे देश की श्रेंणी में आज चुका जो अब तक अन्य देशों में आतंकवाद को हवा देता रहा लेकिन आज खुद इसी कारण से एक युद्धग्रस्त देश बन चुका है. एक ऐसे मौके पर जब पाकिस्तान को एक मजबूत सत्ता के सबसे अधिक जरुरत है, यह सत्ता विहीन सा हो गया गया है. यहीं सत्ता का कोई एक केंद्र नहीं रह गया है. एक तरफ तथाकथिक लोकतन्त्र है जिसके नेतृत्व की साख और धाक पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं और दूसरी तरफ सैनिक प्रतिष्टान जिसके जिसके हाथ में वास्तविक सत्ता है . पाकिस्तान का दुर्भाग्य है के इसके पूरे इतिहास में सेना का हे वर्चस्व रहा जिसने इस गरीब देश के पूरी व्यवस्था का सेन्यीकरण किया. सैनिक व्यय इतना हो चुका है कि लगभग एक तिहाई संसाधन सेना हड़प लेती है और शिक्षा -स्वस्थ जैसे सामाजिक क्षेत्र हासिये पर चले गए हैं.

नाभिकीय पाकिस्तान में एक विशाल आतंकीतंत्र पैदा हो चुका है जो केवल 9/11 या 26/11 के लिए ही जिम्मेदार नहीं रहा है बल्कि आज विश्व आतंकवाद का वैश्विक मुख्यालय बन चुका है जिसे भले ही पाकिस्तान सरकार का समर्थन प्राप्त न हो लेकिन इसे सैनिक प्रतिष्टान और बदनाम आई यस आई के प्रभावशाली तबकों का संरक्षण प्राप्त है जिसके बदौलोत लादेन इतने वर्षों तक वहां छिपा रहा और अब हेडली के मामले को लेकर जो सबूत सामने आये हैं उनसे भी साफ हो गया है कि पाकिस्तान का ख़ुफ़िया तंत्र किस हद तक भारत पर 26/11 के आतंकी हमलों के पीछे था. पाकिस्तान के समाज में धार्मिक उग्रवाद गहरी जड़ें जमा चुका है जो आंतकवाद को उपजाऊ जमीन मुहय्या करता है. पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से हे यहाँ के शासक धार्मिक उग्रवाद को राजीनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहें हैं और आज यही इन्ही हथियरों ने पाकिस्तान अपने इतिहास सबसे घहरे संकट कें डाल दिया है. पाकिस्तान का हर संकट पहले के संकट से अधिक गहरे होते चले गए. आज का संकट तो ऐसा है कि यहाँ तक कहा जा रहा है की पाकिस्तान एक विफल राज्य की और अग्रसर है जहाँ कानून का राज ख़त्म हो जाता है और सिविक सोसायटी और हर जनसंघठन अस्तित्वविहीन हो जातें हैं .
अपने पूरे इतिहास में पाकिस्तान की राजनीती भारत-विरोध और इस्लामी उग्रवाद के केंद्र में रही. लेकिन आज यह एक कैसे आतंकवाद से जूझ रहा है जिसका मुख्या निशाना विश्व के इतिहास की सबसे बड़ी सुपर पॉवर अमेरिका है जिसने नाभिकीय पाकिस्तान की प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उडा कर रखीं हैं. लादेन को मारने के लिए अमेरिका ने इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में किया और रोज-रोज ही पाकिस्तान पर अमेरिकी हवाई हमले होते रहतें हैं . एक नाभिकीय देश बेचारा बन कर रह गया है पर इस बेचारगी और विवशता के परिणाम घातक हो सकतें हैं –केवल पाकिस्तान के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए.

आज पकिस्तान अमेरिका के चंगुल में फंसा है. पाकिस्तान के भीतर अमेरिका ने एक मजबूत सैनिक और खुफियातंत्र कायम कर लिया है. पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान को इन परिस्थितियों में चीन से भी ऐसी मदद नहीं मिल सकती जिसकी इसे दरकार है. अमेरिका के इस्लामी उग्रवाद के निशाने पर आने के बाद सब कुछ बदल गया. पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा की वह पुराने समीकरणों का पूरी तरह परित्याग नहीं कर पाया और 9 /11 के उपरान्त उभरी व्यवस्था के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया जिसका खामियाजा उसे आज भुगतना पड़ रहा है और एक राष्ट्र- राज्य के रूप में इसका अस्तित्व ही दाव पर लग गया है. जिस तरह 9 /11 के उपरांत दुनिया बदली, ठीक उसी तरह पाकिस्तान पर लादेन को मरने के लिया अमेरिकी आक्रमण से एशिया का यह भूभाग भी बदल चुका है और ऐसे में भी यह देश दिशाहीन है. इन बदली परिस्थितिओं का सामना करने के लिए अब तक पाकिस्तान कोई स्पष्ट रणनीति नहीं विकसित कर पाया है . ऐसी परिस्थितिओं कई बार आत्मघाती दुस्साहस को जन्म देती है और पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान की इस तरह के दुस्साहस की क्षमता को बिलकुल भी कम करके नहीं आँका जा सकता. लेकिन . पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ युद्ध की अग्रिम पंक्तियों में स्वयं अमेरिक खड़ा है. अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने और सैनिक वापसी के लिए अमेरिका को पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद को पराजित करना होगा. बहुत लम्बे समय तक पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद किए निशाने पर केवल भारत ही रहा है लेकिन आज प्रत्यक्ष रूप से तो यह अमेरिका का ही युद्ध बन चुका है . पाकिस्तान के भीतर के भावी सत्ता समीकरणों को तय करने में अमेरिका की एक बड़ी भूमिका हो गयी है. अमेरिका इस इस दखल के खतरे भी हैं और इससे अंध-राष्ट्रवाद और उग्रवाद को ताकत मिलती है जिसके अपने ही खतरें हीं.

शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान के जरिये सोवियत संघ के खिलाफ इस्लामी उग्रवाद को खड़ा किया और नब्बे के दशक मैं अफगानिस्तान पर प्रभुत्व कायम करने के लिए पाकिस्तान ने तालिबान को खड़ा किया लेकिन 9 / 11 के बाद ये राजनितिक निवेश ध्वस्त हो गया. दरअसल 9/11 के उपरांत उभरे राजीनीतिक और सामरिक समीकारों से पाकिस्तान को उस इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ अमेरिकी युद्ध मैं शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा
.
लेकिन आज के परिस्थियों में पाकिस्तान के नाभिकीय हथियार एक बार फिर चर्चा का विषय बने गए हैं और अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया में ये डर रहा है की कहीं आतंकवादियों के हाथ नाभिकीय हथियार न आ जायें और जब भी ये आशंका होती है, हर निगाह पाकिस्तान की तरफ जाती है . पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र देश हैं जिसे नाभिकीय स्मगलर का ख़िताब मिला है .और पाकिस्तान ही दुनिया कि एकमात्र ऐसी नाभिकीय शक्ति है जो इन विनाशकारी हथियारों के प्रयोग करने कि धमकियाँ देती है. लादेन के मारे जाने के बाद पाकिस्तान सरकार ने बयान दिए इस तरह के सैनिक कार्रवाई दुबारा होने के स्थिति के गंभीर परिणाम होंगे और यहाँ तक कहा है की ऐसी किसी भी कार्रवाई के पूरी दुनिया के लिए विनाशकरी परिणाम होंगे. इस तरह के बयान एक तरह से नाभिकीय युद्ध के धमकी है. अब तक पाकिस्तान भारत के साथ नाभिकीय ब्लैकमेल का सहारा लेता रहा और आब पूरी दुनिया को धमकी दे डाली है. इस तरह का नाभिकीय ब्लैकमेल संकटग्रस्त पाकिस्तान को काफी भरी पड़ सकता है. . पाकिस्तान संसद सरकार , सेना और कुख्यात आई एस आई के रुख से लगता है के सैन्य प्रतिष्टान पर अमेरिका का निशाना एक वास्तविक सम्भंवना है.

विश्व समुदाय के अनेक हलकों में इनकी सुरक्षा के लेकर संदेह व्यक्त किये जा रहें हीं. पाकिस्तान ने भारत के साथ सैनिक होड के चलते नाभिकीय हथियार तो हासिल कर लिए लेकिन आज यही नाभिकीय हथियार पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं. आज पाकिस्तान को सबसे बड़ा खतरा भारत नहीं बल्कि पश्चिम-विरोधी आतंकवाद है जिस पर काबू करने में पाकिस्तान असमर्थ प्रतीत होता है और जो पाकिस्तान-अफगान भूभाग में इतनी गहरी जड़ें जमा चुका है कि इसे जड़ से मिटाना मुश्किल प्रतीत होता है. इसके समान्तर पाकिस्तान में अमेरिका विरोध उग्र रूप धारण कर चुका है .

पाकिस्तान आज केवल एक संकटग्रस्त देश नहीं है . यह एक शर्म और अपमान में डूबा देश है. नाभिकीय हथियारों से लैस यह. सैनिक शक्ति आज बेबस है. अमेरिका ने इसकी प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उड़ाते हुए इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में ओसामा को मार गिराया. इसके कुछ हे दिनों बाद पाकिस्तान के नौसैनिक प्रतिष्टान पर एक बड़ा आतंकवादी हमला हुआ. इससे पाकिस्तान के सुरक्षा तंत्र को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे हैं और ये सवाल और भे गंभीर हो जातें हैं क्योंकि यह देश नाभिकीय हथियारों से लैस है. . ओसामा अगर बिना इन तबकों की मदद से पांच साल तक पाकिस्तान की राजधानी के करीब रहा रहा था तो फिर यह तो और भी खतरनाक स्थिति हैं और पाकिस्तना के सैनिक और ख़ुफ़िया तंत्र के निकम्मेपन की पराकाष्टा है और अगर ऐसा है तो कैसे ये माना जाये के पाकिस्तान के नाभिकिये हथियार किन्ही सुरक्षित हाथों मैं हैं और ये हाथ कितने सुरक्षित हैं ?

पाकिस्तान अपने इतिहास में हमेशा से ही संकटग्रस्त रहा है और इसका हर संकट पहले के संकट से अधिक गहरे होते चले गए. आज का संकट तो ऐसा है कि यहाँ तक कहा जा रहा है की पाकिस्तान एक विफल राज्य की और अग्रसर है जहाँ कानून का राज ख़त्म हो जाता है और सिविक सोसायटी और हर जनसंघठन अस्तित्वविहीन हो जातें हैं . पाकिस्तान के भीतर ही कहा जा रहा है कि अब अमेरिका का अगला निशाना पाकिस्तान का सैनिक प्रतिष्ठान और इसके नाभिकीय हथियार होंगे. इससे पहले भी एक बार जब पाकिस्तान में अमेरिका -विरोधी इस्लामी उग्रवाद इतने चरम पर था और पाकिस्तान सरकार इस पर नियंत्रण करने में असमर्थ सी दिख रही थी तब भी खबरें थीं कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में विशेष दस्ते तैनात कर दिए हैं जो जरुरत पड़ने पर पाक नाभिकीय हथियारों पर नियंत्रण कायम कर लेंगे.

अफगानिस्तान में नाटो और अमेरिकी सेना को विभिन्न तरह के साजो-सामान की आपूर्ती पाकिस्तान के रास्ते होती है. हाल हे मैं पाकिस्तान ने ये भी धमकी दी वह इन रास्तों को बंद भी कर सकता है . अमेसिका ने आगे वर्ष अफघानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने के प्रक्रिया शुरू करने का इरादा जाहिर किया है और तब तक वह अफगानिस्तान में किसी न किसी तरह का स्थावित्व कायम करना चाहेगा और इसमें सबसे बड़ी बाधा पाकितान ही साबित हो रहा है. . लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने पर अफगान राष्ट्रपति करज़ई ने कहा की इससे उनकी ये बात सही साबित हो गयी हैं की आतंकवाद से लड़ने के लिए उनके देश के गाँव और गरीवों के खिलाफ युद्ध निरर्थक है और आतंकवाद का असली गढ़ पाकिस्तान हैं और युद्ध वहां छेड़ा जाना चाहिए..

आज के परिस्थियों में अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी खतरे में पड़ रही है और सारा दवाब पाकिस्तान पर है जो बेबस, दिशाहीन और नेतृत्व विहीन नज़र आता है. पड़ोस में एक ऐसा युद्ध हो रहा है जो इतना जटिल है के इससे पहले ऐसा हद कभी नहीं देखा गया और आज भावी परिदृश्य का खाका खींचना मुमकिन नहीं दिखता.

पड़ोस का सर्द-गर्म युद्ध और भारतीय विदेश नीति

सुभाष धूलिया

आज भारत का सामना एक ऐसे पाकिस्तान से है जो इससे पहले कभी अस्तित्व में नहीं था. आज पाकिस्तान के साथ संबंधों में हार-जीत के अर्थ बदल चुकें हैं. अब एक दूसरे को कमजोर करने का मतलब खुद को कमजोर करना होगा. पाकिस्तान आज स्वयं से युद्धग्रस्त है और पाकिस्तान को लेकर भारत के हित इस इस रूप में दाँव पर लगे हैं कि पाकिस्तान के भीतर चल रहे युद्ध में किन ताकतों के विजय होती है. इस दौर में भारत की विदेश नीति का लक्ष्य यही होना चाहिए की पाकिस्तान में ऐसी शक्तियों ताकत न मिले जिनकी राजनीति भारत-विरोधी उन्माद पर टिकी है.

पाकिस्तान आज केवल एक संकटग्रस्त देश नहीं है . यह एक शर्म और अपमान में डूबा देश है. नाभिकीय हथियारों से लैस यह सैनिक शक्ति आज बेबस है. आज हर पाकिस्तनी देशभक्त को शर्मशार और अपमानित होना चाहिए. शर्मशार इसलिए के दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी पांच सालों से उसके सिरहाने तले छिपा बैठा रहा और अपमानित इसलिए के अमेरिका ने इसकी प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उड़ाते हुए इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में ओसामा को मार गिराया. एक राष्ट्र का अपमानित और बेबस होने के अपने ही खतरे हैं. आज पाकिस्तान की इस हालत के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार इसका सैनिक और खुफिया तंत्र है जिसके कुछ प्रभावशाली तबके धार्मिक उग्रवाद को पनाह देते रहे हैं . ओसामा अगर बिना इन तबकों की मदद से पांच साल तक पाकिस्तान की राजधानी के करीब रहा रहा था तो फिर यह तो और भी खतरनाक स्थिति हैं और पाकिस्तना के सैनिक और ख़ुफ़िया तंत्र के निकम्मेपन की पराकाष्टा है और अगर ऐसा है तो कैसे ये माना जाये के पाकिस्तान के नाभिकिये हथियार किन्ही सुरक्षित हाथों मैं हैं और ये हाथ कितने सुरक्षित हैं ? पाकिस्तान की वास्तविक सत्ता का नियंत्रण इन्ही 'सुरक्षित' हाथों में है जिन्होंने हर सामरिक युद्ध मैं पराजय झेली है और केवल आतंकवादी युद्धों में ही 'विजय' का दावा कर सकतें हैं . यही वह पाकिस्तानी सत्ता है जिसने इतिहास में हर संकट की घडी में राष्ट्रवाद के उन्माद की आड़ में सत्ता हड़पी और इस पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए भारत-विरोधी उन्माद का सहारा लिया. स्वाभातावा अमेरिकी आक्रमण के उपरांत राष्ट्रवाद का उफान आया है और एक बार फिर इस गुमराह राष्टवाद के घोड़े पर सवार होने की कोशिश करेगी जो पहले ही शुरू हो चुकी है और आने वाले दिनों में भारतीय सीमा और खास तौर से कश्मीर मैं सीमा पर झड़पें हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. पाकिस्तान में आज के कशमश की स्तिथि होनी चाहिए. अगर पाक के एक देश के रूप में कोई भविष्य हैं तो भारत-विरोधी उन्माद की टक्कर में एक ऐसे विवेकशील नेतृत्व का अस्तित्व होना चाहेए जो भारत से सहयोग का रास्ता अपनाकर पाक को इस संकट से निकलने के लिए के लिए किसी रास्ते का निर्माण करे . पाकिस्तान का भविष्य इस कशमकश के परिणाम पर निर्भर करता है .

कुछ ख़ास ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण, भारत में भी एक प्रभावशाली पकिस्तान-विरोधी तबका अस्तित्व में रहा है जो समय समय पर पाकिस्तान के प्रति भारतीय नीति को प्रभावित करता रहा है. 9 /11 और 26 /11 और हाल ही में अमेरिकी सैनिक कारवाही जैसी परिस्थितियों में पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कमर कस लेता है. भारतीय मीडिया का एक तबका भी पाकिस्तान-विरोधी उन्माद का शिकार रहा है जो पाकिस्तान हे नहीं चीन के साथ संबंधों को लेकर भी अनावश्यक राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करता रहा है. सच तो यह है की भारत के भीतर पाकिस्तान- विरोधियों और पाकिस्तान के भीतर भारत-विरोधियों की कभी भी कमी नहीं रही और दोनों देशो की विदेश नीति पर इनका प्रभाव भी कभी कम नहीं रहा. लेकिन आज की स्थिति में 'विरोध' ये परंपरागत समीकरण बिखर चुके हैं और इसी के अनुरूप विदेश नीति को बदलना होगा जिससे पाकिस्तान के भीतर के भारत-विरोधियो को पराजित किया जा सके. आखिर आज भारत उस पाकिस्तान से रूबरू नहीं है जो 1947 में अस्तित्व में आया था बल्कि यह एक ऐसा पाकिस्तान है जिसका बिखरना भारत के लिए एक बड़ा खतरा होगा . अमेरिकी कारवाही के एक दम बाद भारतीय सैनिक नेतृत्व ने कुछ ऐसे बयान दिए जिनसे पाकिस्तान के भारत- विरोधी उन्मादियों को ताकत मिली. लेकिन इसके एकदम बाद राजनैतिक नेतृत्व ने विवेक का परिचय दिया और स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा की भारत अमेरिका नहीं है और न ही भारत के तौर-तरीके अमेरिका जैसे हैं. उन्होंने पाकिस्तान के साथ मौजूदा राजनैतिक प्रक्रिया को बनाये रखने पर जोर दिया.


ऐतिहासिक रूप से एक अपमानित देश में सकारात्मक परिवर्तन नहीं आयें हैं. पहले विश्व युद्ध में जर्मनी के अपमान ने दुसरे विश्व युद्ध को जन्म दिया लेकिन दुसरे विश्व युद्ध में अपमानित जापान अलग ही रास्ता अपनाने को मजबूर था. अपमानित पाकिस्तान कौन सा रास्ता अपनाएगा -यह इस बात पे निर्भर करता है की पाकिस्तान के भीतर चल रही कशमकश में कौन सा पक्ष मजबूत होकर उभरता है. आज पकिस्तान अमेरिका के चंगुल में फंसा है. पाकिस्तान के भीतर अमेरिका ने एक मजबूत सैनिक और खुफियातंत्र कायम कर लिया है. पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान को इन परिस्थितियों में चीन से भी ऐसी मदद नहीं मिल सकती जिसकी इसे दरकार है. पाकिस्तान में इस्माली उग्रवाद गहरी जड़े जमा चूका है जिसका इस्तमाल सैनिक प्रतिष्ठान ने भारत के खिलाफ और अफगानिस्तान पर प्रभुत्वा कायम करने के लिए लिया. लेकिन अमेरिका के इस्लामी उग्रवाद के निशाने पर आने के बाद सब कुछ बदल गया. पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा की वह पुराने समीकरणों का पूरी तरह परित्याग नहीं कर पाया और 9 /11 के उपरान्त उभरी व्यवस्था के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया जिसका खामियाजा उसे आज भुगतना पड़ रहा है और एक राष्ट्र- राज्य के रूप में इसका अस्तित्व ही दाव पर लग गया है.

ऐसी परोस्थितियाँ कई बार आत्मघाती दुस्साहस को जन्म देती है और पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान की इस तरह के दुस्साहस की क्षमता को बिलकुल भी कम करके नहीं आँका जा सकता. लेकिन पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ युद्ध की अग्रिम पंक्तियों में स्वयं अमेरिक खड़ा है. अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने और सैनिक वापसी के लिए अमेरिका को पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद को पराजित करना होगा. बहुत लम्बे समय तक पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद किए निशाने पर केवल भारत ही रहा है लेकिन आज प्रत्यक्ष रूप से तो यह अमेरिका का ही युद्ध बन चुका है . पाकिस्तान के भीतर के भावी सत्ता समीकरणों को तय करने में अमेरिका की एक बड़ी भूमिका हो गयी है. अमेरिका इस इस दखल के खतरे भी हैं और इससे अंध-राष्ट्रवाद और उग्रवाद को ताकत मिलती है.

इसलिए एकदम पड़ोस में भड़क रहे इस सर्द-गर्म और जटिल युद्ध के प्रति भारत को एक नयी नीति का सृजन करना होगा जिसमें अलगाव भी न हो और ऐसा जुडाव भे न हो की दीर्घकालीन हितों पर चोट पहुंचे और कुछ ऐसी समस्याएं भारत के दरवाजे पर आज टपकें जिन्हें दूर रखा जा सकता है. पुराने राजनीतिक और सामरिक समीकरण ध्वस्त हो चुकें हैं और नए उभर रहे हैं जिनका सामना करने के लिए नयी नीति और नए दृष्टिकोण की जरुरत है -जिस तरह 9 /11 के उपरांत दुनिया बदली, ठीक उसी तरह पाकिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण से एशिया का यह भूभाग भी बदल चुका है.

अब आतंकवाद के निशाने पर कौन ?

सुभाष धूलिया

पाक- अफगान भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जटिल होता चला जा रहा है. अमेरिका जहाँ सैनिक वापसी के लिए अपने कुछ मकसद जल्द से जल्द पूरे कर देना चाहता है वहीँ पाकिस्तान इसमें एक रोड़ा साबित हो रहा है .यूं तो लादेन को मरने के लिए की गयी सैनिक कार्रवाई से ही तनातनी शुरू हो गयी थी पर इसके बाद पाकिस्तान ने कई ऐसे कदम उठाये जिनसे अमेरिका नाराज है. पाकिस्तान ने लादेन के मारे जाने के बाद न केवल सी.आई.ए. के पाकिस्तानी एजेंटों के धरपकड की गयी बल्कि अब अमेरिका के 200 ट्रेनरों को भी बाहर कर दिया है और आरोप लगाया कि ये पाकिस्तान में सी.आई.ए का तंत्र कायम करने में जुटे थे. अमेरिका ने अब साफ़ कर दिया है कि पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई लगाम लगाये बिना आतंकवाद का सफाया कठिन होगा. अमेरिका आई.एस.आई के प्रमुख जनरल पाशा को हटने के लिए भे दवाब डाल रहा है . तनाव इतना है के पाकिस्तान ने अमेरिका को शांत करने के लिए जनरल पाशा को अमेरिका रवाना करना पड़ा पर इसके कोई खास परिणाम नहीं निकले.
अब अमेरिका ने पाकिस्तान को सबसे बड़ा झटका दिया है और 80 करोड डॉलर की सैनिक मदद रोक दी है. पाकिस्तानी सेना काफी हद तक अमेरिका की मदद पर निर्भर है . 2001 में अफगान युद्ध शुरू होने से अब तक अमेसिका पाकिस्तान को १२ अरब डॉलर की प्रत्यक्ष सैनिक मदद दे चुका है . लादेन को मारने की कार्रवई और सीमा पर बढते हवाई हमलों से पाकिस्तान की सेना का एक वर्ग अमेरिका विरोधी भावनाएं भड़क उठी हैं और ऐसे में पाकिस्तान के लिए वह सब कर पाना मुश्किल हो रहा है जिसकी अमेरिका को दरकार है. अमेरिका का मानना है की आतंकवाद के खिलफ अभियान इसलिए सफल नहीं हो पा रह है क्योंकि पाकिस्तान में आतंकवादी अड्डे हैं और फिर अफगानिस्तान के भीतर तमाम ऐसे आतंकवादी गुट हैं जिन्हें पाकिस्तान अपनी “सामरिक सम्पतियें” मानता है ताकि कभी इनका इस्तेमाल काबुल में पाक-परस्त सत्ता कायम करने के लिए किया जा सके. हक्कानी गुट इनमे सबसे ऊपर है और अमेरिका इस पर लगातार प्रहार किये जा रहा है. आई.एस.आई अपने आप को उस आतंकवाद से अलग नहीं कर पा रही है इसे इसने पिछले 30 वर्षों से पाला-पोसा है और जिसका इस्तेमाल भारत और अफगानिस्तान दोनों के खिलाफ किया है. आज भी आई.एस.आई अफगानिस्तान में उग्रवादी गुटों से पल्ला नहीं झाड रहा है और अब अमेरिका का दवाब इस कदर बढ़ गया है कि पाकिस्तान को कुछ ठोस निर्णय लेने ही होंगे.

इसके सामानांतर अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने के प्रयासों बड़ा धक्का लगा जब राष्ट्रपति हामिद करज़ई के सौतेले भाई अहमद वली करज़ई के हत्या कर दी गयी. अहमद वली को कंधार का नेरश कहा जाता था और इनकी ताकत के पीछे अफीम के तस्कर तक शामिल थे. इन्हें अत्यंत भरष्ट माना जाता था पर तालिबान के गढ़ कंधार में इनकी तूती टूटी बोलती थी. सी..आई. ए. ने भी माना की तालिबान के गढ़ में इससे लड़ने के लिए अहमद वली की ताकत की जरुरत है. अहमद वली के जाने के बाद से कंधार में एक सत्ता शुन्य पैदा हो गया है जिसे भरना आसान नहीं होगा और इससे राष्ट्पति करज़ई की ताकत कमजोर हुयी है. अफगान युद्ध में तालिबान को परास्त करने के लिए कंधार का नियंत्रण अहम है.
इस पृष्टभूमि से यह स्पष्ट है अब पाक-अफगान भूभाग में अमेरिका की रणनीति आतंकवाद को खत्म करने से कहीं अधिक आतंकवादिओं ध्वस्त करने पर केंद्रित है. आने वाले दिनों में इस क्षेत्र सैनिक अभियान तेज होगा और पाकिस्तन को अपना रुख बदलने पर मजबूर होना होगा. इन सैनिक अभियानों से काफी हद तक वैश्विक आतंकवाद कमजोर हुआ है पर अब लादेन के उत्तराधिकरिओं को भी अपने आप को साबित करना होगा और निश्चय ही वे किसी “काफिरस्तान” पर आतंकी हमले करेंगे. आज अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश एक तरह के इलेक्ट्रोनिक किले बन चुकें हैं. इस इलेक्ट्रोनिक नज़र से बच कर आतंकवादी हमला कफी मुश्किल हो चुका है. इसी परिप्रेक्ष्य में मुंबई पर हमलों का आंकलन करना होगा. भारत एक विशाल देश है और इसका सुरक्षातंत्र अमेरिका जैसा नहीं हो सकता और इस दृष्टि से भारत आतंकवादिओं के लिए एक ‘सोफ्ट टारगेट’ हो जाता है. यूं तो अफगानस्तान और पाकिस्तान में रोजमर्रे ही आतंकवादी हमले हो रहे हैं पर भारत पर आतंकवादी हमलों के परिणाम अलग तरह के हंगे और स्थिति नाजुक तब और हो जाती है जब इस तरह के हमलों आई.एस.आई का हाथ हो. भारत पर हमलों से आतंकवादी इस इस क्षेत्र में एक तनाव का माहोल पैदा कर सकते हैं और पूरे क्षेत्र मैं चल रही विभिन्न राजनीतिक प्रक्रियायों ध्वस्त कर सकतें हैं. सरकारें भले कितनी ही परिपक्व क्यों न हों, किन्ही खास परोस्थियों में लोगों के आक्रोश की अनदेखे नहीं कर सकतीं. लेकिन जो भी हो इतना माना जा सकता है कि आज भारत के वैश्विक आतंकवाद के निशाने पर होने की वास्तविक सम्भावनाएं मौजूद हैं.

यह भी दिलचस्प है के आज की तारीख में जहाँ अमेरिका और पाक संबंधों मैं तनातनी है वहीँ भारत-पाक सम्बन्ध पटरी पर आते नज़र हैं. इस बार मुंबई हमलों के उपरांत किसी तरह के पाक विरोधी उन्माद पैदा नहीं हुआ और विदेश मंत्री ने स्पष्ट किया कि वार्ता और आतंकवाद के अलग रखन होगा और ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए कि सरहद के पर के उग्रवादिओं और भारत-विरोधी उन्माद तो ताकत मिले. पाकिस्तान में भी शायद ये अहसास जग रहा है के वह अपने इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा हो और आज अपने राष्ट्रीय जीवन को भारत-विरोधी धुरी पर बनाये रखने के गंभीर परिणाम होंगे. पाकिस्तान का अफगानिस्तान से लगी पश्चिमी सरहद में बहुत लंबे समय तक शांति कायम नहीं होने जा रही है और अफगानिस्तान में कैसी भे सत्ता अस्तित्व में आये –पाकिस्तान को शुकून नहीं देने जा रही. इस वक्त अफगानिस्तान में ऐसी किसी सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती हो अमेरिका-परस्त भी हो और पाकिस्तान को भी रास आये. ऐसे में कोई भी जरा सा भी विवेकशील पाकिस्तानी नेतृत्व भारत के साथ लगी पूरवी सरहद पर अमन चाहेगा.

आज इस भूभाग में आतंकवाद से लड़ने की हर रणनीति के केंद्र में आई.एस.आई है जो पाकिस्तान कि सत्ता का इ हिस्सा है. कोई भी आतंकवादी हमला जिसे आई एस आई के तत्त्वों का समर्थन प्राप्त हो उसे राज्य – प्रायोजित आतंकवाद ही कहा जाएगा.ऐसे में पाकिस्तान के सत्ता तंत्र को आई एस आई को साफ़ सूत्र करना होगा. इसके बिना न तो पाकिस्तान वह कर सकता जिसकी अमेरिका को दरकार है और भारत के साथ बेहतर संबंधों के लिए यह भी ज़रूरी है कि भारत पर ऐसा कोई आतंकवादी हमला न हो जो ऐसी श्रेणी में आता हो जिसमें आई एस आई का हाथ हो.
अब हर सवाल का जबाव इसी मैं छिपा है की क्या पाकिस्तान का सत्तातंत्र आई.एस.आई पर लगाम लगायेगा? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसका ऐसा इरादा है और क्या वह यह करने में समर्थ है? इस तरह का इरादा न होना और इस तरह से समर्थ न होने कि स्तिथि में पाकिस्तान हमेशा शक के दायरे में रहेगा और मौजूदा परिस्थितियों में पाकिस्तान का ऐसा बना रहने स्वयं उसके लिए बहुत घातक है. इस सप्ताह भारत पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों कि वार्ता और अमेरिकी विदेश मंत्री क्लिंटन कि भारत यात्रा से पैदा हुआ माहौल पाकिस्तान के लिए अवसर भी पैदा करता है और चुनौती भी. यह पाकिस्तान पर निर्भर है कि वह किस हद्द तक इस अवसर का लाभ उठा पाता है और अपने इतिहास के सबसे बड़े संकट से कैसे और किस रूप में उभर पाता है. आज कई हलकों में पाकिस्तान के विखंडन की चर्चा होने आगे है.

अरब वसंत और अब तुर्की के चुनाव

सुभाष धूलिया

इक्कीसवीं सदी के विश्व के राजनीतिक मानचित्र के निर्माण और अनेक तरह के टकरावों का केंद्र इस्लामी दुनिया बनती जा रही है . शीत युद्ध के उपरांत पूरी इस्लामी दुनिया में उग्र राजीतिंक इस्लाम उफान पर था और 9/11 के उपरांत अमेरिका के आंतंकवाद के खिलाड वैश्विक युद्ध में इस्लामी देश ही निशाने पर रहे और इसले लगा कि दुनिया पश्चिम और इस्लाम के बीच एक ऐसे टकराव की ओर बढ़ रही हैं जिसका कोई अंत नहीं होगा और अस्थिरता एक स्थायी रूप धारण कर लेगी.
लेकिन हाल ही में इस्लामी दुनिया में कुछ ऐसे रुझान पनपने शुरू हुए हैं जिनमे कुछ बुनियादी और सकारात्मक परिवर्तनों के तत्त्व निहित हैं. अरब जगत के हाल के ही जन विद्रोह ने सन्देश दिया कि अब तो कुछ बदलना ही चाहिए भले ही यह अरब वसंत के पास अभी बदलाव की स्पष्ट रूपरेखा नहीं है और न ही यह कोई संघटित राजनीतिक ताकत है. पर इसने एक सन्देश यह दिया कि इस्लामी दुनिया सिर्फ कट्टरपंथ और आतंकवाद तक सीमित नहीं है. इसके भी एक बेहतर जिंदगी के कुछ सपने हैं.इन्हें भी भ्रष्ट तानाशाहों से मुक्ति चाहिए. इनके देश में भी स्वंत्रता की हवाएं बहनी चाहिए. लेकिन पूरा इस्लामी जगत कट्टरपंथ और युद्ध के एक ऐसे मकडजाल में फंसा है के परिवर्तन की अवधारणा ही धूमिल रही.

इन रुझानों के बीच हाल ही के तुर्की के चुनाव परिणाम और अनेक उग्र इस्लामी धाराओं में कुछ उदार तत्वों के उदय से परिवर्तन के एक नक़्शे के बनाने की छोटी सी आशा दिखती है. तुर्की के चुनावों में इस्लामी पार्टी ने लगातार तीसरी बार चुनाव जीते. 2002 से अब तक के अपने शासन में तुर्की ने यह साबित कर दिया के इस्लाम और लोकत्रंत्र परस्पर विरोधी नहीं हैं और लोकत्रंत्र को इस्लामी मूल्यों और संस्कृति के अनुरूप ढला जा सकता है. आज यह धारणा पनप रही है कि तुर्की इस्लामी दुनिया के लिए एक मॉडल हो सकता है जिसमें इस्लाम और लोकत्रंत्र एक एक साथ फल फूल सकतें हैं. तुर्की में पहले विश्व युद्ध के बाद कमाल अतातुर्क ने जिस धर्मनिरपक्ष गणतंत्र के नीव राखी थे वह आज इस्लामी पार्टी के सत्ता में आने के बाद भी फलफूल रही है . तुर्की में कई बार सेना ने इस्लामी सत्ता के उदय नहीं होने दिया और निवार्चित सरकारों को बर्खास्त किया लेकिन आज तुर्की में लोकत्रंत्र और इस्लाम का इस तरह का समावेश चुका है की “इस्लामी सता” के उदय का डर खत्म हो गया है . तुर्की के सफल प्रयोग ने यह साबित कर दिया कि इस्लामी सत्ता का पश्चिम-विरोधी होना अनिवार्य नहीं हैं और अब पूरे इस्लामी जगत के सन्दर्भ में पश्चिम को यह साबित करना होगा कि हर इस्लामी लोकत्रंत्र के पश्चिम-परस्त होना भी अनिवार्य नहीं है तभी इस्लामी दुनिया में ऐसे परिवर्तन संभव हैं जिनसे युद्ध और अस्थिरता को खत्म किया जा सकता है .

इस संदर्भ में इस बात को नहीं भूल जाना चाहिए कि हर देश कि अपनी संस्कृति है, अपनी एक पहचान और यही इसकी किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के आधार हो सकतें हैं. लोकत्रंत्र का निर्यात संभव नहीं है और यह न तो अफगानिस्तान ने सफल हुआ न इराक में और न ही लीबिया में सफल होने जा रहा है. इसके विपरीत इरान और सूडान जैसे देशों में इस्लामी सत्ता का जूनून भी कम हो रहा है और इक्कीसवीं सदी के साथ जीने के बदलाव के स्वर उठ रहे हैं. इस दौर में इस्लाम में कट्टरता के बजाय उदारता कि एक धारा पैदा हो रही है. मिस्र में इस्लामी ब्रदरहूड में नरम धारा पनप रही है और अरब वसंत के दौरान इसे साफ़ देखा जो सकता था. लेबनान में हिजबुल्लाह ने अस्सी के दशक में आत्मघाती हमलों के आतंकवाद कि शुरुआत की थी लेकिन आज यह एक राजनीतिक दल है और उग्रवादी तत्त्व हासिये पर चले गए हैं.
सत्तर के दशक से जो इस्लामी कट्टरपंथ पनप रहा था और जिसकी एक धारा आतंकवाद के रूप में पनपी, वह आज ढलान पर है. इस्लामी दुनिया के नया उफान है. तुर्की एक मॉडल पेश करता है और अगर मिस्र में भी इस्लाम और लोकत्रंत्र का समावेश हो पता है तो ये दोनों देश पूरी इस्लामी पर जबरदस्त असर डाल सकतें हैं. इस परिवर्तन का अग्रिम दस्ता युवा वर्ग है जिसकी उम्र तीस साल से कम है और जो इस्लामी जगत के आवादी का सत्तर प्रतिशत है. यही युवा अन्याय से लड़ने के लिए इस्लामी उग्रवाद की और खिंचा और आज इसी युवा के सपने कुछ और हैं . अरब वसंत ने यह साबित कर दिया कि इस्लामी दुनिया में ऐसी राजनीतिक धाराएं मौजूद हैं जो उदार व्यवस्थायों के निर्माण का आधार बन सकतीं हैं. इसने यह भी साबित कर दिया की भ्रष्ट तानाशाहों के खिलाफ कितना आक्रोश है जिन्हें हमेशा पश्चिम का समर्थन मिलता रहा. यही सब देश हैं जो दावा करतें हैं के उनकी सत्ता का विकल्प केवल पश्चिम-विरोधी इस्लामी सत्ताएं है. लेकिन अरब बसंत और तुर्की के सफल इस्लामी प्रयोग साबित कर दिया है कि जरुरी हैं है के परिवर्तन दी दिशा यही हो.

इस्लामी दुनिया और इसके तेल संसाधनों पर नियंत्रण के लिए अमेरिया ने तमाम तरह की तानाशाहियों को ही समर्थन देता रहा और इस्लामी उग्रवाद के उदय के बाद यह समर्थन गहरा होता चला गया. आज के इस्लामी दुनिया में इराक , अफगानिस्तान और अब लीबिया में अमेरिका के सैनिक अभियान चल रहें हैं और कोई भी ये उम्मीद नहीं करता के इनके परिणाम से कोई लोकत्रंत्र उभरेगा बल्कि पूरा ध्यान इस बात पर है कि स्थायित्व कैसे कायम किया जाये जो पश्चिम की बुनियादी चिंता है . फिर इरान हैं जहाँ एक घोर पश्चिम-विरोधी इस्लामी सत्ता है जिसके खिलाफ बार-बार अमेरिकी सैनिक आक्रमण की संभावना बनी रहती है पर के सच्चाई ये भी है के इस पूरे क्षेत्र में इरान एकमात्र ऐसा देश है जिसमें सबके अधिक बार चुनाव हुए हैं. और आज भी वहाँ चुनाव होते हैं. एक अल्जीरिया हैं जहाँ एक दशक पहले में इस्लामी पार्टी के सत्ता में आने के संभावना के कारण सेना ने चुनाव रद्द कर दिए और सत्ता संभल ली और तब से अब तक ये देश एक तरह के गृह युद्ध मैं फंसा है.

इस्लामी दुनिया में के नयी सूच पनप रही है. नयी पीड़ी सामाजिक और राजीनीतिक जीवन के केंद्र मैं आ रही है जिसकी सोच के के केन्द्र् में धार्मिक कट्टर्पंध नहीं है बल्कि वे स्वत्रन्त्रता चाहते हैं , वे एक आधुनिक समाज चाहतें हैं पर इसका मतलब या भे नहीं लगाया जाना चाहिए कि की वे निश्चित रूप से कोई पश्चिम-परस्त या पश्चिमी शैली के लोकत्रंत्र के भी समर्थक हैं. अब ये देखना भी बाकी है कि क्या अमेरिका और पश्चिम इस्लामी जगत मैं ऐसी सत्ताओं के साथ तालमेल बिठाने को राजी होंगे जो एकदम पश्चिम-परस्त न हों? क्या वे मौजूदा स्थिति का इस रूप में मूल्याकन करेंगे कि परिवर्तन को रोकने का मतलब अस्थिरता होगी जो स्वयं इनके हितों की पूर्ती नहीं करता ?

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Thursday 24 February 2011

युद्ध से नहीं पनपता लोकतंत्र

सुभाष धूलिया

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस्लामी दुनिया का दिल जीतने के लिए नई पहल के साथ अपनी पारी की शुरुआत की थी लेकिन अभी हाल ही में उन्होंने कहा है कि ‘हिंसक उग्रवाद’ के खिलाफ अमेरिका का संघर्ष केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसके तत्काल बाद यमन में एक अमेरिकी विमान को उड़ाने के विफल प्रयास के बाद अमेरिका ने यमन के तथाकथित अलकायदा के ठिकानों पर हवाई हमले किए जिनमें अनेक निर्दोष लोग मारे गए। 9/11 के आतंकवादी हमलों के उपरांत अमेरिका ने ‘आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध’ छेड़ने की घोषणा की थी अब यह ‘हिंसक उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष’ के रूप में पारिभाषित हो चुका है। लेकिन धरातल की वास्तविकता तो यही है कि यह संघर्ष इस्लामी दुनिया में एक बड़े युद्ध या कई युद्धों का रूप धारण करता चला जा रहा है।

अमेरिकी हमले सउदी अरब की सीमा से लगे यमन के शिया बहुल प्रांत में किए गए। इसके साथ ही यमन की अमेरिकीपरस्त तानाशाही सरकार ने भी अल कायदा के गढ़ों को ध्वस्त करने के लिए सैनिक अभियान छेड़ दिया है। इस अभियान में सउदी अरब की अमेरिकी पिठ्ठू सामंती सत्ता ने भी इस प्रांत में सैनिक कार्रवाईयां की हैं। मिस्त्र भी इस टकराव में कूद पड़ा है और सऊदी अरब के साथ इसने भी यमन में इस इस्लामी उग्रवाद के लिए ईरान को दोषी ठहराया है।

इस दृष्टि से ये घटनाक्रम एक छोटे से देश यमन के एक प्रांत में सैनिक कार्रवाई तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि एक ओर अमेरिका और उसके समर्थक स्वयं यमन सरकार, सऊदी अरब और मिस्त्र और दूसरी ओर विरोधी ईरान भी इस टकराव से संबंद्ध हो गए हैं। यमन पर अमेरिका के हवाई हमले ऐसे समय में हुए हैं जब अफगानिस्तान में अमेरिका ने 30 हजार और सैनिक तैनात कर दिये हैं और पाकिस्तान की अफगानिस्तान से लगी सीमा पर विशेष दस्तों की गुप्त कार्रवाईयों के अलावा चालकविहीन विमान (ड्रोन) के हमले भी तेज हो गए हैं।

एक ओर तो अफगानिस्तान की स्थिति संभाले नहीं संभल रही है और दूसरी ओर पाकिस्तान पर बढ़ रहे हमलो से पाकिस्तान के भीतर भी नाजुक स्थिति पैदा हो रही है। साथ ही अमेरिका ने पाकिस्तान ने इस समय एक नई तरह की सैनिक उपस्थिति कायम कर ली है और अपने प्रतिष्टठानों की सुरक्षा के नाम पर एक निजी सुरक्षा एजेंसी ‘ब्लैकवाटर’ के दस्ते भी तैयार कर लिए हैं। दरअसल ब्लैकवाटर अमेरिकी की एक ऐसी निजी सुरक्षा एजेंसी है जिसे अमेरिकी सुरक्षातंत्र के अत्यंत प्रशिक्षित सेनानिवृत सुरक्षाकर्मी चलाते हैं। इसकी सैनिक और खुफिया क्षमता अमेरिकी एजेंसियों से किसी भी मायने में कम नहीं है। इराक और कई अन्य देशों में हिंसक कार्रवाईयों के लिए ये संस्था पहले ही काफी बदनाम हो चुकी है। अमेरिका ने इस एजेंसी के दस्तों को समय-समय पर ऐसे दशों में तैनात किया जिनमें अमेरिका प्रत्यक्ष रूप से युद्द में शामिल नहीं हो या किन्हीं अन्य कारणों से अमेरिकी सैनिकों की तैनाती का मसला संवेदनशील रहा है- पाकिस्तान भी इस श्रेणी के देशों में आता है। पाकिस्तान का सत्तातंत्र पहले ही ही अस्त-व्यस्त है और ऐसे में अमेरिका की इन कार्रवाईयों से इस पर संकट के नए बादल मंडरा रहे हैं।

पाकिस्तान में ऐसे समय में सत्ता के अनेक केन्द्र पैदा हो गए हैं जब इसे एक केन्द्रीकृत मजबूत सरकार की सबसे अधिक जरूरत है। राष्ट्रपति जरदारी के बारे में आम धारणा यह है कि वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए अमेरिका को रिझाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि पाकिस्तान के सुरक्षातंत्र को एक तरह से अमेरिका के हवाले कर दिया है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान को अमेरिका से मिल रही अरबों डॉलर की मदद में एक शर्त यह भी है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाकिस्तानी सेना को यह प्रमाणपत्र देना होगा कि वे आतंकवाद के खिलाफ मजबूती से लड़ रहे हैं। अमेरिकी की इन तमाम तरह की दखल से अमेरिक –विरोधी रुझान प्रबल हो रहे हैं। ऐसे में पाकिस्तानी सत्ता के लोकप्रिय समर्थन में भारी ह्रास हो रहा है और इससे ‘सीमित पाकिस्तानी लोकतंत्र’ का भविष्य खतरे में पड़ता नजर आ रहा है।

अब ‘हिसंक उग्रावाद’ के खिलाफ अमेरिकी संघर्ष युद्ध इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि यमन तक इसका विस्तार हो गया है और सउदी अरब और मिस्त्र भी इसमें कूद पड़े हैं। ईरान पहले ही अमेरिका के निशाने पर है और तमाम संकेत यही हैं कि ईरान नाभिकीय प्रोद्योगिकी विकसित करने के अपने कार्यक्रम से पीछ नहीं हटेगा और ऐसे में ईरान पर अमेरिकी-इजराइल हमला निश्चित सा जान पड़ता है। ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त किया जा सकता है और ऐसा नहीं भी होता और यह चन्द नाभिकीय हथियार विकसित भी कर लेता है तो भी इससे कहीं अधिक चिंता का विषय पाकिस्तान है जिसके पास अपेक्षातया कहीं बड़ा नाभिकीय हथियारों का जखीरा है। ईरान के अलावा अल्जीरिया, सूडान, सीरिया और सोमालिया अमेरिका के हिट लिस्ट में शामिल हैं।

इराक पर अमेरिका ने ‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता’ के नाम पर हमला किया था और तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन पर नव-अनुदारवादी इस कदर हावी थे कि उन्होंने सैनिक अभियान के बल पर इस्लामी दुनिया को ‘आधुनिक और लोकतांत्रिक’ बनाने का बीड़ा उठा लिया। इस अभियान में अमेरिका को उन सैनिक हितों औऱ आर्थिक हितों का भी पूरा समर्थन मिला जो इस क्षेत्र के तेल संसाधनों पर नियंत्रण कायम करना चाहते थे। लेकिन आज स्थिति यह है कि लोकतंत्र तो दूर की बात रही इराक और अफगानिस्तान तो एक देश के रूप में भी विखंडित हो चुके हैं।आज पाकिस्तान के लोकतंत्र का भविष्य भी अंधकारमय है। अमेरिका के सहयोगी यमन और सउदी अरब में सामंती तानाशाहियां राज करती हैं। दुनिया के इस भूभाग में लोकतंत्र का अकाल है और इस कारण अमेरिकी समर्थक और विरोधी दोनों ही श्रेणी के देशों में धार्मिक उग्रवाद का सामाजिक और राजनीतिक आधार विस्तृत हो रहा है। अमेरिका के सैनिक अभियान से रही-सही उदार लोकतांत्रिक और राजनीतिक धाराएं भी तबाह हो रही हैं। ‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता’ का अमेरिकी अभियान विजय की दिशाहीन खोज में बर्बर तानाशाही सत्ताओं पर ही निर्भर होता चला जा रहा है।

Wednesday 23 February 2011

समकालीन वैश्विक मीडिया : सूचना का अंत और मनोरंजन आगमन

सुभाष धूलिया

तानाशाहियों की तुलना में मुक्त समाजों में सेंसरशिप असीमित रूप से कही अधिक परिष्कृत और गहन होती है क्योंकि इस से असहमति को चुप कराया जा सकता है और प्रतिकूल तथ्यों को छिपाया जा सकता है- जोर्ज ऑरवेल

आज की दुनिया औपचारिक रूप से अधिक लोकतान्त्रिक है लेकिन फिर भी लोगों को लगता है की उनके समाज के बुनियादी फैसले अधिकाधिक उनके नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं- रॉबर्ट मैकचेस्नी


पिछले तीन दशकों में मानव विकास की दिशा और दशा मैं बुनियादी परिवर्तन आये हैं । समाज पर व्यापार के आधिपत्य की नवउदारवादी विचारधारा आज विश्व राजनीति के केंद्र में हैं । नवउदारवाद का आधार एक उपभोक्ता समाज और विश्व को एक बाज़ार में तब्दील कर देना है । एक ऐसे समाज का निर्माण है जिस पर व्यापार का प्रभुत्व हो इस तरह की व्यवस्था कायम करने मैं मीडिया की केंद्रीय भूमिका है । अस्सी-नब्बे के दशक की कुछ घटनाओं ने राजनीतिक, आर्थिक और सूचना संचार की अंतर्राद्गट्रीय व्यवस्थाओं को एक तरह से फिर से परिभाषित कर दिया जिससे विश्व राजनीति के चरित्र और स्वभाव में बड़े परिवर्तन आए।

अस्सी के दशक में विकास के सोवियत समाजवादी मॉडल के चरमराने की प्रक्रिया शुरू हुई और 1991 में सोवियत संघ का अवसान हुआ। इस घटना को पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थव्यवस्था की विजय के रूप में देखा गया। इसी दशक में सूचना क्रांति ने भी बेमिसाल ऊँचाइयां हासिल की और इसी के समांतर दुनिया भर में मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया भी शुरू हुई। शीतयुद्धकालीन वैचारिक राजनीति के अवसान के उपरांत नवउदारवादी भूमंडलीकरण से एक नए व्यापारिक मूल्यों और एक नयी उपभोक्ता संस्कृति का उदय हुआ। इन सबका जबरदस्त प्रभाव जनसंचार माध्यमों पर भी पड़ा। जनसंचार माध्यम काफी हद तक इस प्रक्रिया का हिस्सा बन गये और राजनीतिक और व्यापारिक हितों के अधीन होते चले गए। व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया आज अपने चरम पर है। भले ही विभिन्न देशों और विभिन्न समाजों में इसका रूप-स्वरूप कितना ही भिन्न क्यों न हो।

शीतयुद्ध के बाद दो विचारधाराओं के बीच संघर्ष का अंत हो गया। पश्चिम की पूंजीवादी विचारधारा ही प्रभुत्वकारी बन गयी और इसका कोई वास्तविक रूप से प्रभावशाली विकल्प नहीं उभर पाया। इन कारणों से शैली की पश्चिमी उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक स्तर पर मुक्त अर्थतंत्र और नवउदारवादी भूमंडलीकरण- यही आज की विश्व व्यवस्था के मुखय स्तंभ हैं। राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इस स्वरूप के अनुरूप ही सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य ढल रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में पश्चिमी जीवन शैली और सांस्कृतिक मूल्यों का ही विस्तार हो रहा है और वैश्विक मीडिया इसमें अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। सांस्कृतिक समरूपीकरण प्रक्रिया को जन्म दे रहा है । राजनैतिक स्तर पर यह पश्चिमी उदार लोकतंत्र, आर्थिक स्तर पर मुक्त आर्थिक व्यवस्था और सांस्कृतिक स्तर पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया दिनोदिन तेज़ होती जा रही है. एक बहुरंगी और विविध दुनिया को समरूप बनकर एक वैश्विक सुपर मार्केट में तब्दील होती प्रतीतं होती है ।

इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की अवधारणा भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही है और आज यह पहले से कहीं अधिक व्यापक, गहरी और विशालकाय हो चुकी है। वैच्च्िवक सूचना और संचार तंत्र पर आज पश्चमी देशों का नियंत्रण और प्रभुत्व उससे कहीं अधिक मजबूत हो चुका है जिसे लेकर कुछ दशक पहले विकासशील देशों में विरोध के प्रबल स्वर उठ रहे थे। नयी विश्व व्यवस्था ने विकासशील देशों की उन तमाम दलीलों को ठुकरा दिया जो उन्होंने विश्व में एक नयी सूचना और संचार व्यवस्था कायम करने के लिए छठे और सातवें दच्चक में पेश की थीं और जिन्हें 1980 में यूनेस्को में मैक्ब्राइड कमीच्चन की रिपोर्ट के रूप में एक संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। विकासशील देश विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में संतुलन की मांग करे रहे थे लेकिंग नयी विश्व व्यवस्था में एकतरफI प्रवाह ही अधिक तेज़ हो गया . इसी दौरान सूचना क्रांति एक ऐसी मंजिल तक पहुंच चुकी थी जिसमें दूरसंचार, सेटेलाइट और कंप्यूटर प्रौद्योगिकी के बल पर एक ऐसे तंत्र का उदय हुआ जिसमें सूचना समाचारों के प्रवाह पर किसी भी तरह का अंकुच्च लगाना संभव ही नहीं रह गया। विकासच्चील देच्च सूचना-समाचारों के लिए एकतरफा प्रवाह की च्चिकायत करते थे उसका आवेग इस नये दौर में अब पहले से कहीं अधिक तेज हो गया और इसे रोक पाना वास्तविक रूप से संभव नहीं रह गया था।


शीत युद्ध के बाद उभरी विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों सामूहिक सौदेबाजी की क्षमता क्षीण हो गयी है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन और विकासशील देशों के अन्य संगठन या तो अपना अर्थ खो बैठे या अप्रसांगिक हो गए। इसका मुख्य कारण यह था कि विकासशील देशों में इस मांग को उठाने वाले अधिकांच्च देच्चों ने आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के मॉडल का रास्ता छोड़कर नवउदारवादी भूमंडलीकरण का रास्ता अपना लिया था।

विकासशील देशों सरकारों के स्तर पर इस तरह के प्रभुत्व का कोई प्रतिरोध न होने के कारण एक सीमा तक यह प्रतिरोध धार्मिक कट्‌टरपंथ जैसे नकारात्मक रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। नयी विश्व व्यवस्था राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पश्चिम का दबदबा है और वैश्विक मीडिया को भी यही नियंत्रित करता है। मीडिया पर नियंत्रण का मतलब किसी भी व्यक्ति, देश , संस्कृति, समाज आदि की छवि पर भी नियंत्रण करना है । मीडिया ऐसे मूल्य और मानक तय करता है जिनसे सही-गलत, सभ्य- असभ्य के पैमाने निर्धारित होते हैं। इसी निर्धारण से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की सीमा शुरू होती है।

नब्बे के दशक में दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ। इस दौरान निजीकरण और नयी प्रौद्योगिकी की मदद से उत्पादकता और कुशलता में तेज इजाफा हुआ। निजी क्षेत्र का उद्योग नयी प्रौद्योगिकी को आत्मसात करने में अधिक गतिच्चील साबित हुआ और जिसकी वजह से इसकी उत्पादकता और कुशलता में भारी वृद्धि हुई और संपति के सृजन की इसकी क्षमता नये आसमान छूने लगी। इसी दौरान सार्वजनिक क्षेत्र पर टिकी अर्थव्यवस्था जड ता का च्चिकार होती चली गयी और चंद अपवादों को छोड कर सार्वजनिक प्रतिद्गठान आर्थिक रूप से टिकाऊ साबित नहीं हो सके।

उदारीकरण और निजीकरण के इस दौर में आर्थिक समृद्धि का एक बड़ा उफान आया और एक नया वर्ग पैदा हुआ जिसके पास अच्छी खासी क्रय द्राक्ति थी और यह पारंपरिक मध्यमवर्ग की तुलना में कहीं बड ा उपभोक्ता था। आज जो उपभोक्ता क्रांति देखने को मिल रही है उसका झंडाबरदार यही वर्ग है। यह उपभोक्ता क्रांति अभी जारी है और एक नये दौर की मीडिया क्रांति इसी वर्ग पर टिकी है। इस नये बाजार के उदय के बाद अन्य उपभोक्ता उत्पादों के साथ-साथ मीडिया उत्पादों की मांग में भारी वृद्धि हुई। मीडिया उत्पादों के वैश्विक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नए तरह का सूचना और संचार का प्ररिदृश्य पैदा हुआ है। समाज के नए-नए तबके मीडिया बाजार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं।

सूचना की इस क्रांति के उपरांत दुनिया में जितना संवाद आज हो रहा है वो बेमिसाल हैं लेकिन इस इस संवाद का आकार जितना बड़ा है इसकी विषयवस्तु उतनी हे सीमित होती जा रही है। लोग अधिकाधिक मनोरंजित होते जा रहे हैं और अधिकाधिक कम सूचित/जानकर होते जा रहे हैं । इसी दौरान लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र में ही भारी बुनियादी परिवर्तन आए और इसी के अनुरूप मीडिया तंत्र के साथ इसके संबंध पुनः परिभाषित हुए। विश्व भर में आर्थिक विकास से उपभोक्ताओं की नयी पीढ का का उदय हुआ। इससे मीडिया के लिए नये बाजार पैदा हुए और इस बाजार में अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए एक नयी तरह की बाजार होड पैदा हुई।

दरअसल नवउदारवादी भूमंडलीकरण की मौजूदा प्रक्रिया एक ''टोटल पैकेज'' है जिसमें राजनीति, आर्थिक और संस्कृतिक तीनों ही पक्ष शामिल हैं। मीडिया नयी जीवन शैली और नये मूल्यों का इस तरह सृजन करता है जिससे नये उत्पादों की मांग पैदा की जा सके और एक बाजार का सृजन किया जा सके। अनेक अवसरों पर मीडिया ऐसे उत्पादों की भी मांग पैदा करता है जो स्वाभाविक और वास्तविक रूप से किसी समाज की मांग नहीं होते हैं।

मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार इसी उपभोक्ता क्रांति के बल पर हो रहा है। इन रूझानों के चलते 1990 के दशक में मीडिया के व्यापारीकरण का नया दौर शुरू हुआ जिसकी गति और आकार अपने आप में बेमिसाल थी। इस दौर में मीडिया व्यापार की ओर अधिकाधिक झुकता चला गया और सार्वजनिक हित की पूर्ति करने की इसकी भूमिका ह्रास हुआ। मीडिया अब सार्वजनिक-व्यापारिक उद्यम से हटकर व्यापारिक-सार्वजनिक उद्यम बन गया जिसे व्यापारिक हित ही संचालित करतें हैं । आज मीडिया के व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया अपने चरम पर है।

सूचना क्रांति से एक ऐसे वैश्विक गाँव का उदय हुआ जो दुनिया के सम्पनों के एकीकरण से जन्मा है । सूचना समाचारों और इस तरह के मीडिया उत्पदों का प्रवाह बाधाविहीन होने के उपरांत वैश्विक मीडिया के स्वरूप में भी बडा परिवर्तन आया। पहले वैश्विक मीडिया विश्व भर में सूचना और समाचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता था लेकिन उसका काफी हद तक एक देश के भीतर इसका सीधा नियंत्रण नहीं होता था, यानी नियंत्रण का स्वरूप अप्रत्यक्ष था और ये संगठनों के माध्यम से उस देश के ही घरेलू बाजार में मीडिया उत्पाद वितरित करते थे। लेकिन आज वैश्विक मीडिया का प्रसार देश की सीमा के भीतर तक हो चुका है जहां वह प्रत्यक्ष रूप से मीडिया के बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें तमाम राजनितिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दीवारें ढह रहीं हैं जो परंपरागत रूप से एक तरह के सुरक्षा कवच का काम करतीं थीं ।

मीडिया का निगमीकरण

समकालीन मीडिया के निगमीकरण , केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। मीडिया संघटन एक तो खुद व्यापारिक निगम बन गए हैं और दूसरी और पूरी तरह विज्ञापन उद्योग पर निर्भर हैं । एक ओर तो नई प्रौद्योगिकी और इंटरनेट ने किसी भी व्यक्ति विशेष को अपनी बात पूरे अंतर्राद्गट्रीय समुदाय तक पहुंचाने का मंच प्रदान किया है, तो दूसरी ओर मुखयधारा मीडिया में केंद्रीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है। पूरे विश्व और लगभग हर देश के भीतर मीडिया का केंद्रीकरण हो रहा है। एक ओर तो मीडिया का आकार विशालकाय होता जा रहा है और दूसरी ओर इस पर स्वामित्व रखने वाले निगमों की संखया कम होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों से यह प्रक्रिया चल रही है और अनेक बड़ी मीडिया कंपनियों ने छोटी मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। इसके अलावा कई मौकों पर बड़ी - बड़ी कंपनियों के बीच विलय से भी मीडिया के केंद्रीकरण को ताकत मिली है।

आज वैश्विक संचार और सूचनातंत्र पर चंद विशालकाय बहुराष्ट्रीय मीडिया निगमों का प्रभुत्त्व है जिनमें से अधिकांच्च अमेरिका में स्थित हैं। बहुराष्ट्रीय मीडिया निगम स्वयं अपने आप में व्यापारिक संगठन तो हैं ही लेकिन इसके साथ ही ये सूचना-समाचार और मीडिया उत्पाद के लिए एक वैश्विक बाजार तैयार करने और एक खास तरह के व्यापारिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करते हैं। इन बहुराष्ट्रीय निगमों के इस व्यापारिक अभियान में स्वायत पत्रकारिता और सांस्कृतिक मूल्यों की कोई अहमियत नहीं होती। इस रुझान को आज राद्गट्रीय और अंतर्राष्टीय स्तर पर स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि वैश्विक मीडिया वैश्विक व्यापार के अधीन ही काम करता है और दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं।

पूरी वैश्विक मीडिया व्यवस्था पर इस वक्त मुश्किल से नौ-दस मीडिया निगमों का प्रभुत्त्व है और इनमें से अनेक निगमों का एक-तिहाई से भी अधिक कारोबार अपने मूल देशों से बाहर दूसरे देशों में होता है। उदाहरण के लिए रूपर्ट मर्डोक की न्यूज कॉर्पोरेच्चन का अमेरिका, कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और लैटिन अमेरिका में मीडिया के एक अच्छे-खासे हिस्से पर स्वामित्व है। जर्मनी के बर्टैल्समन्न निगम का विश्व के 53 देशों की 600 कंपनियों में हिस्सेदारी है। विच्च्व की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी एओएल टाइम वार्नर भी अमेरिका की है और विश्व की दूसरी सबसे बडी कंपनी वियाकॉम कंपनी भी अमेरिका की है जिनका विश्व के मीडिया बाजार के एक बडे हिस्से पर नियंत्रण है। सोनी निगम इलेक्ट्रॉनिक्स के उत्पादों में नाम कमा चुका था लेकिन आज एक मीडिया कंपनी के रूप में दुनिया भर में इसकी एक हजार सहयोगी कंपनियां काम कर रही हैं। इनके अलावा डिज नी वियाकॉम, एमटीवी, टेली-कम्युनिकेच्चन इंक, यूनिवर्सल (सीग्राम), माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू का भी एक बडे बाजार पर कब्जा है जो लगभग दुनिया के हर देश में फैला हुआ है। अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक जैसी हथियार बनाने वाले निगम ने भी मीडिया जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है और अमेरिका के एक प्रमुख समाचार चैनल एनबीसी पर इसका नियंत्रण है।

इन विशालकाय निगमों के बाद दूसरे स्तर के भी मीडिया संगठन हैं जिनका व्यापार दुनिया भर में बढ रहा है। इस वक्त विश्व में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से उभरते सैक्टरों में से एक है और रोज नयी-नयी कंपनियां अपना नया और अलग मीडिया उत्पाद लेकर बाजार में कूद रही हैं। अधिकांच्च बहुराष्ट्रीय मीडिया निगम संचार के क्षेत्र से जुडे कई क्षेत्रों में काम कर रहे हैं जिनमें समाचारपत्र और रेडियो और टेलीविजन चैनल के अलावा पुस्तक प्रकाशन , संगीत, मनोरंजन पार्क और अन्य तरह के मीडिया और मनोरंजन उत्पाद शामिल हैं। प्रौद्योगिक क्रांति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए अपार संभावनाओं को जन्म दिया है। आज अधिकांच्च बडे मीडिया निगम दुनिया भर में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं।

अनेक निगमों ने या तो किसी देच्च में अपनी कोई सहयोगी कंपनी खोल ली है या किसी देश कंपनी के साथ साझेदारी कर ली है। हमारे देश देश में ही अनेक बहुराष्ट्रीय मीडिया निगम के भारतीय संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। ये निगम अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए स्थानीयकरण की ओर उन्मुख हैं और स्थानीय जरूरतों और रुचियों के अनुसार अपने उत्पादों को ढाल रहे हैं। इस तरह भूमंडलीकरण स्थानीयता का रूप ग्रहण कर रहा है और बहुराद्गट्रीय निगमों की यह स्थानीयता दरअसल उपभोक्त मूल्यों और व्यापार संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं। मीडिया के इस तरह के केन्द्रीयकरण से के ऐसा बाज़ार पैदा हुआ है जिसमें विविधता ख़त्म हो रही है और हर मीडिया में एक ही तरह के समाचार (उत्पाद) छाए रहतें हैं। आज विषयवस्तु का बाज़ार मूल्य अहम् नहीं रह गया है बल्कि इसे बेचने वाला तंत्र अधिक भूमिका निभा रहा है। आज का मीडिया एक ओर तो वैश्विक व्यापार-वित्त के फैलाव के रास्तों का निर्माण कर रहा है और दूसरी और खुद भी एक व्यापार बन गया है ।

राजनीतिक, सामाजिक और संस्कृतिक जीवन का मनोरंजनीकरण

मीडिया उद्योग एक तरह के सांस्कृतिक और वैचारिक उद्योग हैं। इन उद्योगों पर नियंत्रण का अर्थ होता है किसी देश की राजनीति और संस्कृति पर नियंत्रण. दुनिया के अनेक देशों में अमेरिकी सांस्कृतिक आक्रमण को लेकर असंतोष पनप रहा है जिनमें केवल विकासशील देश ही नहीं बल्कि यूरोप के अनेक विकसित देश भी शामिल हैं. नव उदारवादी भूमंडलीकरण के झंडावरदार विश्व व्यापार संगठन में यह मांग भी उठाई गई थी की इन संस्कृति को व्यापार से अलग रखा जाए लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया और आज विचार और संस्कृति दोनों ही व्यापार के अधीन दिखाई पड़ते हैं.

व्यापरिकृत मीडिया मुनाफे से संचालित होता है. मुनाफे को अधिकतम स्तर पर पहुँचने ले लिए बाज़ार की होड़ पैदा हुयी । इसके कारण एक नरम (सॉफ्ट) मीडिया का उदय हुआ है जो कडे-कठोर विषयों का नरमी से पेश कर लोगों को रिझाना चाहता है और कुल मिलाकर इस तरह गंभीर राजनीतिक विमर्श ह्रास हो रहा है। इस बाजार होड के कारण मीडिया उन उत्पादों की ओर झुकने लगा जो व्यापक जनसमुदाय को आकृष्ट कर सकें। यह मीडिया तंत्र पर उन वैश्विक ताकतों का नियंत्रण है जो अपने व्यापारिक एजेंडा थोपने के लिए राजनीतिक, सामाजिक और संस्कृतिक जीवन के हर पक्ष का मनोरंजनीकरण कर रहे हैं। आज विज्ञानं से लेकर खेल तक हर चीज मनोरंजन है

बाजार को हथियाने की होड़ में 'इन्फोटेनमेंट' नाम के नये मीडिया उत्पाद का जन्म हुआ है जिसमें सूचना के स्थान पर मनोरंजन को प्राथमिकता मिलती है। इसके तहत सूचना की विद्गायवस्तु बौद्धिक स्तर पर इतनी हल्की और मनोरंजक बना दी जाती है कि वह एक विच्चाल जनसमुदाय को आकृष्ट कर सके। मनोरंजन से अधिक लोगों को आकृष्ट किया जा सकता है लेकिन अत्यधिक मनोरंजन से सूचना के तत्त्व का ह्रास होता है ओर इस प्रक्रिया में मीडिया लोगों को सूचना देने के बजे उन्हें लुभाकर विज्ञापनदाताओं के हवाले करता है ।अनेक अवसरों पर इस तरह के समाचार और समाचार कार्यक्रम पेच्च किये जाते है कि वे लोगों का ध्यान खींच सकें भले ही साख और विश्वनीयता के स्तर पर वे कार्यक्रम खरे न उतरते हों।

नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के उदय के उपरांत उपभोक्ता की राजनीति और उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय हुआ और इसका सीधा असर समाचारों पर पड़ा। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नये-नये उपभोक्ता उत्पाद बाजार में आए और इनको बेचने के लिए नयी-नयी मीडिया तकनीकों का इस्तेमाल किया गया जिसके परिणामस्वरूप 'सेलेब्रिटी लाइफस्टाइल' पत्रकारिता का उदय हुआ। एक नये मेट्रो बाजार का उदय हुआ और इसके अनुरूप नये-नये उपभोक्ता उत्पादों की बाढ -सी आ गयी लेकिन देर सवेर इस बाजार और इस बाजार की मांग में ठहराव आना स्वाभाविक है। इस स्थिति में बााजार और समाचार के संबंध भी प्रभावित होंगे।

इसके साथ ही 'पॉलिटिकॉटेनमेंट' की अवधारणा का भी उदय हुआ है जिसमें राजनीति और राजनीतिक जीवन पर मनोरंजन उद्योग हावी हो रहा है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के विद्गायों का चयन, इनकी व्याखया और प्रस्तुतीकरण पर मनोरंजन के तत्व हावी होते चले जा रहे हैं। कई मौकों पर बडे राजनीतिक विषयों को सतही रूप से और तमाशे के रूप में पेश किया जाता है और आलोचनात्मक होने का आभास भर पैदा कर वास्तविक आलोचना किनारे कर दी जाती है। कई अवसरों पर टेलीविजन के परदे पर प्रतिद्वंदी राजनीतिज्ञों की बहसों का इस दृद्गिट से मूल्यांकन करें तो यह तमाशा ही अधिक नज र आता है। इन बहसों में वास्तविक विषयों और विभिन्न राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य नदारद रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम बुनियादी राजनीति मदभेदों के स्थान पर तू तू-मैं मैं के मनोरंजन की ओर ही अधिक झुके होते हैं। इससे अनेक बुनियादी सवाल पैदा होते हैं और राजनीति के इस सतहीकरण और एक हद तक विकृतीकरण से लोकतंत्र के हृास का आकलन करना जरूरी हो जाता है।

व्यापारीकरण के उपरांत राजनीतिक जीवन और राजनीतिक मुद्दों के सतहीकरण और मनोरंजनीकरण का रुझान प्रबल हुआ है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के सतहीकरण की इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा हथियार सेलेब्रिटी संस्कृति का उदय है। सेलीब्रिटीज का राजनीति में प्रवेच्च हो रहा है जिससे राजनीतिज्ञ सेलेब्रिटीज बन रहे हैं। सेलेब्रिटी संस्कृति की वजह से राजनीतिक विमर्च्च के संदर्भ में एक नये टेलीविजन का उदय हुआ है। इससे वास्तविक मुद्दों को दरकिनार कर सतही मुद्दों पर जोर दिया जाता है और कई अवसरों पर तो गैर-मुद्दे भी मुद्दे बना दिए जाते हैं। गैर-मुद्दों को मुद्दा बना देने का रुझान का कुछ विचित्र आयाम ग्रहण कर रहा है।

व्यापारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति के समानांतर एक नई राजनीतिक संस्कृति का भी उदय हुआ है जिसमें पत्रकारिता और पत्रकार अपनी स्वायतता काफी हद तक खो चुकें हैं और व्यापारिक हितों के अधीन होने को वाध्य हैं । इस कारण उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने की होड में समाचारों को मनोरंजन के तत्वों का विस्तार होता जा रहा है और किसी तरह के भी पत्रकारीय प्रतिरोध का स्पेस सीमित हो गया है । मीडिया के जबरदस्त विस्तार और चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों के कारण भी समाचारों की मांग बेहद बढ गयी जिसकी वजह से ऐसी अनेक घटनाएं भी समाचार बनने लगी जो मुखयधारा की पत्रकारिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी।

शीत युद्ध के दौरान विचारधारात्मक राजनीतिक संघर्ष समाचारों के केंद्र में होते थे और लोगों की इनमे रूचि भी होती थे क्योंकि इनका परिणाम उनके जीवन और भविष्य को प्रभावित करता था । विकास की गति बढ ने से ऐसे सामाजिक तबकों का उदय हुआ जो उन तमाम मुद्दों के प्रति उदासीन होते चले गए जो इससे पहले तक ज्वलंत माने जाते थे और क्योंकि व्यापारित मीडिया का सरोकार इसी तबके से था इसलिए इसकी रुचियों तक ही मीडिया सीमित होता चला गया और वे समाचार हासिये पर जाते चले गए जिनका समाज के व्यापक तबकों से सरोकार था। इसी के समानांतर अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबके के विस्तार के कारण मीडिया के व्यापारीकरण का दौर भी शुरू हुआ। यह नया तबका ही बाजार था और इस बाजार ने एक नया सामाजिक माहौल पैदा किया जिसमें 'ज्वलंत' समाचार 'ज्वलंत' नहीं रह गये और एक तरह की अराजनीतिकरण की प्रक्रिया द्राुरू हुई। अराजनीतिकरण की यह प्रक्रिया समाचारों से शुरू हुई और फिर स्वयं समाचारों के चयन को ही प्रभावित करने लगी।

इस कारण भी समाचारों का मूल स्वभाव और चरित्र प्रभावित हुआ और व्यापारीकरण की गति तेज हुई। लेकिन व्यापारीकरण की इस प्रक्रिया के प्रभाव और परिणामों के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच एक बड़ा बुनियादी अंतर है। विकसित देशों में व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया तब द्राुरू हो गयी जब लगभग पूरा समाज ही विकास का एक स्तर हासिल कर चुका था। लेकिन विकासशील देशों में विकास की यह प्रक्रिया तभी द्राुरू कर दी गयी जब समाज का एक छोटा-सा तबका ही विकसित की श्रेणी में आ पाया था। विकासच्चील देशों में विकासशीलता के दौर में मीडिया से सहभागी होने की अपेक्षा की जाती थी जो संभव नहीं हो पायी और व्यापारीकरण के कारण विकास का एजेंडा काफी हद तक किनारे हो गया। विकासच्चील समाज पर व्यापारीकरण की इस प्रक्रिया के प्रभाव और परिणामों का सही मूल्यांकन कर पाना अभी संभव नहीं दिखता लेकिन इतना अवच्च्य कहा जा सकता है कि इसके नकारात्मक परिणाम सकारात्मक परिणामों की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और गहरे होने जो रहे हैं। अपेक्षतया बौद्धिक रूप से कुशल उपभोक्ता-नागरिक और एक विकासशील समाज के एक 'आम' नागरिक पर एक ही तरह के मीडिया उत्पाद का प्रभाव भिन्न होगा- कहीं यह मनोरंजन-रोमांच पैदा कर सकता है, तो अन्यत्र यह वैज्ञानिक सोच पर कुठाराघात कर अन्धविश्वाश की जडों को गहरा कर सकता है।

लोकतांत्रिक विमर्श बनाम नियंत्रण

राजनीति एक तरह का 'शोबिज़नस' बन गयी है और मीडिया मैं लोकतांत्रिक विमर्श की लोक परिधि की परिकल्पना की गयी थी वह हासिये पर चली गयी है। आज काफी हद तक मीडिया जीवन के केंद्र में है। आज मानव जीवन का लगभग हर पक्ष मीडिया द्वारा संचालित हो रहा है । मीडिया इतना शक्तिशाली और प्रभावशाली हो गया है कि हर तरह का विमर्श मीडिया तक ही सीमित होता प्रतीत होता है । एक तर्क ये भी है कि लोकतंत्र का स्थान मीडियातंत्र ले चुका है।
एक ओर तो हर तरह का विमर्श अधिकाधिक मीडिया के माध्यम से हो रहा है, तो दूसरी ओर, मीडिया का व्यापारीकरण हो रहा है जिसकी वजह से व्यापक मीडिया विमर्श की बजाय मुनाफा कमाने का उद्यम बन चुका है।

मौजूदा दौर में संवाद और विमर्च्च के अनेक माध्यम लगभग विलुप्त और निद्गप्रभावी से हो गए हैं। लोकपरिधि की परिकल्पना का सीधा संबंध जनमत और दूसरे माध्यम से लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी को लेकर था लेकिन आज एक ऐसा परिदृच्च्य पैदा हो रहा है कि किसी विद्गाय के पक्ष में भारी 'जनमत' होने के बावजूद भी पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस मुद्दे और इस जनमत को जनसंचार माध्यमों में अभिव्यक्ति मिले। सहमति के निर्माण की परिकल्पना भी कोई नयी नहीं रही है। बहुत पहले भी कहा गया था कि लोकतंत्र में जनसंचार माध्यमों के जरिये लोगों के बीच स्वाभाविक रूप से सहमति न होने पर भी एक ऐसे विमर्च्च का सृजन किया जा सकता है और इस विमर्च्च को ऐसे रास्ते पर ले जाया जा सकता है कि आखिर में किसी भी विद्गाय पर एक सहमति का निर्माण किया जा सके और इस तरह की निर्मित सहमति ही आधुनिक लोकतंत्र का आधार बन गई है। इसका आच्चय यह है कि यह सहमति स्वाभाविक रूप से जनता के बीच से उभर कर नहीं आई बल्कि ऊपर से एक विशिष्ट,
अभिजात शासक वर्ग ने इसे तैयार किया या यह भी कह सकते हैं कि इसे थोपा।

सहमति के निर्माण की इस परिकल्पना में भी हाल ही में भारी परिवर्तन आए हैं। अब आधुनिक जनसंचार माध्यम और इनके माध्यम से प्रचारित की गयी जानकारियां इस कदर विशेषकृत हो चुकी है कि इन्हें किसी खास मकसद के लिए खास तरह से ढाल कर लोगों को एक खास रास्ता चुनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

मीडिया परम्परागत रूप से निच्च्चय ही लोकतांत्रिक विमर्च्च के माध्यम रहे हैं; इन्होंने उनके लोकहित और सामाजिक मुद्दों को उठाकर बड़े परिवर्तनों का मार्ग प्रच्चस्त किया; सच्चक्तीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई सूचना संसाधन के लाभकारी उपयोग के मार्ग प्रच्चस्त हुए; सूचना और ज्ञान के संसार का भारी विस्तार हुआ । सूचना के स्रोतों में भारी वृद्धि हुई और लोगों के सामने हमने अनेक विकल्प प्रस्तुत किए। लेकिन सत्तर-अस्सी के दच्चक में मीडिया शक्ति और प्रभाव में भारी इजाफा हुआ और इसके साथ ही इनका स्वामित्व अधिकाधिक निगमीकृत होता चला गया। साथ ही वैचारिक संघर्द्गा की राजनीति के कमजोर पड ने से भी मीडिया पर जन-दबाव में कमी आई और व्यापारीकरण के रास्ते पर उन्मुख होने का इनका रास्ता आसान हो गया। इस दौरान मीडिया प्रबंधक की कला में निरंतर विकास हुआ और यह परिष्कृत होती चली गई।इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण इराक पर आक्रमण करने से पहले और आक्रमण करने के बाद भी अमेरिकी प्रशासन का मीडिया प्रबंधन और सूचना नियंत्रण रहा। स्वयं अमेरिका के मीडिया विच्चेद्गाज्ञों ने यह साबित कर दिया है कि इराक पर आक्रमण को लेकर अमेरिकी मीडिया के इस दौरे में सरकार द्वारा दी गई सूचनाओं पर ही निर्भर रहे और इस कारण तीन वर्षों तक इराक युद्ध को लेकर अमेरिकी नागरिकों को अंधेरे में रखा गया और युद्ध के पक्ष में जनमत निर्मित किया गया। इराक और अफगान युद्ध के मीडिया कवरेजे पर निगाह डालें तो स्पष्ट हो जाता है की किस तरह युद्ध को भी मनोरंजन के रूप में पेश किया गया और युद्ध की बर्बरतों
पर पर्दा डाला गया ।अफगानिस्तान एक ऐसा देश है जो 1989 से युद्ध की आग में जल रहा है लेकिन इस देश के लोगों की हालत पर मीडिया में कितना देखने, सुनाने या पढने को मिलता है केवल इतना ही बताया जाता है किस किस हमले में कितने आतंकवादी मारे गए।

आज इस तरह प्रबंधन और जनसंपर्क की तकनीकों का अधिकाधिक इस्तेमाल किया जा रहा है। सूचना विशेषज्ञों का वर्ग जनसंचार माध्यमों से ऐसी छवियों का निर्माण करता है जिससे जनमत को किसी खास दिच्चा में मोड़ा जा सकता है। इस तरह के सूचना प्रबंधन और जनसंपर्क तकनीकों के उदय के उपरांत राजनीति और राजनीतिक जीवन का इस तरह का मीडियाकरण हो गया है और इससे जनमत को प्रभावित करने में मीडिया की अहम भूमिका हो गई है। इस तरह के मीडियाकरण के कारण भी जनसंचार माध्यमों में जनमत के प्रतिबिंबित होने से कहीं अधिक भूमिका जनमत को प्रभावित करने की हो गई है।

भले ही यह न कहा जा सके कि मीडिया की यह भूमिका पूरी तरह विकृत हो चुकी है लेकिन इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि लोकतंत्र का आधार एक सूचित और जानकार नागरिक ही हो सकता है। लेकिन व्यापारीकरण की प्रक्रिया और नई उपभोक्ता संस्कृति के उदय के बाद एक नागरिक का उपभोक्ता वाला पक्ष ही हावी होता चला गया है। एक नागरिक सही तरह से सूचित और जानकारी होता है वहीं वह कह सकते है कि एक उपभोक्ता सही ढ़ग से सूचित नहीं होता और अनेक अवसरों पर इसकी सोच को कुछ खास मकसद की पूर्ति के लिए ढाला जा सकता है। मीडिया के नागरिक से विमुख होकर उपभोक्ता पर केंद्रित होने से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में अनेक ऐसे रुझान पैदा हो रहे हैं जिन्हें वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।

मीडिया की इस बदली भूमिका से सत्तासीन कुलीन वर्ग और नागरिकों के व्यापार समुदाय के बीच लोकतांत्रिक विमर्च्च का स्वरूप बदल ही नहीं गया है बल्कि इसमें निहित विमर्श के तत्वों में जबर्दस्त ह्नास हुआ है और नागरिक समुदाय के मत को तोड़ने-मरोड ने और विकृत करने के लिए सूचना प्रबंधन और जनसंपर्क की परिद्गकृत तकनीकें अस्तित्व में आई हैं। इससे नागरिक समुदाय की तुलना में सत्तासीन वर्ग की क्षमता बढ ी। मीडिया ने नियंत्रण और शासन के नए हथियार पैदा किए। इस पूरी प्रक्रिया में राजनीतिज्ञो, सूचना विच्चेद्गाज्ञों और पत्रकारों की धुरी के पैदा होने से जनमत को किसी खास पक्ष में मोड ने की क्षमता में जबरदस्त वृद्धि हुई।

समाचारीय घटनाओं के बदलते मानदंड

समाचारों के विद्गाय चयन, समाचार या घटनाओं को परखने की पंरपरागत सोच और दृद्गिटकोण के पैमाने और मानदंड बेमानी हो गये। इसके परिणामस्वरूप आज का उपभोक्ता-नागरिक इस बात को नहीं समझ पाता है कि देश -दुनिया की महत्त्वपूर्ण घटनाएं कौन-सी हैं? परंपरागत रूप से मीडिया एक ऐसा बौद्धिक माध्यम होता था जो लोगों को यह भी बताता था कि कौन सी घटनाएं उनके जीवन से सरोकार रखती हैं और उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। इस तरह मीडिया एक तरह का मध्यस्थ भी होता है जो किसी घटना को एक संदर्भ में पेच्च करता है, इसे अर्थ देता है और एक परिप्रेक्ष्य में इसे प्रस्तुत करता है। आज का मीडिया मध्यस्थ की इस भूमिका को बहुत प्रभावच्चाली ढंग से निभाता प्रतीत नहीं होता। इस दृद्गिट से समाचारों को नापने-परखने के कुछ सर्वमान्य मानक होते थे। आज ये सर्वमान्य मानक काफी हद तक विलुप्त से हो गये हैं और एक उपभोक्ता-नागरिक समाचारों के समुद्र में गोते खाकर कभी प्रफुल्लित होता है, कभी निराच्च होता है और कभी इतना भ्रमित होता है कि समझ ही नहीं पाता कि आखिर हो क्या रहा है? रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, टेलीफोन, इंटरनेट, मोबाइल सभी का उपयोग करने वाले उपभोक्ताओं की संखया में निरंतर और तेजी से वृद्धि हो रही है। लेकिन उनके माध्यम से प्रसारित होने वाले सूचना-संदेशों अंतरवस्तु कुल मिलकर सतही है और इसका मूल चरित्र "चैट" तक तक ही सिमित होता प्रतीत होता है । आज में मीडिया के हर विमर्श और उत्पाद में "चैट" संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है ।

मीडिया से ही लोगों को किसी विषय के बारे में अधिकांश जानकारियां मिलती हैं जिसमें किसी विषय के बारे में सूचना और विचार और इससे सृजित होने वाला ज्ञान द्राामिल है। आधुनिक समाज के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि छवि का संचार है। किसी भी ऐसे विषय के बारे में हम इसके बारे में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही इसकी एक छवि विकसित करते हैं और इस विषय पर यही छवि हमारे लिए यथार्थ होती है। वास्तविक रूप से दुनिया का यह एक छोटा-सा ही हिस्सा होता है जो स्वयं हमारे अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के दायरे में होता है और इसके बारे में कोई जानकारी के लिए हम किसी बाहरी सूचना माध्यम पर निर्भर न होकर खुद ही इसके बारे में जानकारी हासिल करते हैं। लेकिन हमारे प्रत्यक्ष दायरे की इस छोटी सी दुनिया के बाहर का जो व्यापक संसार है उसके बारे में हमें जो बताया जाता है उसी के अनुसार हम इसके यथार्थ का सृजन करते हैं।

किसी भी विषय पर सूचनाएं प्राप्त करने के अनेक साधन हो सकते हैं। संचार के अनेक तरीकें से अनेक विषय के बारे में हमें सूचनाएं मिलती हैं या हम सूचनाएं इकट्‌ठा करते हैं। वर्त्तमान में लोग किसी भी विषय पर जानकारियां हासिल करने के लिए लोग अधिकाधिक मीडिया पर निर्भर होते जा रहे हैं। दुनिया में सूचना क्रांति के दौरान सूचनाओं का विशाल महासागर पैदा हो गया है लेकिन इसके साथ ही हमारे पड़ोस में होने वाली घटनाओं के बारे में भी जानकारी हमें मीडिया से ही मिलती है और इसी के आधार पर हम कोई मत और दृद्गिटकोण विकसित करते हैं। इस संदर्भ में यह भी समझना जरूरी हो जाता है कि मीडिया किन घटनाओं, विचारों और समस्याओं को समाचार योग्य समझते हैं और फिर इनके किस पक्ष और पहलू को कितना महत्त्वपूर्ण आंकते हैं। घटना के किसी एक खास पक्ष को उजागर कर घटना के बारे में पहला प्रभाव पैदा कर दिया जाता है।

इस दृद्गिट से मीडिया एक मध्यस्थ की भूमिका अदा करता हैं और हमें बताता हैं कि देच्च और दुनिया की महत्त्वपूर्ण घटनाएं कौन-सी हैं और फिर, इन घटनाओं के बारे में जानकारियों का चयन कर इन्हें कुछ अर्थ प्रदान करते हैं, एक परिप्रेक्ष्य में इनका प्रस्तुतीकरण करते हैं। चयन और प्रस्तुतीकरण की इस प्रक्रिया से ही मीडिया हमें बताते हैं कि कौन से विषय महत्त्वपूर्ण हैं और इन विषय बारे में हमें किस तरह सोचना चाहिए और इस तरह इन विद्गायों पर एक जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मीडिया हमें भले ही यह न बताते हों कि हम क्या सोचें लेकिन काफी हद तक यह बताने में सफल होते हैं कि वे विषय कौन-से हैं जिनके बारे में हमें सोचना चाहिए। इसके समानातंर ढेर सारे ऐसे विषय और घटनाएं होती हैं जिन्हें मीडिया में कोई उल्लेख नहीं होता।

सूचना विस्फोट के उपरांत उभरे मीडिया से इस जन के विचार की अपेक्षाएं पूरी होने के बजाय इससे यह कुछ बेडोल और बेमेल हो गई है। पश्चिमी बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने तो यहां तक कह दिया है कि विकसित देशों में जिनके बारे में यह पाया गया है कि वे सूचना समाज में परिवर्तित हो चुके हैं, वहां लोग सूचित कम हैं और गलत सूचनाओं के शिकार अधिक हैं। अमेरिका में एक सर्वेक्षण में तो यह निद्गकर्द्गा निकला गया था कि जो लोग टेलीविज न अधिक देखते हैं, इराक युद्ध के बारे में उनकी समझ उन लोगों से कम हैं जो टेलीविजन अधिक नहीं देखते हैं।

व्यापारीकृत मीडिया के पब्लिक एजेंडा से हटने से इसके द्वारा दी जाने वाली जानकारियों की साख और विच्च्वसनीयता को लेकर भी अनेक सवाल उठ रहे हैं। साख और विश्वनीयता के इस संकट को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि तात्कालिक रूप से यह अल्पावधि के लिए जनमत को प्रभावित करने की व्यापारीकृत मीडिया की जो क्षमता दिखाई पडती है उसका दीर्घकाल में टिकाऊ रहना संभव नहीं है। किसी खास विषय पर मीडिया जनमत को निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकते हैं लेकिन साख और विच्च्वसनीयता पर उमड रहे संकट के बादलों को देखते हुए दीर्घकाल में मीडिया की भूमिका पर पर नए सवाल पैदा होतें हैं । निगमीकृत मुख्यधारा मीडिया के इस साख के संकट से वैकल्पिक मीडिया के लिए स्पेस पैदा हो सकता है ।

वैकल्पिक मीडिया

मीडिया उत्पादों के वैच्च्िवक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नये तरह का सूचना और संचार का परिदृश्य पैदा हुआ है। समकालीन परिदृश्य में मीडिया उत्पादों और इनके वितरण के माध्यमों में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। प्रिंट, रेडियो, टेलीविजन और मल्टीमीडिया इंटरनेट बहुत सारे मीडिया उत्पाद और व्यापक विकल्प पेश कर रहे हैं। दूरसंचार, सेटेलाइट और कंप्यूटर से आज इंटरनेट के रूप में एक ऐसा महासागर पैदा हो गया है जहां मीडिया की हर नदी, हर छोटी-मोटी धाराएं आकर मिलती हैं। इंटरनेट के माध्यम से आज किसी भी क्षण दुनिया के किसी भी कोने में संपर्क साधा जा सकता है। इंटरनेट पर सभी समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन चैनल उपलब्ध हैं। आज हर बड़े से बडे और छोटे से छोटे संगठनों की अपनी वेबसाइट हैं जिन पर इनके बारे में अनेक तरह की जानकारियां हासिल की जा सकती हैं।

इंटरनेट पर नागरिक पत्रकार ने भी अपनी प्रभावच्चाली उपस्थिति दर्ज की है। इंटरनेट पर ब्लॉगों के माध्यम से अनेक तरह की आलोचनात्मक बहसें होती हैं, उन तमाम तरह के विचारों को अभिव्यक्ति मिलती है जिनकी मुखयधारा का कॉरपोरेट मीडिया अनदेखी ही नहीं उपेक्षा भी करता है क्योंकि इनमें कॉरपोरेट व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करने की भी क्षमता होती है। भले ही ब्लॉग एक सीमित तबके तक ही सीमित हो लेकिन फिर भी ये समाज का एक प्रभावच्चाली तबका है जो किसी भी समाज और राद्गट्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ब्लॉगिंग ने अत्यधिक व्यापारीकृत मीडिया बाजार में अपनी प्रभावच्चाली उपस्थिति दर्ज करायी है। विकसित देच्चों में लगभग एक-चौथाई आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल करती है इसलिए ब्लॉग अभिव्यक्ति के एक प्रभावच्चाली माध्यम बन चुके हैं। विकासच्चील देच्चों में भी ब्लॉग लोकतांत्रिक विमर्च्च के मानचित्र पर अपनी प्रभावच्चाली उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। ब्लॉग निच्च्चय ही आज के सूचना-शोरगुल वाले मीडिया बाजार की मंडी में एक वैकल्पिक स्वर को अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस नये वैकल्पिक मीडिया में कुछ निहित कमजोरियां भी हैं।

मीडिया बाजार में उपस्थित शक्तिशाली तबके ब्लॉग की दुनिया को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। बड़े कारपोरेट संगठन और सरकारी एजेंसियां अनेक ब्लॉग खोलकर या पहले से ही सक्रिय ब्लॉगों में प्रवेच्च कर इस लोकतांत्रिक विमर्च्च को प्रभावित करने की अपार क्षमता रखते हैं। ऐसे में शक्तिशाली संगठनों का ब्लॉग संसार में दखल और उसके परिणामों का आकलन करना भी जरूरी हो जाता है। मीडिया के केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण को समझने के लिए द्राक्तिच्चाली संगठनों की इस क्षमता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ब्लॉग के गुरिल्ला ने व्यापारीकृत मीडिया के बाजार में प्रवेच्च कर हलचल तो पैदा कर दी है लेकिन अभी ये देखा जाना बाकी है कि यह इस मंडी में अपने लिए कितने स्थान का सृजन कर पाता है और किस हद तक कॉरपोरेट और सरकारी संगठनों के इसे विस्थापित करने के प्रयासों को झेल पाता है।

इस दृद्गिट से सबसे अधिक आच्चावाद इस बात से पनपता है कि मुखयधारा कॉरपोरेट मीडिया के समाचारों और मनोरंजन की अवधारणाओं में जो रुझान पैदा हो रहे हैं उससे इसकी साख और विच्च्वसनीयता में जबरदस्त गिरावट आ रही है। इस रुझान के कारण अब लोग इस तरह के समाचारों से ऊबने लगे हैं, निराच्च होने लगे हैं। मुखयधारा कॉरपोरेट मीडिया की साख में इस गंभीर संकट से ब्लॉग संसार के लिए अपने स्थान से विस्तार की नयी संभावनाएं पैदा हो गयी हैं।

निष्कर्ष

प्रोद्योगिकीय क्रांति के उपरांत एक ऐसे सूचना समाज की कल्पना की गयी थी जिसमें सूचना एक एक ऐसा बुनियादी संसाधन होगा जो मानव सभ्यता के सकारात्मक विकास का मार्ग प्रशस्त्र करेगा। दुनिया भर के लोगों का सूचना संसाधन के बल पर सशक्तिकरण होगा और वे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन में अधिक सक्रिय भागीदार बन सकेंगे। निश्चय ही एक स्तर पर इस क्रांति ने विमर्श के नए माध्यम सृजित किये हैं और आर्थिक पटल पर उत्पादकता और कार्य कुशलता बढ़ने में अहम् भूमिका अदा की है । लेकिन वैश्विक स्थर पर इस क्रांति ने नियंत्रण के अत्यंत परिष्कृत और प्रभावशाली हथियार भी सृजित किये हैं जिनके बल पर प्रोद्योगिकी, वित्त और सूचना का एक ऐसा गठजोड़ जिसने इक ऐसे एक नए सत्तातंत्र को जन्म दिया है जिसकी ताकत बेमिसाल है और जिसका नियंत्रण चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है। यह सूचना सत्तातंत्र आज दुनिया में नव उदारवादी भूमंडलीकरण का झंडावरदार है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों और इस सूचना सत्तातंत्र का आज दुनिया पर प्रभुत्व कायम हो गया है और नए वैश्विक बाज़ार पर इनका नियंत्रण इतना मज़बूत है की अगर कोई देश इनके अनुकूल नीतियों पर नहीं चलता तो यह सत्तातंत्र उसकी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को तहस नहस करने की क्षमता रखता है। पिछले कुछ वर्षों के वित्तीय संकटों से साफ़ ज़ाहिर है की इस सत्तातंत्र की ताकत कितनी बेमिसाल है।

नवउदारवादी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने दुनिया के अनेक देशों में सम्पति के सृजन के नए मार्ग प्रशस्त किये और पिछले बीस वर्षों में अनेक देशों में एक ऐसे मध्यम वर्ग का उदय और विस्तार हुआ और जिसकी क्रयशक्ति इतनी तेज़ी से बढ़ी कि इसने एक बहुत बड़े बाज़ार को जन्म दिया, एक नए उपभोक्ता को पैदा किया, नए उपभोक्ता मूल्य सृजित किये जिसने नव उदारवादी विचारधारा को एक बेहद उपजाऊ ज़मीन मुहैया की। आज का वैश्विक बाज़ार दुनिया भर के इस अतिरिक्त क्रयशक्ति वाले मध्यम वर्गीय उपभोक्ता पर टिका है।

इतिहास के मौजूदा दौर में मानव जीवन पर सूचना सत्ता तंत्र का नियंत्रण बेमिसाल है और कभी कभी लगता है इसे भेद पाना क्या संभव हो पायेगा ? लेकिन दुनिया का इतिहास और ख़ास तौर से मज़बूत सोवियत समाजवाद का अनुभव यही बताता है की नियंत्रण जितना अधिक मज़बूत होता है इसके ढहने का आवेक भी उतना ही तेज होगा। नयी सूचना क्रांति में अनेक ऐसे माध्यम सृजित किये हैं जो असहमति और असंतोष की अभिव्यक्ति के मंच के रूप में विकसित हो रहे हैं। भले ही आज ब्लॉग की दुनिया की ताकत सूचना सत्तातंत्र के सामने बौनी नज़र आती है लेकिन मुक्त अर्थ व्यवस्था पर समय-समय पर आने वाल आर्थिक संकट इस ओर भी इशारा करते हैं कि बाज़ार की ताकत उतनी नहीं हैं जितना नवउदारवाद इसका ढोल पीटता है। हाल ही के आर्थिक संकट इस और इशारा करतें हैं की बाज़ार और प्रोद्योगिकी की ताकत बेतहाशा होते हुए भी किन्ही ख़ास परिस्थितियों में खोखली साबित हो सकती है। 2009 के आर्थिक संकट के दौरान दुनिया की सबसे बड़ी वित्त कंपनी लेहमान ब्रदर्स के दीवालिया होने पर यह कहा गया था कि जिस तरह बर्लिन की दीवार का ढहना सोवियत समाजवाद का पतन का प्रतीक था, उसी तरह लेहमान ब्रदर्स का दीवालिया होना पूँजीवाद के पतन का प्रतीक है। इस पृष्टभूमि में, बहुराष्ट्रीय सूचना सत्तातंत्र और इसकी प्रभुत्वकारी नवउदारवादी विचारधारा और छोटे से ब्लॉगतंत्र के असंतोष और असहमति के स्वरों बीच के भावी सत्ता समीकरण का मूल्याकन करना भी आवश्यक हो जाता है।

अपने आप से डरा एक साम्राज्य

शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद के दशक में विजय के उफान में सरोवर अमेरिका ने एक ऐसी विश्व व्यवस्था का सपना बुना जिसमें अमेरिका के प्रभुत्व के लिए कभी कोई चुनौती न उभर पाए । इस दौरान अनके बहसें चलीं । एक तर्क था की शीत युद्ध में पश्चिम की विजय का अर्थ हैं कि पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थ व्यवस्था का मानव सभ्यता के विकास का अंतिम पड़ाव है इस इसका अब कोई विकल्प शेष नहीं रहा गया है । एक नयी अमेरिकी सदी का सपना बुना गया और ये तर्क दिया गया की अब अमेरिका को अपनी बेमिसाल सैनिक ताकत का इस्तेमाल दुनिया के "सभ्य और लोकत्रांत्रिक" बनाने के लिए करना चाहिए । 9 /11 हमलों के उपरांत अमेरिका जे अपना प्रभुत्व पुख्ता करने के लिए पहले अफगानिस्तान और फिर इराक के खिलाफ प्रत्यक्ष सैनिक अभियान छेड़े सुरक्षा परिषद् को दरकिनार किया और तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने ऐलान किया की अमेरिका कहीं भी किसी खतरे के संभावना पैदा होने पर भी इसे सैनिक ताकत से कुचल देगा । 9 /11 के बाद पूरी दुनिया जो अमेरिका के साथ खडी थी, बुश के इस एलान से सहम सी गयी ।


लेकिन दुनिया में लोकत्रंत्र के निर्यात का यह प्रोजेक्ट और "लोकत्रांत्रिक साम्राज्य" कायम करने का अभियान अपने शुरूआती दौर में ही चरमरा गया । पहले अफगानिस्तान और फिर इराक में लोकत्रंत्र तो दूर न्यूनतम स्थायित्व कायम करना भी संभव नहीं दीखता और अमरीकी सेना को हटाना ही कठिन हो गया है और पूरा प्रोजक्ट एक साम्राजवादी कब्जे जैसा ही अधिक दिखता है । भले हे सैनिकों के कटौती के बातें के जा रहीं हैं पर यह निश्चित जान पड़ता है के इन दोनों देशों पर अमेरिका नियंत्रण नहीं छोड़ेगा और लम्बे समय तक अमेरिकी सैनिक यहाँ बने रहेंगे ।

शीत युद्ध के बाद के अमेरिका और आज के अमेरिका में भारी अंतर दिखाई पड़ता है । चंद दिनों पहले राष्ट्रपति ओबामा के "स्टेट ऑफ़ यूनियन" अभिभाषण का मूल्याकन अगर 9 /11 बाद के तमाम अभिभाषणओं के संदर्भ में किया जाये तो ये अंतर स्पष्ट हो जाता है । 2002 में बुश युद्ध की दहाड़ लगा रहे थे वहीँ आज ओबामा कह रहे हैं की अमेरिका "गूगल और फेसबुक का राष्ट्र " है । पिछले वर्ष अपने "स्टेट ऑफ़ यूनियन" अभिभाषण में ओबामा ने कहा था की "दुनिया में अमेरिका का दूसरा स्थान हो- ये हमें स्वीकार्य नहीं है " और आज जब वे ये कहते हैं के अमेरिका को चीन, यूरोप और अन्य आर्थिक प्रतिद्वंदीयों से आगे बनाये रखने के लिए अनुसन्धान , प्रोद्योगिकी और शिक्षा पर ध्यान देना होगा । अमेरिका 2002 के 'हार्ड' से 2011 आते आते तक इतना 'सोफ्ट' क्यों और कैसे हो गया ? ओबामा 'परिवर्तन' और 'आशा' के नारों पर चुनाव जीते लेकिन आज अमेरिका में हुए अनेक जनमत संग्रहों से पता चलता हैं की भविष्य को लेकर अमेरिकीयों का विश्वास डगमगा रहा है ।

आम अमेरिकी और भी अधिक निराश है । आशा और परिवर्तन के ओबामा के नारे 2009 की मंदी और इसके बाद से ही उठ रहे आर्थिक संकटों के दलदल में समां गए हैं । अमेरिकी सत्ता और समाज के विभिन्न तबकों के बीच के अंतर्विरोध तेज़ हो रहे हैं । अमेरिका के बहुराष्ट्रीय सत्ता प्रतिष्ठान, निर्वाचित सरकार और आम अमेरिकी के हितों में हमेशा से ही टकराव रहा है लेकिन आज यह टकराव एक ऐसे मुकाम पर जाता नज़र आता है जहाँ से परंपरागत सत्ता समीकरण को बदले बिना तालमेल बिठाये मुश्किल दिखाई पड़ता है । अमेरिकी समाज और व्यवस्था के मौजूदा संकट से उभरने के लिए अमेरिकी सरकार को बहुराष्ट्रीय सत्ता प्रतिष्टान और आम अमेरिकी के हितों के बीच तालमेल बिठाये रखना कठिन होता जा रहा है ।

ओबामा का अभिभाषण अमेरिकी व्यवस्था और समाज के इन अंतर्विरोधों को ही अधिक अभिव्यक्त करतें हैं। दुनिया भर में फैला अमेरिकी साम्राज्य आज एक बार फिर अनुसन्धान , प्रौद्योगिकी और शिक्षा के अपनी ताकत के पुराना धरातल पर लौट रही है। इसी धरातल से अमेरिकी ताकत और अमेरिकी साम्राज्य का उदय हुआ था। आज का अमेरिका क्यों दुनिया के हर कोनें के अपने सैनिक अड्डों, सागर- महासागर में तैनात अपने जंगी बेड़ों और विनाशकारी नाभिकीय हथियारों से लैश अपनी मिशाइलओं की ताकत का अहंकार त्याग कर अपने आप को गूगल और फेसबुक की धरती बता कर अपनी ताकत का एहसास करा रहा है ।


निश्चय ही आज भी अमेरिका के ताकत बेमिसाल है । कोई भी अन्य ताकत अपने बूते के बजाय अमेरिकी ताकत मैं ह्रास के कारण ही इसके समकक्ष खड़ी हो सकती है । ऐसे में अमेरिका की वर्चस्व को चुनौती बाहर से नहीं अपने अन्दर से ही है । इतनी विशाल आर्थिक ताकत के बावजूद आम अमेरिकी के कष्ट बढ़ते हे जा रहे हैं भले ही आज दुनिया कितनी हे क्यों न बदल रही हो पर अमेरिकी ताकत को बाहर से कम और भीतर से अधिक खतरा नज़र आता है । अमेरिकी प्रशासन आम अमेरिकी के समस्याओं को संबोधित करने में विफल हो रहा है अमेरिका और अमेरिके व्यवस्था दोनों हे आज एक नहीं अनेक संकटों से घिरें हैं ये संकट सतही नहीं बुनियादी हैं और इन पर पार पाने के लिए बुनियाद पर चोट करनी होगी और ये साम्राज्य इतना विशाल है और इसका सत्ता समीकरण इतने जटिल हैं कि ऐसा करना ओबामा या किसी भी अन्य राष्ट्रपति के लिए आसन नहीं है ।


मौजूदा आर्थिक संकट कहीं से भी ठहरने का नाम नहीं ले रहा है। अमेरिकी आर्थिक ताकत दुनियां में एक मुक्त वैश्विक बाज़ार पर टिकी है लेकिन दुनिया भर में और ख़ास तौर से यूरोप में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय हो रहा है और अनेक देश भूमंडलीकरण के मौजूदा प्रारूप से हटकर संरक्षणवाद का रास्ता बना रहे हैं जिससे मुक्त वैश्विक व्यवस्था पर खतरे के बदल मंडरा रहें हैं और इस तरह की स्थिति अमेरिका के लिए सबसे अधिक कठिन होगी । आज दुनिया का आर्थिक मानचित्र बदल रहा है और जाहिर है हर बदलाव के साथ तालमेल बिठाने उसे ही सबसे अधिक कशमकश का सामना करना होगा जिसके पास अपार शक्ति केन्द्रित है । नयी दुनिया के साथ तालमेल बिठाने के इसी एतिहासिक द्वन्द में ही आज का अमेरिका फंसा है ।

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