Tuesday 14 September 2010

एक व्यवस्था का पतन और विकल्प का अभाव

सुभाष धूलिया


मंदी के बाद अमेरिका में जब लेहमान ब्रदर्स जैसी कंपनी दिवालिया हुई तो यह कहा गया कि यह पूंजीवाद के पतन का उसी तरह प्रतीक है जैसा 1989 में बर्लिन की दीवार का ढहना सोवियत समाजवाद के पतन का प्रतीक था। 2008 की इस मंदी से पूरे विश्व में आर्थिक भूचाल आ गया था । लेकिन अमेरिकी प्रशासन वित्तीय सेक्टर को अरबों डॉलर का राहत पैकेज इस आर्थिक भूचाल को सीमित करने में सफल रहा। अब हाल ही में जब यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश ग्रीस की आर्थिक व्यवस्था ढहने के कगार पर थी तो यूरोपीय सूनियन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एक बार फिर अरबों डॉलर का पैकेज देकर ग्रीस को ढहने से बचा लिया। अगर इस बार ग्रीस से उठने वाली मंदी के बादल अगर पूरे यूरोप पर छाते तो एक बार फिर विश्व की अर्थव्यवस्था उसी हालत में पहुंच जाती जिसमें वह 2008 में जा पहुंची थी।

लेकिन यह संकट अभी पूरी तरह टला नहीं है। यह माना जा रहा है कि सरकारें वित्तीय घाटे को कम करने में विफल हो रही हैं और इसी कारण आर्थिक संकट पैदा हो रहे हैं। इस तरह की आर्थिक व्यवस्था में वित्तीय घाटे को कम करने का एक ही उपाय बचता है कि सरकार अपने खर्चों में कटौती करे और इसका सीधा मतलब यही है कि विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों के व्यय में कटौती की जाये।

ग्रीस में आर्थिक संकट आने के बाद लोग सड़कों पर उतर आये थे और ऐसे में राजनीतिक टकराव भी पनप रहा था।। इस परिस्थिति में राहत पैकेज में आर्थिक संकट का भले ही तात्कालिक रूप से हल पा लिया हो लेकिन रोजगार और लोगों की आय पर इसकी जो मार पड़ेगी उसके परिणाम दूरगामी होंगे। ग्रीस को दिये गये आर्थिक पैकेज में भागीदार बनने के लिये तो ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देश भी हिचकिचा रहे क्योंकि वो खुद इस तरह के आर्थिक संकट की चपेट में हैं। इनकी हिचकिचाहट इस हद तक थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को हस्तक्षेप करना पड़ा और तब जाकर राहत पैकेज तैयार हो सका।

लेकिन यह बात अब यहीं तक सीमित नहीं है कि ग्रीस पर आर्थिक संकट आया और एक राहत पैकेज से इस पर काबू पा लिया गया। आज यूरोप के कई देश जैसे स्पेन और पुर्तगाल भी ग्रीस जैसी स्थिति में फंसे हुए हैं। यूरोपीय कमीशन से बुल्गारिया, साइप्रस डेनमार्क और फिनलैंड को भी सचेत किया है कि उनका बजट घाटा सीमा पार कर रहा है और वो अपने सार्वजनिक व्ययों में कटौती करें। बजट घाटे की समस्या इन्ही छोटे देशों तक सीमित नहीं है बल्कि यूरोप के ब्रिटेन और जर्मनी जैसी आर्थिक महाशक्ति भी इस संकट से जूझ रही हैं।

1930 के दशक की महामंदी के बाद परंपरागत उदार अर्थव्यवस्था का पतन हुआ था और आर्थिक जीवन को केवल बाजार के भरोसे छोड़ने के बजाय सरकार के हस्तक्षेप को स्वीकर किया गया था। लेकिन 70 का दशक आते आते यह अर्थव्यवस्था भी डगमगाने लगी। सामाजिक वर्गों के बीच टकराव हुआ और इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन में मारग्रेट थैचर और अमेरिका में रीगन सत्तीसीन हुए जिन्होंने फिर से उदार अर्थव्यवस्था को बहाल किया । इसी दौर में सोवियत समाजवाद के पतन के समांतर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से पूरे विश्व में उदार लोकतंत्र की हवायें बहने लगी। लेकिन 90 का दशक आते आते इस अनियंत्रित बाजार पर संकट आते चले गये और जिसके परिणामस्वरूप 2008 का महासंकट आया। इस संकट से बचने के लिये अमेरिकी प्रशासन को नव उदारवाद का परित्याग कर आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके साथ ही दुनियाभर में यह स्वीकार किया गया कि मुक्त अर्थव्यस्था की मुक्तता में सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है ताकि बार बार आनेवाले इन संकटों पर काबू पाया जा सके।

निश्चय ही इस तरह की परिस्थिति पैदा होना उस नव उदारवाद का अंत है जिसकी शुरुआत सत्तर के दशक में हुई थी लेकिन इससे पहले के तमाम आर्थिक संकटो और पिछले दो दशकों में आने वाले संकटों में एक बुनियादी अंतर है। पहले ये संकट सामाजिक टकरावों का परिणाम होते थे और इनसे राजनीतिक सत्ता समीकरणों में परिवर्तन आता था । 70 के दशक में मुक्त अर्थव्यवस्था और नियंत्रित अर्थव्यवस्था (वाम बनाम दक्षिण, पूंजीवाद बनाम समाजवाद) के बीच के संघर्ष अपनी पराकाष्ठा पर था और और इस तरह के संकटों का प्रभाव स्पष्ट रूप से राजनीतिक पटल पर देखा जा सकता था। आंदोलन पनपते थे और सरकारें बदलती थीं। लेकिन इस बार के आर्थिक संकट व्यवस्था के भीतर सामाजिक शक्तियों के टकराव का परिणाम नहीं है बल्कि नव उदारवादी व्यवस्था स्वयं ही ढह गयी है और यह व्यवस्था स्वयं अपने को ही संभालने के संघर्ष में जुटी हुई है। मौजूदा दौर में हर आर्थिक संकट के बाद राजनीतिक मानचित्र अस्पष्ट होता जा रहा है। एक व्यवस्था बिखर रही है लेकिन उसका कोई विकल्प नहीं उभर रहा है। यह व्यवस्था का अन्तर्विस्फोट है जहां व्यवस्था अपने भीतर ही विकल्प ढूंढ रही है और इससे स्वयं अपने ही विकल्प एक दूसरे से जूझ रहे हैं और संकट का अंत कही नजर नहीं आता है।

इस आर्थिक संकटों से जिस तरह का यूरोप उभर रहा है उसकी तस्वीर दिनोंदिन बोझिल और अस्पष्ट होती नजर आती है। यूरोप की इस बोझिल और अस्पष्ट रीजनीति का सबसे ज्वलंत उदाहरण ब्रिटेन में हुए चुनाव हैं। चुनाव के उपरांत घनघोर दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी और वामपंथी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के गठजोड़ की सरकार अस्तित्व में आई है। यह गठजोड़ सरकार मौजूदा आर्थिक संकट पर काबू पाने के लिये जिस तरह के कदम उठा रही है उससे लगता है कि परंपरागत राजनीतिक अवधारणायें बदल रही हैं और ब्रिटेन के कंजरवेटिव अब कंजरवेटिव नहीं रह गये हैं और लिबरल डेमोक्रेट नये कंजरवेटिव हो गये हैं।

यूरोप में विचारधाराओं के आधार पर परंपरागत रुप से पारिभाषित दक्षिणपंथ और वामपंथ में परिवर्तन आ रहा है। मुख्यधारा विचाराधात्मक राजनीति के इस तरह के संकट और इस तरह के परिवर्तन से कोई विकल्प नहीं उभर पा रहा है और एक और ऐसे राजनीतिक गठजोड़ अस्तित्व में आ रहे हैं जिनके बीच कोई खास राजनीतिक समानता नहीं है ।

नव उदारवाद के पतन से जो राजनीतिक शून्य पैदा हुआ उससे निश्चय ही एक नई राजनीति के लिये दरवाजे खुले हैं। लेकिन इस तरह की नई राजनीति के उभरने के संकेत नहीं मिल रहे हैं जो इस ऐतिहासिक शून्य को भर सके। इन परिस्थितियों में पूरे यूरोप का आर्थिक और राजनीतिक मानचित्र विखंडित सा दिखायी पड़ता है।

अफगानिस्तान:एक स्थायी युद्ध का मैदान

सुभाष धूलिया

अमेरिका में यह अहसास गहराता जा रहा है कि अफगान युद्द जीता नहीं जा सकता। राष्ट्रपति ओबामा स्वयं ‘विजय’ के बजाय ‘समाधान’ की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने 2011 तक अपनी सेनाएं बुलाने का ऐलान कर दिया है। अमेरिका में यह धारणा प्रबल हो चुकी है कि अफगान युद्ध में जब अबतक विजय हासिल नहीं हुई तो अगले एक साल में ऐसा कुछ हासिल नहीं होने जा रहा जो अब तक नहीं हासिल हुआ है। अफगानिस्तान में सैनिक अमेरिका की वापसी से जो राजनीतिक शून्य पैदा होगा उसकी भरपाई को लेकर अभी तक कोई साफ तस्वीर नहीं उभरी है। लेकिन इतना तय है कि करजई सरकार अमेरिका की वापसी के उपरांत टिक नहीं सकती। अचरज की बात तो यह है कि नौ सालों से सैनिक अभियान चला रहे अमेरिका ने अबतक भावी अफगानिस्तान का कोई स्पष्ट नक्शा पेश नहीं किया है।

असमंजस और अनिश्चय के इस माहौल में पाकिस्तान बेहद सक्रिय हो गया है और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में अपनी पिठ्ठू सरकार कायम करना चाहता है। हाल ही में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कियानी और कुख्यात खुफिया एजेंसी के प्रधान जनरल पाशा ने काबुल की यात्राएं की। कई अन्य स्तरों पर भी पाकिस्तान करजई सरकार के संपर्क में है। करजई पाकिस्तान के कट्टर विरोधी रहे हैं और भारत समर्थक के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन अब बदली परिस्थितियों में पाकिस्तान करजई सरकार को लुभाकर और डराकर साथ लाना चाहता है। पाकिस्तान का केन्द्रीय लक्ष्य अफगानिस्तान में भारत विरोधी सत्ता कायम करना है। इस मकसद को हासिल करने के लिये इस्लामी इस्लामी उग्रवादी संगठन पाकिस्तान का साथ दे रहे हैं।

पाकिस्तान करजई को ये संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि अगर वे इस्लामी उग्रवादियों को सत्ता में भागीदार बना लेते हैं तो अमेरिकी वापसी के बाद भी अफगान के राजनैतिक जीवन में करजई का वजूद बना रहेगा। करजई ने कभी भी पाकिस्तान पर भरोसा नहीं किया है लेकिन उनको अहसास है कि अमेरिकी वापसी के उपरांत वे तालिबान से टक्कर नहीं ले सकते । पाकिस्तान ने इस रणनीति के पहले चरण में एक इस्लामी उग्रवादी हक्कानी के गुट को सत्ता में भागीदार बनाने का प्रस्ताव दिया है। हक्कानी वे शख्स हैं जिन्होंने आईएसआई की मदद से अफगानिस्तान में कई भारतीय ठिकानों पर आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया था। पाकिस्तान की रणनीति यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि मौका मिलने पर वे तालिबानी नेता मुल्ला उमर और कट्टरपंथी नेता हिकमतयार को भी सत्ता में घुसाने की कोशिश करेंगे। पाकिस्तान काफी समय से ‘उदार’ तालिबान की भी बातें करता रहा है और यह तर्क देता है कि अफगानिस्तान में तालिबान के बिना कोई स्थायित्व लाना संभव नहीं है। यहां चौंकाने वाली बात ये है कि सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी पाकिस्तान के साथ इस मैदान में कूद पड़े हैं और करजई को ‘मध्यस्थ’ की भूमिका अदा करने की सलाह दे रहे हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विश्वभर में यही वो तीन देश थे जिन्होंने 1996 में तालिबानी सत्ता को विश्व भर में मान्यता दी थी।

यह घटनाक्रम अमेरिकी लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है लेकिन विडंबना यह है कि अमेरिकी की वापसी की स्थिति में और विकल्प भी क्या है ? इस बीच पाकिस्तान ने अमेरिकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए चीन के साथ नाभिकीय समझौता किया है जिसके तहत चीन पाकिस्तान में दो नाभिकीय संयंत्र लगाने जा रहा है। यह इसलिये अधिक चिंताजनक है कि दुनिया में पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है जिसका नाभिकीय प्रोद्योगिकी के प्रसार में बेहद खराब रिकॉर्ड रहा है और यही एक ऐसा देश है जिसे लेकर शंका पैदा होती है कि पता नहीं कब और कैसे इसकी नाभिकीय प्रोद्योगिकी ऐसे गुटों के हाथ ना चले जाये जो दुनिया में विनाश फैला सकते हैं।

अफगानिस्तान में केवल पाकिस्तान और अमेरिका के हित ही दांव पर नहीं लगे हैं बल्कि भारत-ईरान और रूस भी अफगानिस्तान में इस्लामी उग्रवादी सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकते। ये तीनों देश तालिबान के खिलाफ उत्तरी गठजोड़ को समर्थन देते रहे हैं जिसमें ताजिकों का वर्चस्व है। अफगानिस्तान में ताजिक और पख्तून दो प्रभावशाली जातीय समुदाय हैं जिनके बीच सत्ता के नियंत्रण को लेकर हमेशा टकराव रहा है। उत्तरी गठजोड़ काबुल में ऐसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा जिसमें पख्तूनों का दबदबा हो। अमेरिका में इन तीनों देशों को अफगान समस्या से अलग थलग रखा। लेकिन आज एक ऐसी परिस्थिति पैदा होती हो रही है जिसमें उत्तरी अफगानी गठजोड़ भारत-रूस और ईरान की मदद से पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के खिलाफ नया संघर्ष छेड़ सकता है।

भारत ने अफगानिस्तान में करजई सरकार के सत्तासीन होने के बाद 1.3 अरब डॉलर की मदद दी और अफगानिस्तान में सड़कों, पुलों, बिजली, अस्पताल और स्कूलों का निर्माण किया। भारत के इन प्रयासों को विफल करने के लिये ही आईएसआई ने हक्कानी गुट की मदद से भारतीय ठिकानों पर हमले कराये। पाकिस्तानी रणनीति के तहत अफगानिस्तान में कोई भी राजनीतिक समाधान तभी हो सकता है जब वहां ऐसी कोई सत्ता कायम हो जिस पर इस्लामी कट्टपंथियों का नियंत्रण हो। ऐसे में इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने और नौ सालों तक अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ने के अमेरिकी लक्ष्यों की नियति क्या होगी ? अमेरिका 2011 के बाद अमेरिका अफगानिस्तान में इसलिए नहीं रह सकता क्योंकि नौ सालों में जो हासिल नहीं किया जा सका उसको आगे भी हासिल नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर अफगानिस्तान में पाकिस्तान का लक्ष्य पूरा होता है तो निश्चय ही भारत रूस और ईरान को यह मंजूर नहीं होगा और जाहिर है इस तरह की सत्ता को अमेरिका का भी समर्थन हासिल नहीं होगा। इस परिदृश्य में बलूचिस्तान में भारत के प्रभाव और उजबेकिस्तान में भारत के वायुसैनिक अड्डे से पाकिस्तान विचलित है।

पाकिस्तान की रणनीति अफगानिस्तान में एक नया युद्द का शुरु करेगी और यह एक ऐसा युद्द होगा जिससे लड़ने के लिए जर्जर और अस्थिर पाकिस्तान के पास कोई दमखम नहीं है। इस पाकिस्तानी रणनीति का संचालन का सैनिक प्रतिष्टान के हाथ में है और भारत विरोधी उन्माद से ग्रसित पाकिस्तानी सेना एक बार फिर पाकिस्तान को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इस भावी अफगान टकराव के दूरगामी परिणाम होंगे और इसकी सबसे अधिक तपिश अफगानी लोगों को झलनी पड़ेगी जो पिछले तीन दशकों से युद्द की आग में झुलस रहे हैं।

एक नए,एक अलग शीत युद्ध की दस्तक

सुभाष धूलिया
इतिहास में आज तक विश्व के सत्ता समीकरण कभी भी शांतिपूर्वक नहीं बदले हैं। एक बड़ी आर्थिक और सैनिक शक्ति के रूप में चीन का उदय से भी विश्व के सत्ता समीकरण डगमगा रहे हैं और अमेरिकी प्रभुत्व के लिए चुनौती उभर रही है । चीन की इस बढ़ती ताकत पर अंकुश लगाने के लिए अमेरिका ने आक्रामक रुख अपना लिया है। अमेरिका और चीन के बीच उभर रहे आर्थिक संघर्ष और सैनिक टकराव से कारण दुनिया पर एक नए शीत युद्ध के बदल मंडरा रहे हैं।
अमेरिका और सोवियत संध के बीच पहला शीत युद्ध दुनिया के अनेक सामरिक ठिकानों और सागर महासागर के मार्गों पर प्रभुत्व कायम करने के लिये लड़ा गया। शीत युद्ध के दौरान वास्तविक युद्ध इसलिये कभी नहीं हो पाया क्योंकि सोवियत संघ और अमेरिका की सैनिक ताकत लगभग बराबर थी। पारस्परिक विनाश के डर शीत युद्ध कभी प्रत्यक्ष युद्ध में नहीं बदला। इस शीत युद्ध का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि अमेरिका की आर्थिक और सैनिक ताकत अब भी चीन से कहीं अधिक है लेकिन विनाश करने वाली ताकत के मामले में चीन को कम भी कम कर नहीं आँका जा सकता ।
आर्थिक ताकत के मामले में हाल ही में चीन जापान को पीछे छोड़ दिया है और अमेरिका के बाद यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन गया है। चीन की आर्थिक वृद्धि पर अगर इसी तरह बढ़त बनी रही तो अगले 20 साल में वह अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा। चीन के इस उभर के सामानांतर अमेरिका की आर्थिक ताकत में लगातार ह्रास हो रहा और दुनिया पर प्रभुत्व कायम रखने लिए अधिकाधिक सैनिक ताकत का सहारा ले रहा है। पिछले 20 सालों में अमेरिका दुनिया को यह संदेश दे चुका है कि उसके प्रभुत्व को ललकारने वाली किसी भी चुनौती को कुचलने के लिए वह सैनिक ताकत का प्रयोग करने से नहीं हिचकिचायेगा।
इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण के पीछे आतंकवाद से कहीं अधिक विश्व पर प्रभुत्व कायम करने की व्यापक रणनीति रही है। इराक पर नियंत्रण के बाद तेल संसाधनों से संपन्न मध्य-पूर्व में अमेरिका को चुनौती देने वाला कोई नही है और ईरान से उपजने वाला प्रतिरोध को कुचलने के लिए अमेरिका कमर कसे हुए है। अफगानिस्तान पर नियंत्रण के बाद अमेरिका को मध्य- एशिया पर प्रभुत्व कायम करने के लिये एक अहम सामरिक ठिकाना मिल गया है। मौजूदा परिस्थियों में पाकिस्तान के लिए भी अमेरिका के चंगुल से निकलना आसान नहीं है ।
चीन की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए अमेरिका ने घेराबंदी शुरु कर दी है। अमेरिका दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के साथ ही मध्य पूर्व में भी चीन के दरवाजे लगभग बंद कर दिये हैं। चीन से लगे पूर्व और दक्षिण एशिया में भी अमेरिका ने अपनी मजबूत सैनिक उपस्थिति कायम कर ली है। दक्षिण चीन सागर अमेरिका और चीन के बीच टकराव का सबसे बडा केन्द्र बना हुआ है। इस सागर का समुद्री मार्ग ही चीन को बाकी दुनिया से जोड़ता है और इसके आर्थिक जीवन की धुरी है। चीन इस सागर को अपना प्रभाव क्षेत्र मानता है और यहां अमेरिका या किसी भी दूसरी ताकत की सैनिक उपस्थिति का विरोधी है।
हाल ही में अमेरिकी हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि दक्षिणी चीन सागर सभी के लिए समान रूप से खुला होना चाहिये तो चीन के विदेश मंत्री ने इस बयान को चीन पर हमले के समान ठहराया। इस सागर को लेकर चीन और वियतनाम के बीच विवाद है और अमेरिका ने वियतनाम के साथ समारिक गठजोड़ कायम कर लिया है और वियतनाम को नाभिकीय प्रोद्योगिकी देने पर भी बातचीत चल रही है। दक्षिणी चीन सागर पर प्रभुत्व कायम करने की अमेरिकी रणनीति में वियतनाम की अहम भूमिका हो सकती है इसी वजह से वियतनाम के प्रति चीन ने आक्रमक रुख अपना लिया है। अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया,जापान,सिंगापुर,दक्षिण कोरिया और वियतानाम के साथ सामरिक गठजोड़ कायम कर चीन को घेर लिया है। भारत पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी अमेरिका ने अलग-अलग तरह के सामरिक रिश्ते कायम कर लिये हैं। यहां तक कि चीन की इस घेराबंदी को लेकर रूस भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका का ही साथ दे रहा है। इस घेराबंदी से अमेरिका ऐसी स्थिति में आ गया है की कभी भी किसी विवाद की स्थिति में वह चीन की अर्थव्यवस्था का गला घोंट सकता है और बार बार आ रही आर्थिक मंदी से इस तरह के हालत पैदा हो सकतें हैं।
इस पृष्ठभूमि में लगता है कि एक बार फिर उसी तरह के हालात पैदा हो रहे हैं जिनके परिणामस्वरुप दुनिया में दो विश्व युद्ध लड़े गये। दुनिया के बाजारों,आर्थिक संसाधनों और सामरिक ठिकानों को लेकर जब-जब स्थापित महाशक्तियों को उभरती शक्तियों से चुनौती मिली तो इसका परिणाम युद्ध के रूप में ही सामने आया। तीस के दशक की महामंदी दूसरे विश्व युद्ध का एक बहुत बड़ा कारण थी। आज फिर आर्थिक मंदियों के आने-जाने का सिलसिला कायम हो गया है और हर मंदी के बाद नये आर्थिक टकराव पैदा हो रहे हैं। नये परिदृश्य में चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध भी तेज हो रहा है और अमेरिका अपनी अनेक आर्थिक समस्यायों के लिए चीन को उत्तरदायी ठहरा रहा है। दूसरी ओर चीन अर्थव्यवस्था का लगातार विस्तार हो रहा है और इस बढ़ती अर्थव्यवस्था को बाजारों और आर्थिक संसाधानों की जरुरत होगी। चीन पहले ही अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का ऊर्जा का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है।

इस तरह की परिस्थितियों में पिछली सदी ने विश्व युद्धों को जन्म दिया। कुछ हलकों में आशंका है कि दुनिया एक बार फिर नए टकराव अग्रसर है लेकिन इक्कीसवीं सदी की विश्व व्यवस्था में अभी तक कोई स्थायित्व नहीं आया है और जहां चीन की आर्थिक वृद्धि किसी मजबूत आर्थिक धरातल पर खड़ी नहीं है वहीं अमेरिकी प्रभुत्व की जमीन भी ऊबड़खाबड़ है। इसलिये मौजूदा हालातों में इस टकराव की हार-जीत का गणित और हार-जीत के अर्थ काफी जटिल और कठिन है।