Thursday 23 December 2010

इतिहास से हारता एक देश

सुभाष धूलिया

हाल ही में भारत यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा ने थोड़ा हिचकिचाहट के साथ कहा कि ‘एक स्थिर और समृद्द पाकिस्तान ही भारत के हित में है’। आज ओबामा ये बात कह रहे हैं लेकिन सच्चाई ये है कि यही बात इन्ही शब्दों में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी वर्षों साल पहले कह चुके हैं। भारत का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा से ही इस तरह की भावनाओं को अभिव्यक्त करता रहा है। लेकिन अब सवाल यह पैदा होता है कि खोखले और हिंसक उग्रवाद से घिरे पाकिस्तान को स्थिर और समृद्ध कैसे बनाया जाए ?

ओबामा अपनी भारत यात्रा के दौरान भले ही भारत की अनेक अपेक्षाओं पर खरे उतरे हों और कुछ अन्य पर सहमति ना बन पायी हो लेकिन ओबामा का ये कथन एक नये दौर का आगाज है कि ‘भारत एक उभरती महाशक्ति नहीं बल्कि पहले ही एक महाशक्ति बन चुका है’। सुरक्षा परिषद में भारत के स्थायी सदस्य के रूप में प्रवेश का रास्ता भले ही कितना भी लंबा क्यों ना हो लेकिन इस मसले पर भारत को अमेरिका के समर्थन से दोनों देशों के राजनीतिक संबंधों को नई ऊचाइयां मिली हैं। सुरक्षा परिषद के मुद्दे का वास्तविक से कहीं अधिक प्रतीकात्मक महत्व है जिससे पाकिस्तान के सत्ता गलियारों में खलबली सी मच गई है। ओबामा ने भले ही पाकिस्तान पर सीधा निशाना न साधा हो लेकिन जितना भी उन्होंने कहा वह पाकिस्तान को विचलित कर देने वाला है। आंतकवाद के संदर्भ में ओबामा ने सिर्फ इतना ही कहा कि पाकिस्तान सरकार उसको खत्म करने के लिये प्रयासरत है। इसका मतलब यह भी है कि इन प्रयासों को प्रयास तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता।

पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरणों को देखते हुए इसकी उग्रवाद से लड़ने की इच्छा और क्षमता पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं। पाकिस्तानी लोकतंत्र की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में है जो किन्ही खास परिस्थितियों में चुनाव जीते और देश के राजनीतिक जीवन में इनकी कभी कोई खास हस्ती नहीं रही। आज पाकिस्तानी सत्ता की वास्तविक बागडोर सैनिक प्रतिष्ठान के हाथ में है। सैनिक प्रतिष्ठान इस लोकतांत्रिक सरकार को इसलिए स्वीकार किये हुए है क्योंकि पहला तो ये सेना के ऐजेंडे में कोई रुकावट डालने की हिम्मत नहीं जुटा सकती और दूसरा सैनिक तख्तापलट अमेरिका को भी स्वीकार्य नहीं होगा।

इस्लामी उग्रवाद को लेकर पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान के इतिहास पर एक नहीं अनेक काले धब्बे लगे हुए हैं। कश्मीर में आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व से कहीं बड़ा हाथ सैनिक प्रतिष्ठान का रहा है। अफगानिस्तान को अपने एक सामरिक क्षेत्र में तब्दील करने के मकसद से तालिबान को पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान ने ही खड़ा किया था। तालिबान से पाकिस्तान ने इसलिए हाथ नहीं झाड़े थे कि उसे कोई इस्लामी उग्रवाद से कोई परहेज रहा हो बल्कि 9/11 के उपरांत अमेरिका सैनिक कार्रवाई का मन बना चुका था और अगर पाकिस्तान इस युद्ध में अमेरिका का साथ नहीं देता तो खुद भी अमेरिका के निशाने पर होता।

इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ जो भी अभियान चला रहा है और जिस तरह भी चला रहा है उसमें आस्था बहुत कम और मजबूरी कहीं अधिक है। पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्टान के इस्लामी उग्रवाद के साथ इतने गहरे रिश्ते रहे हैं कि इसमें अब भी ऐसे प्रभावशाली तत्व मौजूद है जो आतंकवादी गतिविधियों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं। ऐसे में किसी भी आतंकवादी हमले की स्थिति में पाकिस्तान सरकार अपने आप को पाक-साफ अक्षम नजर आती है।

पाकिस्तान आज ऐसा विखंडित देश बन गया है जो दिशाहीन है और जिसकी आर्थिक दशा जर्जर है। यह एक ऐसी सैन्यीकृत व्यवस्था में जकड़ा हुआ है जो 21वीं सदी के साथ तालमेल बिठाने को तैयार नहीं है और जिसकी पूरी सोच युद्ध से प्रदूषित है। दुनिया के सभी देश आज इस बहुआयामी दुनिया में नये संतुलन, नये तालमेल बिठा रहे हैं पर पाकिस्तान अपनी सोच को युद्ध-प्रदूषित मानसिकता से मुक्त नहीं कर पा रहा है।

पाकिस्तान अब भी ओबामा की यात्रा के परिणामों को सही परिपेक्ष्य में नहीं देख पा रहा है और एक ऐसे ऐतिहासिक घटनाक्रम का विरोध कर रहा है जिसे रोका नहीं जा सकता। भारत आज एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। आर्थिक संकट के बाद दुनिया काफी कुछ बदल गयी है और इसमें भारत जैसी उभरती हुई महाशक्तियों की भूमिका कहीं अधिक अहम हो चुकी है। भारत अमेरिका में 10 अरब डॉलर का निवेश करने जा रहा है जिससे अमेरिका में 50 हजार रोजगार के अवसर पैदा होंगे। पाकिस्तान को हर साल विकास के लिए अमेरिका से एक अरब डॉलर और सेना के लिए दो अरब डॉलर खैरात में मिल रहे है। अमेरिका को अपनी आर्थिक सेहत के लिए भारत की जरुरत है जबकि पाकिस्तान का उपयोग अफगान युद्ध तक ही सीमित है। आज चीन से भी पाकिस्तान पहले जैसे समर्थन की उम्मीद नही कर सकता क्योंकि चीन अमेरिका को पीछे छोडते हुए भारत का सबसे का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बन चुका है। आज पाकिस्तान के पास ऐसा क्या है जो वह चीन और अमेरिका को दे सके।

ओबामा ने अफगानिस्तान के विकास में भारत के प्रयासों की भी सराहना की। पाकिस्तान अफगानिस्तान में एक पाकिस्तान-परस्त और भारत-विरोधी सत्ता कायम करना चाहता है लेकिन सच तो यह है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान का प्रभाव तभी तक कायम रह सकता है जब तक यह देश उग्रवादी हिंसा की चपेट में है। एक स्थिर अफगानिस्तान के उदय के उपरांत पाकिस्तान के पास अफगानिस्तान को देने के लिए भी क्या है जबकि अफगानिस्तान के पुनर्निमार्ण और विकास में मदद देने की भारत के पास अपार क्षमता है।

ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि पाकिस्तान कैसे सोच सकता है कि कश्मीर को भारत से छीना जा सकता है। भारत के साथ तनाव बरकरार रखकर भले ही पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्टानों के निहित स्वार्थों की पूर्ति हो लेकिन इससे पाकिस्तान के व्यापक हितों को चोट पहुंच रही है और इसके विफल राष्ट्र होने का खतरा पैदा हो रहा है।

इन परिस्थितियों में पाकिस्तान भारत और अमेरिका की साझेदारी के साथ तालमेल बिठाने की बजाय छाती पीट रहा है और संकट से निकलने की कोशिश करने की बजाय इसमें और भी गहरा धंसता जा रहा है।

इतिहास की वापसी !

सुभाष धूलिया

बर्लिन की दीवार को ढहे बीस वर्ष हो गए हैं। इस ऐतिहासिक घटना के साथ ही शीत युद्ध समाप्त हुआ था और जिसके परिणामस्वरूप 1981 में सोवियत संघ के अवसान के साथ ही एक वैकल्पिक विचारधारा और एक व्यवस्था का आदर्श भी ढह गया। बौद्धिक हलकों में समाजवाद और पूंजीवाद के भविष्य को लेकर अनेक बहसें छिड़ीं। समाजवादी विचारकों ने इसे समाजवाद की पराजय मानने के बजाय स्टालिनवादी नौकरशाही सत्ता का पतन करार दिया तो पूंजीवाद में यकीन रखने वालों ने इसके अधिनायकवाद के खिलाफ लोकतंत्र और स्वतंत्रता की विजय के रूप में देखा। अमेरिकी विचारक फ्रांसिस फुकुयामा ने इस विजय को "इतिहास का अंत" करार दिया। फुकुयामा का तर्क था कि मानव सभ्यता अपने ऐतिहासिक विकास के अंतिम पड़ाव पर पहुंच गयी है और अब पश्चिमी शैली के उदार लोकतंत्र और पूंजावादी अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है ।

नब्बे के पूरे दशक में पश्चिमी देशों में ऐतिहासिक विजय का नशा सा छा गया। समाजवाद के सोवियत मॉडल के पतन को पूंजीवाद के विजय के रूप में इस हद तक देखा गया कि इस व्यवस्था की खामियों और निहित कमजोरियों की ओर से ध्यान हट गया। पूंजीवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की विजय का झंडा दुनिया भर में फहरने लगा। सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि मुक्त अर्थव्यवस्था ही गतिशील साबित हुई है और इसमें ही पूंजी और श्रम दोनों को कुशलता और उत्पादकता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने की क्षमता निहित है। निश्चित ही सोवियत मॉडल की नियंत्रित अर्थव्यवस्था जड़ता का शिकार होती चली गयी। इसी के समांतर इसने राजनीतिक असहमति और विमर्श का हर दरवाजा ही नहीं बल्कि हर खिड़की तक बंद कर दी और अधिनायकवादी केन्द्रवाद हावी होता चला गया। आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही स्वतंत्रताओं के छिनने से इस व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास उठ गया और अवसर मिलते ही कहीं गहरा धंसा आक्रोश फूट पड़ा और बर्लिन की दीवार ढह गयी ।

इसके साथ ही पूरी दुनिया में मुक्त अर्थव्यवस्था उन्मुख सुधारों का दौर चला। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने नया आवेग ग्रहण किया और राष्ट्रीय अर्थतंत्रों के वैश्विक अर्थतंत्र में एकीकरण के लिए उदारीकरण की गूंज हर तरफ उठने लगी। लेकिन केवल एक दशक के भीतर ही उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने ऐसा रूप धारण कर लिया कि अनेक हलकों में यह कहा जाने लगा कि यह समृद्धि का नहीं बल्कि गरीबी का भूमंडलीकरण हो रहा है और इस पर बहुराष्ट्रीय निगमों के दबदबे से इसे कॉर्पोरेट भूमंडलीकरण का नाम दिया गया।

नोबेल पुरुस्कार विजेता जोजेफ स्टिग्लिट्ज जैसे अर्थशास्त्री जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के प्रबल हिमायती हुआ करते थे उनसे ही विरोध के स्वर उठने लगे। इस सदी के प्रारंभ होने के साथ ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विकास के तत्वों को समावेश करने की जोरदार मांग उठने लगी। इसी के समांतर वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक संकट ने झकझोर दिया। 1997 में एशियाई टाइगरों के वित्तीय संकट ने पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को इतना झकझोर दिया कि मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातीर ने कहा कि जिस अर्थव्यवस्था के निर्माण में हमें चालीस वर्ष लगे, एक सट्टेबाज आया और उसने चालीस घंटों में ही सब बर्बाद कर दिया। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर वित्तीय पूंजी हावी होने लगी थी। संकटों इस इस श्रंखला में 1997 के तत्काल बाद 1998 में पूंजी के प्रबंधन का संकट पैदा हुआ और 2001 में डॉटकॉम का गुब्बारा भी फूट गया। तब से लेकर 2008 की बड़ी मंदी तक अनेक तरह के संकट आते रहे। इन घटनाओं से बर्लिन की दीवर के ढहने से उपजा विजयवाद ठंडा पड़ने लगा और सवाल उठाए गए कि सरकार और बाजार के संबंधों को नए सिरे से देखने की जरूरत है। सब कुछ बाजार की शक्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता ।

1930 की महामंदी के बाद जिस तरह मुक्त अर्थव्यवस्था को पूरी तरह मुक्त करने के बजाय सरकार के हस्तक्षेप की पैरवी की गई और प्रख्यात अर्थशास्त्री कीन्स ने कहा कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की भलाई इसी में है कि रोजगार पैदा करने में सरकार का हस्तक्षेप करे। आज मौजूदा नव-उदारवादी व्यवस्था पर संकट के उपरांत भी दुनिया के अनेक जाने-माने अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि सरकार को किसी ना किसी रूप में बाजार को रेग्यूलेट करना होगा। 15 सितंबर 2008 में अमेरिका की एक 158 वर्ष पुरानी प्रमुख विनियोग बैंक लेहमान ब्रदर्स दिवालिया होने पर जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने कहा कि जिस तरह 1989 में बर्लिन की दीवार का ढहना समाजवाद के पतन का प्रतीक था उसी तरह लेहमान ब्रदर्स का दिवालिया होना पूंजीवाद के मौजूदा स्वरुप के पतन का प्रतीक है। लेहमान ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद अमेरिका की अनेक बड़ी-बड़ी वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने के कगार पर खड़ी थी और अमेरिकी सरकार को "मुक्त" अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर अरबों डॉलर के पैकेज के बल पर इन संस्थाओं को डूबने के बचाने पर विवश होना पड़ा।

बर्लिन दीवार के ढहने से जो पूंजीवाद विजयी हुआ था आज उसे लेकर सवाल उठ रहे हैं। कई बहसें हो रही है कि मुक्त अर्थव्यवस्था को कितना मुक्त रखा जाए और इसे रेग्यूलेट करने के लिए किस हद तक सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है? लेकिन इसके साथ ही यह बहस भी हो रही है कि पूंजीवादी व्यवस्था में अनेक अन्तर्विरोध निहित हैं और अगर इस पर बार-बार आने वाले संकटों से मुक्ति पानी है तो पूंजीवादी व्यवस्था की जड़ों की ओर देखना होगा और राहत पैकेज तो केवल तात्कालिक सामाधान है।

निश्चय ही बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद उपजे उदारीकरण का आवेग तीव्र ढलान पर लुढक रहा है और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया दुम दबाकर भागती सी दिखाई दे रही है। दुनिया भर में ऱाष्ट्रीय अर्थतंत्र को संरक्षण देने का दौर शुरु हो चुका है। पर विकल्प को लेकर कोई ठोस अवधारण विकसित नहीं हो रही है इसकी अभिव्यक्ति अमेरिका की एक बहुत बड़ी वित्तीय संस्था मेरिल लिन्च के अध्यक्ष बर्नी सुचर के इस कथन में होती है कि "हमारी दुनिया बिखर गई है और हमें नहीं मालूम कि इसका स्थान कौन लेने जा रहा है"। लेकिन दुनिया के दो सबसे बड़े अमीरों- बिल गेट्स और वारेन बफेट -ने कहा है कि संकट टल गया है और पूंजीवाद पूरी तरह स्वस्थ है। लेकिन स्टिग्लिट्ज और अमृर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों का कहना है कि संकट टला भर है और जब तक मुक्त बाजार की मनमानी पर रोक नहीं लगाई जाएगी तब तक इस तरह के संकट आते ही रहेंगे।

आज पूंजीवाद के मौजूदा चरित्र और स्वरूप पर "समाजवादी" नहीं बल्कि पूंजीवादी दर्शन में आस्था रखने वाले ही सवाल उठा रहे हैं। बर्लिन की दीवार ढहने से जिस पूंजीवाद की विजय हुई थी वह निश्चय ही इतिहास का अंत नहीं है और बर्लिन की दीवार ढहने जैसी एक और ऐतिहासिक घटना की किरणें क्षितिज में कहीं दिखाई दे रही हैं।

अफगानिस्तान:एक स्थायी युद्ध का मैदान

सुभाष धूलिया

अमेरिका में यह अहसास गहराता जा रहा है कि अफगान युद्द जीता नहीं जा सकता। राष्ट्रपति ओबामा स्वयं ‘विजय’ के बजाय ‘समाधान’ की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने 2011 तक अपनी सेनाएं बुलाने का ऐलान कर दिया है। अमेरिका में यह धारणा प्रबल हो चुकी है कि अफगान युद्ध में जब अबतक विजय हासिल नहीं हुई तो अगले एक साल में ऐसा कुछ हासिल नहीं होने जा रहा जो अब तक नहीं हासिल हुआ है। अफगानिस्तान में सैनिक अमेरिका की वापसी से जो राजनीतिक शून्य पैदा होगा उसकी भरपाई को लेकर अभी तक कोई साफ तस्वीर नहीं उभरी है। लेकिन इतना तय है कि करजई सरकार अमेरिका की वापसी के उपरांत टिक नहीं सकती। अचरज की बात तो यह है कि नौ सालों से सैनिक अभियान चला रहे अमेरिका ने अबतक भावी अफगानिस्तान का कोई स्पष्ट नक्शा पेश नहीं किया है।

असमंजस और अनिश्चय के इस माहौल में पाकिस्तान बेहद सक्रिय हो गया है और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में अपनी पिठ्ठू सरकार कायम करना चाहता है। हाल ही में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कियानी और कुख्यात खुफिया एजेंसी के प्रधान जनरल पाशा ने काबुल की यात्राएं की। कई अन्य स्तरों पर भी पाकिस्तान करजई सरकार के संपर्क में है। करजई पाकिस्तान के कट्टर विरोधी रहे हैं और भारत समर्थक के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन अब बदली परिस्थितियों में पाकिस्तान करजई सरकार को लुभाकर और डराकर साथ लाना चाहता है। पाकिस्तान का केन्द्रीय लक्ष्य अफगानिस्तान में भारत विरोधी सत्ता कायम करना है। इस मकसद को हासिल करने के लिये इस्लामी इस्लामी उग्रवादी संगठन पाकिस्तान का साथ दे रहे हैं।

पाकिस्तान करजई को ये संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि अगर वे इस्लामी उग्रवादियों को सत्ता में भागीदार बना लेते हैं तो अमेरिकी वापसी के बाद भी अफगान के राजनैतिक जीवन में करजई का वजूद बना रहेगा। करजई ने कभी भी पाकिस्तान पर भरोसा नहीं किया है लेकिन उनको अहसास है कि अमेरिकी वापसी के उपरांत वे तालिबान से टक्कर नहीं ले सकते । पाकिस्तान ने इस रणनीति के पहले चरण में एक इस्लामी उग्रवादी हक्कानी के गुट को सत्ता में भागीदार बनाने का प्रस्ताव दिया है। हक्कानी वे शख्स हैं जिन्होंने आईएसआई की मदद से अफगानिस्तान में कई भारतीय ठिकानों पर आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया था। पाकिस्तान की रणनीति यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि मौका मिलने पर वे तालिबानी नेता मुल्ला उमर और कट्टरपंथी नेता हिकमतयार को भी सत्ता में घुसाने की कोशिश करेंगे। पाकिस्तान काफी समय से ‘उदार’ तालिबान की भी बातें करता रहा है और यह तर्क देता है कि अफगानिस्तान में तालिबान के बिना कोई स्थायित्व लाना संभव नहीं है। यहां चौंकाने वाली बात ये है कि सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी पाकिस्तान के साथ इस मैदान में कूद पड़े हैं और करजई को ‘मध्यस्थ’ की भूमिका अदा करने की सलाह दे रहे हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विश्वभर में यही वो तीन देश थे जिन्होंने 1996 में तालिबानी सत्ता को विश्व भर में मान्यता दी थी।

यह घटनाक्रम अमेरिकी लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है लेकिन विडंबना यह है कि अमेरिकी की वापसी की स्थिति में और विकल्प भी क्या है ? इस बीच पाकिस्तान ने अमेरिकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए चीन के साथ नाभिकीय समझौता किया है जिसके तहत चीन पाकिस्तान में दो नाभिकीय संयंत्र लगाने जा रहा है। यह इसलिये अधिक चिंताजनक है कि दुनिया में पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है जिसका नाभिकीय प्रोद्योगिकी के प्रसार में बेहद खराब रिकॉर्ड रहा है और यही एक ऐसा देश है जिसे लेकर शंका पैदा होती है कि पता नहीं कब और कैसे इसकी नाभिकीय प्रोद्योगिकी ऐसे गुटों के हाथ ना चले जाये जो दुनिया में विनाश फैला सकते हैं।

अफगानिस्तान में केवल पाकिस्तान और अमेरिका के हित ही दांव पर नहीं लगे हैं बल्कि भारत-ईरान और रूस भी अफगानिस्तान में इस्लामी उग्रवादी सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकते। ये तीनों देश तालिबान के खिलाफ उत्तरी गठजोड़ को समर्थन देते रहे हैं जिसमें ताजिकों का वर्चस्व है। अफगानिस्तान में ताजिक और पख्तून दो प्रभावशाली जातीय समुदाय हैं जिनके बीच सत्ता के नियंत्रण को लेकर हमेशा टकराव रहा है। उत्तरी गठजोड़ काबुल में ऐसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा जिसमें पख्तूनों का दबदबा हो। अमेरिका में इन तीनों देशों को अफगान समस्या से अलग थलग रखा। लेकिन आज एक ऐसी परिस्थिति पैदा होती हो रही है जिसमें उत्तरी अफगानी गठजोड़ भारत-रूस और ईरान की मदद से पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के खिलाफ नया संघर्ष छेड़ सकता है।

भारत ने अफगानिस्तान में करजई सरकार के सत्तासीन होने के बाद 1.3 अरब डॉलर की मदद दी और अफगानिस्तान में सड़कों, पुलों, बिजली, अस्पताल और स्कूलों का निर्माण किया। भारत के इन प्रयासों को विफल करने के लिये ही आईएसआई ने हक्कानी गुट की मदद से भारतीय ठिकानों पर हमले कराये। पाकिस्तानी रणनीति के तहत अफगानिस्तान में कोई भी राजनीतिक समाधान तभी हो सकता है जब वहां ऐसी कोई सत्ता कायम हो जिस पर इस्लामी कट्टपंथियों का नियंत्रण हो। ऐसे में इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने और नौ सालों तक अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ने के अमेरिकी लक्ष्यों की नियति क्या होगी ? अमेरिका 2011 के बाद अमेरिका अफगानिस्तान में इसलिए नहीं रह सकता क्योंकि नौ सालों में जो हासिल नहीं किया जा सका उसको आगे भी हासिल नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर अफगानिस्तान में पाकिस्तान का लक्ष्य पूरा होता है तो निश्चय ही भारत रूस और ईरान को यह मंजूर नहीं होगा और जाहिर है इस तरह की सत्ता को अमेरिका का भी समर्थन हासिल नहीं होगा। इस परिदृश्य में बलूचिस्तान में भारत के प्रभाव और उजबेकिस्तान में भारत के वायुसैनिक अड्डे से पाकिस्तान विचलित है।

पाकिस्तान की रणनीति अफगानिस्तान में एक नया युद्द का शुरु करेगी और यह एक ऐसा युद्द होगा जिससे लड़ने के लिए जर्जर और अस्थिर पाकिस्तान के पास कोई दमखम नहीं है। इस पाकिस्तानी रणनीति का संचालन का सैनिक प्रतिष्टान के हाथ में है और भारत विरोधी उन्माद से ग्रसित पाकिस्तानी सेना एक बार फिर पाकिस्तान को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इस भावी अफगान टकराव के दूरगामी परिणाम होंगे और इसकी सबसे अधिक तपिश अफगानी लोगों को झलनी पड़ेगी जो पिछले तीन दशकों से युद्द की आग में झुलस रहे हैं।

Tuesday 14 September 2010

एक व्यवस्था का पतन और विकल्प का अभाव

सुभाष धूलिया


मंदी के बाद अमेरिका में जब लेहमान ब्रदर्स जैसी कंपनी दिवालिया हुई तो यह कहा गया कि यह पूंजीवाद के पतन का उसी तरह प्रतीक है जैसा 1989 में बर्लिन की दीवार का ढहना सोवियत समाजवाद के पतन का प्रतीक था। 2008 की इस मंदी से पूरे विश्व में आर्थिक भूचाल आ गया था । लेकिन अमेरिकी प्रशासन वित्तीय सेक्टर को अरबों डॉलर का राहत पैकेज इस आर्थिक भूचाल को सीमित करने में सफल रहा। अब हाल ही में जब यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश ग्रीस की आर्थिक व्यवस्था ढहने के कगार पर थी तो यूरोपीय सूनियन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एक बार फिर अरबों डॉलर का पैकेज देकर ग्रीस को ढहने से बचा लिया। अगर इस बार ग्रीस से उठने वाली मंदी के बादल अगर पूरे यूरोप पर छाते तो एक बार फिर विश्व की अर्थव्यवस्था उसी हालत में पहुंच जाती जिसमें वह 2008 में जा पहुंची थी।

लेकिन यह संकट अभी पूरी तरह टला नहीं है। यह माना जा रहा है कि सरकारें वित्तीय घाटे को कम करने में विफल हो रही हैं और इसी कारण आर्थिक संकट पैदा हो रहे हैं। इस तरह की आर्थिक व्यवस्था में वित्तीय घाटे को कम करने का एक ही उपाय बचता है कि सरकार अपने खर्चों में कटौती करे और इसका सीधा मतलब यही है कि विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों के व्यय में कटौती की जाये।

ग्रीस में आर्थिक संकट आने के बाद लोग सड़कों पर उतर आये थे और ऐसे में राजनीतिक टकराव भी पनप रहा था।। इस परिस्थिति में राहत पैकेज में आर्थिक संकट का भले ही तात्कालिक रूप से हल पा लिया हो लेकिन रोजगार और लोगों की आय पर इसकी जो मार पड़ेगी उसके परिणाम दूरगामी होंगे। ग्रीस को दिये गये आर्थिक पैकेज में भागीदार बनने के लिये तो ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देश भी हिचकिचा रहे क्योंकि वो खुद इस तरह के आर्थिक संकट की चपेट में हैं। इनकी हिचकिचाहट इस हद तक थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को हस्तक्षेप करना पड़ा और तब जाकर राहत पैकेज तैयार हो सका।

लेकिन यह बात अब यहीं तक सीमित नहीं है कि ग्रीस पर आर्थिक संकट आया और एक राहत पैकेज से इस पर काबू पा लिया गया। आज यूरोप के कई देश जैसे स्पेन और पुर्तगाल भी ग्रीस जैसी स्थिति में फंसे हुए हैं। यूरोपीय कमीशन से बुल्गारिया, साइप्रस डेनमार्क और फिनलैंड को भी सचेत किया है कि उनका बजट घाटा सीमा पार कर रहा है और वो अपने सार्वजनिक व्ययों में कटौती करें। बजट घाटे की समस्या इन्ही छोटे देशों तक सीमित नहीं है बल्कि यूरोप के ब्रिटेन और जर्मनी जैसी आर्थिक महाशक्ति भी इस संकट से जूझ रही हैं।

1930 के दशक की महामंदी के बाद परंपरागत उदार अर्थव्यवस्था का पतन हुआ था और आर्थिक जीवन को केवल बाजार के भरोसे छोड़ने के बजाय सरकार के हस्तक्षेप को स्वीकर किया गया था। लेकिन 70 का दशक आते आते यह अर्थव्यवस्था भी डगमगाने लगी। सामाजिक वर्गों के बीच टकराव हुआ और इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन में मारग्रेट थैचर और अमेरिका में रीगन सत्तीसीन हुए जिन्होंने फिर से उदार अर्थव्यवस्था को बहाल किया । इसी दौर में सोवियत समाजवाद के पतन के समांतर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से पूरे विश्व में उदार लोकतंत्र की हवायें बहने लगी। लेकिन 90 का दशक आते आते इस अनियंत्रित बाजार पर संकट आते चले गये और जिसके परिणामस्वरूप 2008 का महासंकट आया। इस संकट से बचने के लिये अमेरिकी प्रशासन को नव उदारवाद का परित्याग कर आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके साथ ही दुनियाभर में यह स्वीकार किया गया कि मुक्त अर्थव्यस्था की मुक्तता में सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है ताकि बार बार आनेवाले इन संकटों पर काबू पाया जा सके।

निश्चय ही इस तरह की परिस्थिति पैदा होना उस नव उदारवाद का अंत है जिसकी शुरुआत सत्तर के दशक में हुई थी लेकिन इससे पहले के तमाम आर्थिक संकटो और पिछले दो दशकों में आने वाले संकटों में एक बुनियादी अंतर है। पहले ये संकट सामाजिक टकरावों का परिणाम होते थे और इनसे राजनीतिक सत्ता समीकरणों में परिवर्तन आता था । 70 के दशक में मुक्त अर्थव्यवस्था और नियंत्रित अर्थव्यवस्था (वाम बनाम दक्षिण, पूंजीवाद बनाम समाजवाद) के बीच के संघर्ष अपनी पराकाष्ठा पर था और और इस तरह के संकटों का प्रभाव स्पष्ट रूप से राजनीतिक पटल पर देखा जा सकता था। आंदोलन पनपते थे और सरकारें बदलती थीं। लेकिन इस बार के आर्थिक संकट व्यवस्था के भीतर सामाजिक शक्तियों के टकराव का परिणाम नहीं है बल्कि नव उदारवादी व्यवस्था स्वयं ही ढह गयी है और यह व्यवस्था स्वयं अपने को ही संभालने के संघर्ष में जुटी हुई है। मौजूदा दौर में हर आर्थिक संकट के बाद राजनीतिक मानचित्र अस्पष्ट होता जा रहा है। एक व्यवस्था बिखर रही है लेकिन उसका कोई विकल्प नहीं उभर रहा है। यह व्यवस्था का अन्तर्विस्फोट है जहां व्यवस्था अपने भीतर ही विकल्प ढूंढ रही है और इससे स्वयं अपने ही विकल्प एक दूसरे से जूझ रहे हैं और संकट का अंत कही नजर नहीं आता है।

इस आर्थिक संकटों से जिस तरह का यूरोप उभर रहा है उसकी तस्वीर दिनोंदिन बोझिल और अस्पष्ट होती नजर आती है। यूरोप की इस बोझिल और अस्पष्ट रीजनीति का सबसे ज्वलंत उदाहरण ब्रिटेन में हुए चुनाव हैं। चुनाव के उपरांत घनघोर दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी और वामपंथी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के गठजोड़ की सरकार अस्तित्व में आई है। यह गठजोड़ सरकार मौजूदा आर्थिक संकट पर काबू पाने के लिये जिस तरह के कदम उठा रही है उससे लगता है कि परंपरागत राजनीतिक अवधारणायें बदल रही हैं और ब्रिटेन के कंजरवेटिव अब कंजरवेटिव नहीं रह गये हैं और लिबरल डेमोक्रेट नये कंजरवेटिव हो गये हैं।

यूरोप में विचारधाराओं के आधार पर परंपरागत रुप से पारिभाषित दक्षिणपंथ और वामपंथ में परिवर्तन आ रहा है। मुख्यधारा विचाराधात्मक राजनीति के इस तरह के संकट और इस तरह के परिवर्तन से कोई विकल्प नहीं उभर पा रहा है और एक और ऐसे राजनीतिक गठजोड़ अस्तित्व में आ रहे हैं जिनके बीच कोई खास राजनीतिक समानता नहीं है ।

नव उदारवाद के पतन से जो राजनीतिक शून्य पैदा हुआ उससे निश्चय ही एक नई राजनीति के लिये दरवाजे खुले हैं। लेकिन इस तरह की नई राजनीति के उभरने के संकेत नहीं मिल रहे हैं जो इस ऐतिहासिक शून्य को भर सके। इन परिस्थितियों में पूरे यूरोप का आर्थिक और राजनीतिक मानचित्र विखंडित सा दिखायी पड़ता है।

अफगानिस्तान:एक स्थायी युद्ध का मैदान

सुभाष धूलिया

अमेरिका में यह अहसास गहराता जा रहा है कि अफगान युद्द जीता नहीं जा सकता। राष्ट्रपति ओबामा स्वयं ‘विजय’ के बजाय ‘समाधान’ की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने 2011 तक अपनी सेनाएं बुलाने का ऐलान कर दिया है। अमेरिका में यह धारणा प्रबल हो चुकी है कि अफगान युद्ध में जब अबतक विजय हासिल नहीं हुई तो अगले एक साल में ऐसा कुछ हासिल नहीं होने जा रहा जो अब तक नहीं हासिल हुआ है। अफगानिस्तान में सैनिक अमेरिका की वापसी से जो राजनीतिक शून्य पैदा होगा उसकी भरपाई को लेकर अभी तक कोई साफ तस्वीर नहीं उभरी है। लेकिन इतना तय है कि करजई सरकार अमेरिका की वापसी के उपरांत टिक नहीं सकती। अचरज की बात तो यह है कि नौ सालों से सैनिक अभियान चला रहे अमेरिका ने अबतक भावी अफगानिस्तान का कोई स्पष्ट नक्शा पेश नहीं किया है।

असमंजस और अनिश्चय के इस माहौल में पाकिस्तान बेहद सक्रिय हो गया है और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में अपनी पिठ्ठू सरकार कायम करना चाहता है। हाल ही में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कियानी और कुख्यात खुफिया एजेंसी के प्रधान जनरल पाशा ने काबुल की यात्राएं की। कई अन्य स्तरों पर भी पाकिस्तान करजई सरकार के संपर्क में है। करजई पाकिस्तान के कट्टर विरोधी रहे हैं और भारत समर्थक के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन अब बदली परिस्थितियों में पाकिस्तान करजई सरकार को लुभाकर और डराकर साथ लाना चाहता है। पाकिस्तान का केन्द्रीय लक्ष्य अफगानिस्तान में भारत विरोधी सत्ता कायम करना है। इस मकसद को हासिल करने के लिये इस्लामी इस्लामी उग्रवादी संगठन पाकिस्तान का साथ दे रहे हैं।

पाकिस्तान करजई को ये संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि अगर वे इस्लामी उग्रवादियों को सत्ता में भागीदार बना लेते हैं तो अमेरिकी वापसी के बाद भी अफगान के राजनैतिक जीवन में करजई का वजूद बना रहेगा। करजई ने कभी भी पाकिस्तान पर भरोसा नहीं किया है लेकिन उनको अहसास है कि अमेरिकी वापसी के उपरांत वे तालिबान से टक्कर नहीं ले सकते । पाकिस्तान ने इस रणनीति के पहले चरण में एक इस्लामी उग्रवादी हक्कानी के गुट को सत्ता में भागीदार बनाने का प्रस्ताव दिया है। हक्कानी वे शख्स हैं जिन्होंने आईएसआई की मदद से अफगानिस्तान में कई भारतीय ठिकानों पर आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया था। पाकिस्तान की रणनीति यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि मौका मिलने पर वे तालिबानी नेता मुल्ला उमर और कट्टरपंथी नेता हिकमतयार को भी सत्ता में घुसाने की कोशिश करेंगे। पाकिस्तान काफी समय से ‘उदार’ तालिबान की भी बातें करता रहा है और यह तर्क देता है कि अफगानिस्तान में तालिबान के बिना कोई स्थायित्व लाना संभव नहीं है। यहां चौंकाने वाली बात ये है कि सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी पाकिस्तान के साथ इस मैदान में कूद पड़े हैं और करजई को ‘मध्यस्थ’ की भूमिका अदा करने की सलाह दे रहे हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विश्वभर में यही वो तीन देश थे जिन्होंने 1996 में तालिबानी सत्ता को विश्व भर में मान्यता दी थी।

यह घटनाक्रम अमेरिकी लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है लेकिन विडंबना यह है कि अमेरिकी की वापसी की स्थिति में और विकल्प भी क्या है ? इस बीच पाकिस्तान ने अमेरिकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए चीन के साथ नाभिकीय समझौता किया है जिसके तहत चीन पाकिस्तान में दो नाभिकीय संयंत्र लगाने जा रहा है। यह इसलिये अधिक चिंताजनक है कि दुनिया में पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है जिसका नाभिकीय प्रोद्योगिकी के प्रसार में बेहद खराब रिकॉर्ड रहा है और यही एक ऐसा देश है जिसे लेकर शंका पैदा होती है कि पता नहीं कब और कैसे इसकी नाभिकीय प्रोद्योगिकी ऐसे गुटों के हाथ ना चले जाये जो दुनिया में विनाश फैला सकते हैं।

अफगानिस्तान में केवल पाकिस्तान और अमेरिका के हित ही दांव पर नहीं लगे हैं बल्कि भारत-ईरान और रूस भी अफगानिस्तान में इस्लामी उग्रवादी सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकते। ये तीनों देश तालिबान के खिलाफ उत्तरी गठजोड़ को समर्थन देते रहे हैं जिसमें ताजिकों का वर्चस्व है। अफगानिस्तान में ताजिक और पख्तून दो प्रभावशाली जातीय समुदाय हैं जिनके बीच सत्ता के नियंत्रण को लेकर हमेशा टकराव रहा है। उत्तरी गठजोड़ काबुल में ऐसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा जिसमें पख्तूनों का दबदबा हो। अमेरिका में इन तीनों देशों को अफगान समस्या से अलग थलग रखा। लेकिन आज एक ऐसी परिस्थिति पैदा होती हो रही है जिसमें उत्तरी अफगानी गठजोड़ भारत-रूस और ईरान की मदद से पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के खिलाफ नया संघर्ष छेड़ सकता है।

भारत ने अफगानिस्तान में करजई सरकार के सत्तासीन होने के बाद 1.3 अरब डॉलर की मदद दी और अफगानिस्तान में सड़कों, पुलों, बिजली, अस्पताल और स्कूलों का निर्माण किया। भारत के इन प्रयासों को विफल करने के लिये ही आईएसआई ने हक्कानी गुट की मदद से भारतीय ठिकानों पर हमले कराये। पाकिस्तानी रणनीति के तहत अफगानिस्तान में कोई भी राजनीतिक समाधान तभी हो सकता है जब वहां ऐसी कोई सत्ता कायम हो जिस पर इस्लामी कट्टपंथियों का नियंत्रण हो। ऐसे में इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने और नौ सालों तक अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ने के अमेरिकी लक्ष्यों की नियति क्या होगी ? अमेरिका 2011 के बाद अमेरिका अफगानिस्तान में इसलिए नहीं रह सकता क्योंकि नौ सालों में जो हासिल नहीं किया जा सका उसको आगे भी हासिल नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर अफगानिस्तान में पाकिस्तान का लक्ष्य पूरा होता है तो निश्चय ही भारत रूस और ईरान को यह मंजूर नहीं होगा और जाहिर है इस तरह की सत्ता को अमेरिका का भी समर्थन हासिल नहीं होगा। इस परिदृश्य में बलूचिस्तान में भारत के प्रभाव और उजबेकिस्तान में भारत के वायुसैनिक अड्डे से पाकिस्तान विचलित है।

पाकिस्तान की रणनीति अफगानिस्तान में एक नया युद्द का शुरु करेगी और यह एक ऐसा युद्द होगा जिससे लड़ने के लिए जर्जर और अस्थिर पाकिस्तान के पास कोई दमखम नहीं है। इस पाकिस्तानी रणनीति का संचालन का सैनिक प्रतिष्टान के हाथ में है और भारत विरोधी उन्माद से ग्रसित पाकिस्तानी सेना एक बार फिर पाकिस्तान को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इस भावी अफगान टकराव के दूरगामी परिणाम होंगे और इसकी सबसे अधिक तपिश अफगानी लोगों को झलनी पड़ेगी जो पिछले तीन दशकों से युद्द की आग में झुलस रहे हैं।

एक नए,एक अलग शीत युद्ध की दस्तक

सुभाष धूलिया
इतिहास में आज तक विश्व के सत्ता समीकरण कभी भी शांतिपूर्वक नहीं बदले हैं। एक बड़ी आर्थिक और सैनिक शक्ति के रूप में चीन का उदय से भी विश्व के सत्ता समीकरण डगमगा रहे हैं और अमेरिकी प्रभुत्व के लिए चुनौती उभर रही है । चीन की इस बढ़ती ताकत पर अंकुश लगाने के लिए अमेरिका ने आक्रामक रुख अपना लिया है। अमेरिका और चीन के बीच उभर रहे आर्थिक संघर्ष और सैनिक टकराव से कारण दुनिया पर एक नए शीत युद्ध के बदल मंडरा रहे हैं।
अमेरिका और सोवियत संध के बीच पहला शीत युद्ध दुनिया के अनेक सामरिक ठिकानों और सागर महासागर के मार्गों पर प्रभुत्व कायम करने के लिये लड़ा गया। शीत युद्ध के दौरान वास्तविक युद्ध इसलिये कभी नहीं हो पाया क्योंकि सोवियत संघ और अमेरिका की सैनिक ताकत लगभग बराबर थी। पारस्परिक विनाश के डर शीत युद्ध कभी प्रत्यक्ष युद्ध में नहीं बदला। इस शीत युद्ध का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि अमेरिका की आर्थिक और सैनिक ताकत अब भी चीन से कहीं अधिक है लेकिन विनाश करने वाली ताकत के मामले में चीन को कम भी कम कर नहीं आँका जा सकता ।
आर्थिक ताकत के मामले में हाल ही में चीन जापान को पीछे छोड़ दिया है और अमेरिका के बाद यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन गया है। चीन की आर्थिक वृद्धि पर अगर इसी तरह बढ़त बनी रही तो अगले 20 साल में वह अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा। चीन के इस उभर के सामानांतर अमेरिका की आर्थिक ताकत में लगातार ह्रास हो रहा और दुनिया पर प्रभुत्व कायम रखने लिए अधिकाधिक सैनिक ताकत का सहारा ले रहा है। पिछले 20 सालों में अमेरिका दुनिया को यह संदेश दे चुका है कि उसके प्रभुत्व को ललकारने वाली किसी भी चुनौती को कुचलने के लिए वह सैनिक ताकत का प्रयोग करने से नहीं हिचकिचायेगा।
इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण के पीछे आतंकवाद से कहीं अधिक विश्व पर प्रभुत्व कायम करने की व्यापक रणनीति रही है। इराक पर नियंत्रण के बाद तेल संसाधनों से संपन्न मध्य-पूर्व में अमेरिका को चुनौती देने वाला कोई नही है और ईरान से उपजने वाला प्रतिरोध को कुचलने के लिए अमेरिका कमर कसे हुए है। अफगानिस्तान पर नियंत्रण के बाद अमेरिका को मध्य- एशिया पर प्रभुत्व कायम करने के लिये एक अहम सामरिक ठिकाना मिल गया है। मौजूदा परिस्थियों में पाकिस्तान के लिए भी अमेरिका के चंगुल से निकलना आसान नहीं है ।
चीन की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए अमेरिका ने घेराबंदी शुरु कर दी है। अमेरिका दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के साथ ही मध्य पूर्व में भी चीन के दरवाजे लगभग बंद कर दिये हैं। चीन से लगे पूर्व और दक्षिण एशिया में भी अमेरिका ने अपनी मजबूत सैनिक उपस्थिति कायम कर ली है। दक्षिण चीन सागर अमेरिका और चीन के बीच टकराव का सबसे बडा केन्द्र बना हुआ है। इस सागर का समुद्री मार्ग ही चीन को बाकी दुनिया से जोड़ता है और इसके आर्थिक जीवन की धुरी है। चीन इस सागर को अपना प्रभाव क्षेत्र मानता है और यहां अमेरिका या किसी भी दूसरी ताकत की सैनिक उपस्थिति का विरोधी है।
हाल ही में अमेरिकी हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि दक्षिणी चीन सागर सभी के लिए समान रूप से खुला होना चाहिये तो चीन के विदेश मंत्री ने इस बयान को चीन पर हमले के समान ठहराया। इस सागर को लेकर चीन और वियतनाम के बीच विवाद है और अमेरिका ने वियतनाम के साथ समारिक गठजोड़ कायम कर लिया है और वियतनाम को नाभिकीय प्रोद्योगिकी देने पर भी बातचीत चल रही है। दक्षिणी चीन सागर पर प्रभुत्व कायम करने की अमेरिकी रणनीति में वियतनाम की अहम भूमिका हो सकती है इसी वजह से वियतनाम के प्रति चीन ने आक्रमक रुख अपना लिया है। अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया,जापान,सिंगापुर,दक्षिण कोरिया और वियतानाम के साथ सामरिक गठजोड़ कायम कर चीन को घेर लिया है। भारत पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी अमेरिका ने अलग-अलग तरह के सामरिक रिश्ते कायम कर लिये हैं। यहां तक कि चीन की इस घेराबंदी को लेकर रूस भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका का ही साथ दे रहा है। इस घेराबंदी से अमेरिका ऐसी स्थिति में आ गया है की कभी भी किसी विवाद की स्थिति में वह चीन की अर्थव्यवस्था का गला घोंट सकता है और बार बार आ रही आर्थिक मंदी से इस तरह के हालत पैदा हो सकतें हैं।
इस पृष्ठभूमि में लगता है कि एक बार फिर उसी तरह के हालात पैदा हो रहे हैं जिनके परिणामस्वरुप दुनिया में दो विश्व युद्ध लड़े गये। दुनिया के बाजारों,आर्थिक संसाधनों और सामरिक ठिकानों को लेकर जब-जब स्थापित महाशक्तियों को उभरती शक्तियों से चुनौती मिली तो इसका परिणाम युद्ध के रूप में ही सामने आया। तीस के दशक की महामंदी दूसरे विश्व युद्ध का एक बहुत बड़ा कारण थी। आज फिर आर्थिक मंदियों के आने-जाने का सिलसिला कायम हो गया है और हर मंदी के बाद नये आर्थिक टकराव पैदा हो रहे हैं। नये परिदृश्य में चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध भी तेज हो रहा है और अमेरिका अपनी अनेक आर्थिक समस्यायों के लिए चीन को उत्तरदायी ठहरा रहा है। दूसरी ओर चीन अर्थव्यवस्था का लगातार विस्तार हो रहा है और इस बढ़ती अर्थव्यवस्था को बाजारों और आर्थिक संसाधानों की जरुरत होगी। चीन पहले ही अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का ऊर्जा का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है।

इस तरह की परिस्थितियों में पिछली सदी ने विश्व युद्धों को जन्म दिया। कुछ हलकों में आशंका है कि दुनिया एक बार फिर नए टकराव अग्रसर है लेकिन इक्कीसवीं सदी की विश्व व्यवस्था में अभी तक कोई स्थायित्व नहीं आया है और जहां चीन की आर्थिक वृद्धि किसी मजबूत आर्थिक धरातल पर खड़ी नहीं है वहीं अमेरिकी प्रभुत्व की जमीन भी ऊबड़खाबड़ है। इसलिये मौजूदा हालातों में इस टकराव की हार-जीत का गणित और हार-जीत के अर्थ काफी जटिल और कठिन है।

Thursday 14 January 2010

युद्ध से नहीं पनपता लोकतंत्र

सुभाष धूलिया

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस्लामी दुनिया का दिल जीतने के लिए नई पहल के साथ अपनी पारी की शुरुआत की थी लेकिन अभी हाल ही में उन्होंने कहा है कि ‘हिंसक उग्रवाद’ के खिलाफ अमेरिका का संघर्ष केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसके तत्काल बाद यमन में एक अमेरिकी विमान को उड़ाने के विफल प्रयास के बाद अमेरिका ने यमन के तथाकथित अलकायदा के ठिकानों पर हवाई हमले किए जिनमें अनेक निर्दोष लोग मारे गए। 9/11 के आतंकवादी हमलों के उपरांत अमेरिका ने ‘आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध’ छेड़ने की घोषणा की थी अब यह ‘हिंसक उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष’ के रूप में पारिभाषित हो चुका है। लेकिन धरातल की वास्तविकता तो यही है कि यह संघर्ष इस्लामी दुनिया में एक बड़े युद्ध या कई युद्धों का रूप धारण करता चला जा रहा है।

अमेरिकी हमले सउदी अरब की सीमा से लगे यमन के शिया बहुल प्रांत में किए गए। इसके साथ ही यमन की अमेरिकीपरस्त तानाशाही सरकार ने भी अल कायदा के गढ़ों को ध्वस्त करने के लिए सैनिक अभियान छेड़ दिया है। इस अभियान में सउदी अरब की अमेरिकी पिठ्ठू सामंती सत्ता ने भी इस प्रांत में सैनिक कार्रवाईयां की हैं। मिस्त्र भी इस टकराव में कूद पड़ा है और सऊदी अरब के साथ इसने भी यमन में इस इस्लामी उग्रवाद के लिए ईरान को दोषी ठहराया है।

इस दृष्टि से ये घटनाक्रम एक छोटे से देश यमन के एक प्रांत में सैनिक कार्रवाई तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि एक ओर अमेरिका और उसके समर्थक स्वयं यमन सरकार, सऊदी अरब और मिस्त्र और दूसरी ओर विरोधी ईरान भी इस टकराव से संबंद्ध हो गए हैं। यमन पर अमेरिका के हवाई हमले ऐसे समय में हुए हैं जब अफगानिस्तान में अमेरिका ने 30 हजार और सैनिक तैनात कर दिये हैं और पाकिस्तान की अफगानिस्तान से लगी सीमा पर विशेष दस्तों की गुप्त कार्रवाईयों के अलावा चालकविहीन विमान (ड्रोन) के हमले भी तेज हो गए हैं।

एक ओर तो अफगानिस्तान की स्थिति संभाले नहीं संभल रही है और दूसरी ओर पाकिस्तान पर बढ़ रहे हमलो से पाकिस्तान के भीतर भी नाजुक स्थिति पैदा हो रही है। साथ ही अमेरिका ने पाकिस्तान ने इस समय एक नई तरह की सैनिक उपस्थिति कायम कर ली है और अपने प्रतिष्टठानों की सुरक्षा के नाम पर एक निजी सुरक्षा एजेंसी ‘ब्लैकवाटर’ के दस्ते भी तैयार कर लिए हैं। दरअसल ब्लैकवाटर अमेरिकी की एक ऐसी निजी सुरक्षा एजेंसी है जिसे अमेरिकी सुरक्षातंत्र के अत्यंत प्रशिक्षित सेनानिवृत सुरक्षाकर्मी चलाते हैं। इसकी सैनिक और खुफिया क्षमता अमेरिकी एजेंसियों से किसी भी मायने में कम नहीं है। इराक और कई अन्य देशों में हिंसक कार्रवाईयों के लिए ये संस्था पहले ही काफी बदनाम हो चुकी है। अमेरिका ने इस एजेंसी के दस्तों को समय-समय पर ऐसे दशों में तैनात किया जिनमें अमेरिका प्रत्यक्ष रूप से युद्द में शामिल नहीं हो या किन्हीं अन्य कारणों से अमेरिकी सैनिकों की तैनाती का मसला संवेदनशील रहा है- पाकिस्तान भी इस श्रेणी के देशों में आता है। पाकिस्तान का सत्तातंत्र पहले ही ही अस्त-व्यस्त है और ऐसे में अमेरिका की इन कार्रवाईयों से इस पर संकट के नए बादल मंडरा रहे हैं।

पाकिस्तान में ऐसे समय में सत्ता के अनेक केन्द्र पैदा हो गए हैं जब इसे एक केन्द्रीकृत मजबूत सरकार की सबसे अधिक जरूरत है। राष्ट्रपति जरदारी के बारे में आम धारणा यह है कि वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए अमेरिका को रिझाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि पाकिस्तान के सुरक्षातंत्र को एक तरह से अमेरिका के हवाले कर दिया है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान को अमेरिका से मिल रही अरबों डॉलर की मदद में एक शर्त यह भी है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाकिस्तानी सेना को यह प्रमाणपत्र देना होगा कि वे आतंकवाद के खिलाफ मजबूती से लड़ रहे हैं। अमेरिकी की इन तमाम तरह की दखल से अमेरिक –विरोधी रुझान प्रबल हो रहे हैं। ऐसे में पाकिस्तानी सत्ता के लोकप्रिय समर्थन में भारी ह्रास हो रहा है और इससे ‘सीमित पाकिस्तानी लोकतंत्र’ का भविष्य खतरे में पड़ता नजर आ रहा है।

अब ‘हिसंक उग्रावाद’ के खिलाफ अमेरिकी संघर्ष युद्ध इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि यमन तक इसका विस्तार हो गया है और सउदी अरब और मिस्त्र भी इसमें कूद पड़े हैं। ईरान पहले ही अमेरिका के निशाने पर है और तमाम संकेत यही हैं कि ईरान नाभिकीय प्रोद्योगिकी विकसित करने के अपने कार्यक्रम से पीछ नहीं हटेगा और ऐसे में ईरान पर अमेरिकी-इजराइल हमला निश्चित सा जान पड़ता है। ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त किया जा सकता है और ऐसा नहीं भी होता और यह चन्द नाभिकीय हथियार विकसित भी कर लेता है तो भी इससे कहीं अधिक चिंता का विषय पाकिस्तान है जिसके पास अपेक्षातया कहीं बड़ा नाभिकीय हथियारों का जखीरा है। ईरान के अलावा अल्जीरिया, सूडान, सीरिया और सोमालिया अमेरिका के हिट लिस्ट में शामिल हैं।

इराक पर अमेरिका ने ‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता’ के नाम पर हमला किया था और तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन पर नव-अनुदारवादी इस कदर हावी थे कि उन्होंने सैनिक अभियान के बल पर इस्लामी दुनिया को ‘आधुनिक और लोकतांत्रिक’ बनाने का बीड़ा उठा लिया। इस अभियान में अमेरिका को उन सैनिक हितों औऱ आर्थिक हितों का भी पूरा समर्थन मिला जो इस क्षेत्र के तेल संसाधनों पर नियंत्रण कायम करना चाहते थे। लेकिन आज स्थिति यह है कि लोकतंत्र तो दूर की बात रही इराक और अफगानिस्तान तो एक देश के रूप में भी विखंडित हो चुके हैं।आज पाकिस्तान के लोकतंत्र का भविष्य भी अंधकारमय है। अमेरिका के सहयोगी यमन और सउदी अरब में सामंती तानाशाहियां राज करती हैं। दुनिया के इस भूभाग में लोकतंत्र का अकाल है और इस कारण अमेरिकी समर्थक और विरोधी दोनों ही श्रेणी के देशों में धार्मिक उग्रवाद का सामाजिक और राजनीतिक आधार विस्तृत हो रहा है। अमेरिका के सैनिक अभियान से रही-सही उदार लोकतांत्रिक और राजनीतिक धाराएं भी तबाह हो रही हैं। ‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता’ का अमेरिकी अभियान विजय की दिशाहीन खोज में बर्बर तानाशाही सत्ताओं पर ही निर्भर होता चला जा रहा है।