Wednesday 23 December 2009

मीडिया : व्यापार और साख के बीच

सुभाष धूलिया

भारतीय अर्थव्वस्था में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से बढ़ रहे सेक्टरों में से एक है। एक अध्ययन के अनुसार यह उद्योग 18 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और सन 2011 तक यह 1 हजार अरब रुपये का विशालकाय रूप धारण कर लेगा। देश में अखबारों के करीब 25 करोड़ पाठक हैं। इसके अलावा 35 करोड़ ऐसे लोग हैं जो पढ़ना-लिखना जानते हैं लेकिन अभी कोई पत्र-पत्रिकाएं नहीं पढ़ते। देश की आधे से ज्यादा आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है और मीडिया के लिए एक बड़ा संभावित बाजार है इससे जाहिर है कि देश में प्रिंट मीडिया के विस्तार की कितनी संभावनाएं मौजूद हैं। देश के 11 करोड़ घरों में टेलीविजन सेट हैं और इनमें से 65 प्रतिशत केबल सेटेलाइट से जुड़े हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि करीब 50 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं। रेडियो की पहुंच लगभग पूरे देश में हैं। नयी प्रोद्योगिकियों के आने से इंटरनेट और मोबाइल में पसर रही क्रांति से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों में भारतीय मीडिया उद्योग कैसा रूप धारण कर लेगा।

इस वक्त भारत का 30 करोड़ का मध्यमवर्ग है जिसके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और मीडिया समेत सभी तरह के उत्पादों का एक बड़ा बाजार है। इस मध्यमवर्ग का लगातार विस्तार हो रहा है और जल्द ही यह यूरोपीय यूनियन से भी कहीं बड़ा बाजार बनने जा रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा वृद्धि दर अगर जारी रही तो कुछ वर्षों में ही भारत अमेरिका और चीन के बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी। (लेकिन यहां ये भी उल्लेख करना भी आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि और समूचे समाज के विकास में अंतर है, इस नयी अर्थव्यवस्था में करोड़ों लोग ‘बाजार’ से बाहर ही नहीं होंगे बल्कि नयी अर्थव्यवस्था में इनकी कोई उपयोगिता नहीं होगी)


भारतीय अर्थव्यवस्था, मीडिया और मनोरंजन उद्योग और बाजार में इस तरह की वृद्धि और विस्तार के साथ ही देश के राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में इसके दखल और प्रभाव भी निरंतर गहरा और व्यापक होता जा रहा है। मीडिया के इस उद्योग में समाचार पत्र, रेडियो से लेकर सिनेमा संगीत और वीडियो गेमिंग जैसे नए उत्पाद भी आते हैं। इस उद्योग के मौटे तौर पर समाचार और मनोरंजन की दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। सामाचार सेक्टर का हिस्सा मात्र 8 प्रतिशत होने के बावजूद भी यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है वहीं मनोरंजन का प्रभाव समाज और संस्कृति पर अधिक होता है। लेकिन मीडिया एक वैचारिक और सांस्कृतिक उद्योग भी है और इस रूप में मीडिया का हर उत्पाद राजनीति, अर्थशास्त्र और संस्कृति का एक संपूर्ण पैकेज होता है।

इस संदर्भ में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की 2008-09 की वार्षिक रिपोर्ट के ये आंकड़े भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि देश के 394 पंजीकृत टेलीविजन चैनलों में 211 समाचार चैनल हैं। सन 2000 में ही निजी क्षेत्र में टेलीविजन का प्रवेश हुआ था लेकिन 9 वर्षों में ही इसने विशाल रूप घारण कर लिया है और राष्ट्रीय जीवन में एक अहम भूमिका अख्तियार कर ली है। आज भी सरकार के पास नए चैनलों के जितने भी आवेदन पत्र विचाराधीन हैं उनमें अधिकांश समाचर चैनलों के ही आवेदन है। मीडिया के स्वामित्व में भी परिवर्तन आ रहे हैं। परंपरागत उद्योगपतियों के अलावा हाल ही में मालामाल हुए उद्यमियों का समूह भी है जो विभिन्न कारणों से माडिया में प्रवेश कर रहे हैं भले ही ये उनके लिए घाटे का सौदा क्यों ना हो। इस घाटे की भरपाई वे अपने अन्य व्यापार से पैदा होने वाले मुनाफे से पैदा करते हैं।

इसके समानांतर मीडिया के परंपरागत चरित्र और स्वरूप में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। मीडिया सार्वजनिक हित के बजाय एक लाभकारी उद्योग बन रहा है जिसमें समाचार पेप्सी-कोक तरह उपभोग की वस्तु बन रहा है जिसका मकसद उपभोक्ताओं को आकृष्ट करना है। इसी कारण मीडिया में एक ऐसी होड़ मची हुई है जो किसी भी कीमत पर नयी अर्थव्यवस्था से जन्मे उपभोक्ता को जीतना चाहती है। नब्बे के दशक में शुरु किए गये नवउदारवादी सुधारों के उपरांत मीडिया ऐसा उद्यम बन गया है जिसका मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना है और जो समाजिक सरोकारों से दूर होता जा रहा है।

इसके अलावा मीडिया के स्वामित्व का भी केन्द्रीकरण हो रहा है और इसकी अन्तर्वस्तु की विविधता संकुचित होती जा रही है। राजधानी दिल्ली का ही उदाहरण लें तो 15-20 वर्ष पहले यहां अनेक दैनिक अखबार थे जो हमारे राष्ट्रीय जीवन के विविध परिपेक्ष्य का प्रितिनिधित्व करते थे- टाइम्स ऑफ इंडिया मध्यमार्गी माना जाता था, हिन्दुस्तान टाइम्स सरकार समर्थक था तो इंडियन एक्सप्रेस के सरकार विरोधी तेवर हुआ करते थे। स्टेट्समेन एक दक्षिणपंथी अखबार था तो पैट्रियॉट वामपंथी रुझान रखता था। मदरलैंड जनसंघ की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता था तो नेशनल हेराल्ड क्रांग्रेस का प्रवक्ता था। लेकिन आज दिल्ली की मीडिया में ये विविधता खत्म हो गयी है और टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स का आधिपत्य कायम हो गया है। इन दोनों ही अखबारों के संपादकीय अन्तर्वस्तु में कोई बुनायीदी अंतर नहीं है और इनकी होड़ बाजार हड़पने तक ही सीमित है। इसके साथ ही आलोचनात्मक और गंभीर राजनीतिक पत्रकारिता हाशिये पर चली गयी है। आज मीडिया राष्ट्र और समाज के सामने एक दिन में समान रूप से 4-5 ऐसी घटनाओं को प्रस्तुत नहीं करता जिससे राष्ट्र और समाज का ऐजेंडा तय हो। कई बार आम लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी घटनाएं महत्वपूर्ण हैं और कौन सी नहीं। परंपरागत रूप से एक संपादक, एक पत्रकार लोगों की प्राथमिकताओ को भी तय करता था और इस तरह राजनीति को प्रभावित करने और सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त करने में अहम भूमिका निभाता था।

आज के परिदृश्य में एक अन्य रूप में भी मीडिया शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है और 10-15 वर्ष पहले का स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया का ढांचा भी ध्वस्त हो गया है। ‘क्षेत्रीय’ ने ‘स्थानीय’ को हड़प लिया है, ‘राष्ट्रीय’ ‘क्षेत्रीय’ में प्रवेश कर रहा है तो ‘क्षेत्रीय’ ने ‘राष्ट्रीय’ मीडिया में घुसपैठ शुरु कर दी है। चंद बड़े संस्थान बाजार के बहुत बड़े हिस्से को नियंत्रित करते हैं। इस प्रक्रिया के जारी रहने से मीडिया का निगमीकरण हो जाएगा और उद्योग, व्यापार और मीडिया के बीच की अंतररेखा विलुप्त हो जाएगी। यह रुझान इस बात से भी स्पष्ट होता है कि मुनाफा कमाने और बाज़ार कि हडपने के लिए किस तरह समाचार के मूल स्वभाव से से भटकाव पैदा हो रहा है और तथ्य और कल्पना का का विचारहीन मसाला पेश किया जा रहा है


मीडिया के स्वामित्व के केन्द्रीयकरण और अंतर्वस्तु के संकुचित होने के बाद लोगों को बड़ी मात्रा में समाचार और सूचना उपलब्ध हैं और यह दावा किया जाता है कि मुक्त अर्थव्यवस्था में लोगों के पास विकल्पों की भरमार है। लेकिन वास्तविक रूप से लोगों के विकल्प बहुत सीमित हो गये हैं और हर समाचार संगठन लगभग एक ही तरह के उत्पाद प्रस्तुत कर रहा है। टेलीविजन के क्षेत्र के बारे में तो यह कहा जा सकता है कि यह बाजार विरोधी है जहां हर दुकान एक ही ऐसा उत्पाद बेचा जा रहा है जिसमें सबसे अधिक मुनाफा कमाने की क्षमता हो।

मीडिया के स्वामित्व और अंतर्वस्तु में इन नकारात्मक रुझानों के समानांतर मीडिया की ताकत बढ़ती जा रहा है और लोकतांत्रिक विमर्श अधिकाधिक मीडिया पर निर्भर होता जा रहा है। राजनीतिक प्रचार का स्वरूप बदल गया है- अब घर-घर जाकर पहले जैसा प्रचार नहीं होता और ऐसी रैलियां भी नहीं होती कि नेताओ को सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़े। अब सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित किया जाता है कि किसी भी राजनीतिक गतिविधि के लिए कितना माडिया कवरेज किया जाए और इस कवरेज के लिए प्रबंधन की नयी तकनीकें विकसित हो गयी है। नेताओं की ऐसी जमात पैदा हो गयी है जो लोगों से जुड़ने के बजाय टेलीविजन के पर्दे पर परफॉर्म करने में ही अधिक दक्ष है। बुनियादी मुद्दों पर गंभीर राजनीतिक विमर्श की बजाय तू-तू मै-मैं का शोर ही अधिक रहता है। व्यापारिक होड़ में फंसे मीडिया को भी यही रास आता है और आज सूचना के मनोरंजनीकरण के बाद राजनीति का भी मनोरंजनीकरण हो रहा है। राजनीति के मनोरंजन के क्षेत्र में प्रवेश करने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने की मीडिया की भूमिका में भारी ह्रास हुआ है। आज का मीडिया राजनीतिक जीवन का सतहीकरण कर रहा है और राजनीतिक जीवन में पनप रहे नकारात्मक रुझानों पर अंकुश लगाने की अपनी परंपरागत भूमिका से दूर हो रहा है। दूसरी ओर समाचारों के मूल स्वभाव से भी छेड़छाड़ की जा रही है जिसकी वजह से कई समाचारीय घटनाएं समाचार नहीं बनती और अनेक गैर समाचारीय घटनाएं बड़ी घटनाओं के तौर पर पेश की जाती है। इस प्रक्रिया के कारण लोग अनेक उन बड़ी घटनाओं से अवगत नहीं होते जिनका संबंध उनके जीवन से होता है।

मीडिया के व्यापारीकरण का ऐसा दौर पश्चिम के विकसित देशों में भी आया लेकिन यह तब हुआ जब पूरा समाज ही विकसित होकर मध्यमवर्ग में तब्दील हो चुका था। मध्यमवर्ग के पास इतना बौद्धिक कौशल होता है कि वह ऐसे समाचारों को स्वीकार नहीं करता जिनका वैज्ञानिक आधार न हो और जो अंधविश्वास पर टिके हों। भारत जैसे विकासशील समाज में स्थिति भिन्न है। इस तरह के समाचारों के नकारात्मक परिणामों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि कुछ समय पहले मध्यप्रदेश में एक अनजाने ज्योतिषि ने अपनी जन्मपत्री के आधार पर किसी एक दिन 4 बजे अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी की थी। दो टेलीविजन चैनल इस ‘मृत्यु’ को लाइव प्रसारित कर रहे थे लेकिन ज्योतिषि की भविष्यवाणी सही नहीं निकली। यह घटना इसलिए महत्वपूर्ण और गंभीर है कि अगर करोडों में एक प्रतिशत भी संभावना के चलते ज्योतिषि की 4 बजे मौत हो जाती तो इस देश के एक बड़े सामाजिक तबके की वैज्ञानिक सोच कई दशक पीछे चली गई होती। हिंदी सिनेमा लोकप्रिय भावनाओं को पकड़कर बोक्स ऑफिस हिट होने के लिए जाना जाता है. हाल ही की एक मूवी "पा" में जिस तरह समाचार मीडिया को निशाना बनाकर आम लोगों की भावना को पकड़ने की कोशिश की गयी है, इसके भी गहन विश्लेषण की जरुरत है कि न्यूज़ मीडिया किधर जा रहा है ? यह सवाल भी उठता है कि क्या आज न्यूज़ मीडिया कॉर्पोरेट पॉवर का एक अंग भर बनाकर नहीं रह गया है जिसमें पत्रकार की भूमिका बहुत कम रह गयी है ?


आज का मीडिया अधिकाधिक उस सामाजिक तबके पर केन्द्रित है जिसके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और 5 हजार करोड़ के विज्ञापन का मुख्य लक्ष्य है। यही वह तबका है जो उपभोक्तावाद की गिरफ्त में है और नए-नए उत्पादों पर टूट रहा है। इन रुझानों के कारण मीडिया के साथ साख और विश्वसनीयता पर संकट के गहरे बादल मंडरा रहे हैं। एक उपभोक्ता मीडिया उत्पादों का भले ही कितना भी उपभोग क्यों ना करे लेकिन मीडिया को लेकर इसी के अंदर का नागरिक विचलित है, आक्रोश में है। इससे एक जटिल परिस्थिति पैदा हो रही है-एक ऐसा मीडिया जिस पर लोकतांत्रिक विमर्श अधिकाधिक निर्भर होता चला जा रहा है वही मीडिया अपनी साख और विश्वसनीयता को खो रहा है। ऐसे में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में मीडिया की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल पैदा हो रहे हैं।

मीडिया और समाज के बीच एक खाई पैदा हो गयी है। व्यापारीकृत मीडिया काफी हद तक समाज का प्रतिबिंब नहीं रह गया है बल्कि समाज को प्रभावित करने की इसकी क्षमता संकीर्ण होती जा रही है। देश के राजनीतिक जीवन में पनप रही विकृतियों के प्रति मीडिया उदासीन दिखाई पड़ता है। एक ओर विज्ञापन उद्योग, मीडिया और उपभोक्ता के पारस्परिक संबंध इस विकासशील समाज में अभी पारिभाषित ही हो रहे हैं तो दूसरी ओर भारतीय समाज, लोकतंत्र और मीडिया के बीच के संबंध एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिनकी कोई स्पष्ट तस्वीर खींचना आज की ताऱीख में संभव नहीं दिखाई देता है।

Tuesday 8 December 2009

The News Reporting

Definition of News

News is a report of any current event, idea or problem which interest large number of people BUT it acquires different meanings and concepts in different political, economic and socio-cultural environment.

What makes news?

1. New information
2. New perspective and Role of News Media
3. How things work, How things are supposed to work; and How things normally work


Structure of a News Story

Intro
Elaboration of intro
Descriptive details
Additional information
Background information

Elements of news
A news report must answer following questions
Who
What
When
Where ----------- generally factual

Why
How ----------------- Element of interpretation is introduced


Newsworthiness

How to decide newsworthiness of an event, idea or problem
(Evaluating information or any other information package)

Audience
Impact
Consequences
Proximity
Timeliness
Prominence (Size)
Context
Policy Parameters
Specific Informational Value
Unusualness


The investigative process

 Story idea
 Formation of story idea
 Formulation of the problem
 Preliminary research feasibility study
 Plan of action-Synopsis


BASE BUILDING: THE SPIRAL OF RESEARCH
(Moving form ‘unknown’ to ‘known’)

• Written sources (sources of information)
• The sources of knowledge experts, Books, research or specialized journals
• Sources of experiences
• Reportage- Field trips- Observations
• Research interviews
• Partisan sources
• Key interviews



Two Major Streams in Journalism

Episodic Journalism: Reporting Event: What was happening

Thematic Journalism: Reporting the process that goes into happening of the event; Explain why it was happening



News Sources

Examples of sources include:

1. official records

2. publications or broadcasts

3. officials in government or business, organizations or corporations

4. witnesses of crime, accidents or other events

5 people involved with or affected by a news event or issue


Reporters are expected to develop and cultivate sources. This applies especially if they regularly cover a specific topic, known as a "beat".

However, beat reporters must be cautious of becoming too close to their sources. Reporters often, but not always, give greater leeway to sources with little experience.

As a rule of thumb, but especially when reporting on controversy, reporters are expected to use multiple sources. Outside journalism, sources are sometimes known as a "news source".


Credibility

Principles to be observed while reporting and event or editing a news report
Accuracy
Fairness
Balance
Attribution
Objectivity


Various types of journalistic writings

The elements that define the journalistic writing :
• Facts
• Analysis and interpretation
• Comments, opinion and views


News item
News report
News analysis
Interpretative reporting
Feature/featured reporting
Interview
Reportage
Reviews (of books, plays, concerts etc.)
Commentary
Article
Editorial
Profile

Interviewing

An interview is a special kind of conversation. It is a conversation between a journalist and a person who has facts or opinions which are likely to be newsworthy.

News involves people. Whatever news story you are researching, there will be a person or some people who know what you need to know, or who have relevant opinions. They will usually be happy to tell you.

Your job is to find these people, and then ask them what you want to know. That is an interview.

An interview takes place when a journalist asks another person questions with the aim of discovering facts, opinions or emotions.

In some respects it is different from an ordinary conversation, which can be haphazard and unstructured.

An interview should have both a structure and a clear purpose. But it should not be so formal that the person being interviewed feels uncomfortable. There is a distinct line between interviewing someone and interrogating them.

The art of conversation – providing moments of reflection, sympathy and humour, for instance – is an important ingredient of a successful interview.

Types of interviews

1. Informational interview
2. Opinion interview
3. Analytical interview
4. Vox Pop
5. Controversial interview
6. Confrontational interview
7. Emotional interview
8. Profile interview etc.

Interview techniques

Open question
Closed question
Loaded question
Leading question
Multiple answer questions
Link question
Devils advocacy
Question tips

Keep your questions short, simple and specific.

Short: The audience wants to hear the interviewee’s answers, not your questions. Don’t attempt to show off your own knowledge or opinions.

Simple: Complicated questions confuse the interviewee as well as the audience.

Specific: Asking a very general question invites the interviewee to ramble on about anything of his or her choosing.



Critical questions for detecting bias

The media applies a narrative structure to ambiguous events in order to create a coherent and causal sense of events

 What is the author's / speaker's socio-political position?

 Does the speaker have anything to gain personally from delivering the message?

 Who is paying for the message? What is the bias of the medium? Who stands to gain?

 What sources does the speaker use, and how credible are they? Does the speaker cite statistics? If so, how and who data gathered the data? Are the data being presented fully?

 How does the speaker present arguments? Is the message one-sided, or does it include alternative points of view?

 If the message includes alternative points of view, how are those views characterized? Does the speaker use positive words and images to describe his/her point of view and negative words and images to describe other points of view?

Kinds of Biases

Commercial bias
Visual bias
Bad news bias
Narrative bias
Status Quo bias
Fairness bias
Glory bias

WHERE DOES NEWS COME FROM?

An idea is an angle about a subject that you believe will interest the readers of your newspaper. Without new ideas the editorial pages would be pretty dull. But where do ideas come from? And how do you find them?

When you are lucky, an idea can sometimes find you. But more often you have to search for ideas. This sounds difficult, but it doesn’t have to be. Every writer has their own way of developing ideas. The longer you work for a particular newspaper, the more attuned you will become to the type of ideas that will interest your readers.

By cultivating an alert mind and training your powers of observation, you will acquire the skill of spotting suitable material. Wherever you are and whatever you are doing, think about every person, every experience and every event in terms of a potential story. Talk to people. Be interested in new subjects. There are feature ideas everywhere. It’s just a case of realising them. When you find them, write them down.

People relate to a wide range of subjects. Many are common to everyone, including relationships and emotional issues, work, money, family, health, education, self-improvement, local and community issues, children, transport…..The list is endless. The only limits are your imagination and your ability to make an idea relevant
Your own eyes and ears

Reporters have a special duty to keep looking for the next story. But everyone who works for a news organisation should be feeding the news machine with stories: things they’ve seen and heard for themselves. The staff are first resource of newsgathering.

The Emergency Services

Newsrooms should have systems in place to make sure they learn quickly about anything of interest, by contacting the emergency services frequently. It is advisable to have a list of the main telephone numbers in a prominent position in the newsroom, and a schedule for calling them.

Contacts

Contacts are the people who provide information to a reporter regularly. They may be official or non-official. Every journalist should keep a list of these people and their contact details – telephone numbers, e-mail, address and so on. They should also try to find out people’s private home and mobile telephone numbers, so they can call them out of hours – or just out of the office, where it may be difficult for the person to speak freely.

Readers, Listeners, Viewers

Encourage your listeners, viewers or readers to call in with potential stories and help them make the news. But always double check any information they provide. They are not journalists and may have misinterpreted an incident.

Eyewitnesses

Ordinary people who see extraordinary things provide a sense of immediacy and a human touch of colour to the facts. However, they may be in a state of shock - and are often unreliable as far as hard facts are concerned.


News Agencies

News agencies are companies which provide news to a number of outlets for a fee. Stories used to be delivered via a telegraph wire to a printer in the newsroom, hence the alternative name wires service.

The Internet


The World Wide Web is an invaluable and unprecedented tool for journalists. Never before have we had so much information at our fingertips.

Search engines are useful in helping you to unearth masses of information on the subject you are researching. And, of course, you can remain instantly up to date on current affairs by using reputable international news sites, such as the BBC.

There is, however, a downside. The internet throws up so much information that it can take valuable hours to sift through the mass of data to find what you need. And not all internet content is reliable. Pick and choose your sites carefully, cross-checking your facts with other information sources when you are in doubt.

In general, however, looking for feature ideas on the internet can be far more convenient than any other method of research. Many newspapers and magazines publish their own websites.

As well as the most familiar aspect of the internet, the world-wide web (WWW), the collection of millions of pages of text, pictures and often sound and video, there are groups discussing thousands of subjects. They are all a potentially rich source of information and contacts. Official web sites – of companies, organisations and government departments – are an excellent source of facts. Unofficial web sites are a great source of gossip and rumour. They are notoriously unreliable.

The Diary

When information is received about events that are happening in the future, this should be written into a diary so that those working on the day are aware of it.

Files

Documents that relate to a future date should be stored in a file until the relevant day. Most newsrooms find it useful to keep a set of folders numbered 1 to 31 for each day of the month, and another set for each month. At the start of each month, the contents are transferred into the day files.

Another file, called the futures folder, can be kept for ideas which are not related to a specific date. When it is quiet, a reporter can look through the folder for ideas that might work up into a story.

Another type of file is the archive or cuttings file, consisting of newspaper cuttings and past scripts relating to ongoing stories and major events. It is a vital reference and a continuing record of events, and itself a source of information.

Further afield

There will surely be a national or international story that you could find a local angle on. This is called ‘localising’ the story.

The Past

You can also revisit one of your major recent stories that has gone a little quiet. What has happened while everyone’s attention was elsewhere?

Other media

Ideas from newspapers

When you read each edition of any newspaper, including your own, ideas for features should leap out at you from almost every page, provided you think laterally and allow your imagination to wander a little.

Let’s start with news stories, which can provide a wealth of feature ideas. Read the news with a feature journalist’s eye. Think about the story and the people who are quoted. Is there a wider issue that needs to be discussed? Is there an interesting personality who emerges from a news story and is worthy of a feature in their own right? Is there an element missing from the news story, one which could be expanded into a feature? And the most important question of all – will your readers be interested in it?

Television and Radio

The world continues to shrink as the internet and satellite broadcasting bring people on different continents in instant contact with information and news reports of events as they unfold.

If your readers have access to television and radio, you should keep a keen eye on the content they are watching. It is forming an additional agenda in their lives, of which the newspaper needs to be aware.

People who appear on TV become popular with your readers. These personalities are useful to interview for features. Television and radio also produce documentaries, which are the elongated versions of newspaper features. Programmes such as these can fuel new ideas.
Other printed material – books and magazines

If books and magazines are sent into your office, make a point of reading them, with a view to finding ideas. If they aren’t, buy them or find them in a library. In addition to books, libraries usually keep copies of national and foreign magazines and newspapers, plus reports and academic journals.

Books can provide ideas because they are likely to have been researched over a long period of time and authors will have dug out interesting stories on a wide variety of issues.

For example, if the history of a shipwreck off the coast of your country had been uncovered in a new book, you could interview the author for a feature. You could also talk to the team of divers who uncovered the secrets of the wreck, and even seek out descendants of any survivors of the disaster.

Magazines may focus on subjects as diverse as economics and politics or fashion and beauty. They might be glossy, national publications or stapled, community-based pamphlet-style magazines. They are useful background reading.

By using lateral-thinking skills, you will find a whole range of ideas to develop and adapt. For example, women all over the world enjoy buying clothes and looking their best. If your newspaper has a feature page which is geared towards fashion and beauty, magazines will help you spot trends to pass on to your readers.

Ideas from newspapers: Advertisements

Although you are more likely to find feature ideas from news stories, there are other sections of a newspaper which will give you inspiration. Reading the advertisements often sparks the imagination.

Here’s an example: You notice that a number of shops are advertising cut-price sales at an unusual time of the year. When you think about it, you wonder whether people are short of cash, causing a down-turn in trade. You telephone a couple of shop managers who confirm that their profits are suffering and that they are trying to boost trade by offering bargains.

Think about what feature ideas you might get from these advertisements and write them down before going onto the next page to see how your ideas match ours.

Contacts

When you have read all your newspapers, magazines and useful websites, listened to the radio and watched TV, yet find yourself still struggling for a good idea, what can you do next? Pick up the telephone and start talking to some real people!

From the outset of their careers every journalist should have established a contacts book or file. Each time you meet someone new, carry out an interview or find out background information, record the details in your book or on your computer file. The file should be organised in an alphabetical system, so that the data is easy to retrieve.

Enter the full name of the contact, their occupation, their home and business addresses and all phone numbers. If the person is not someone whose name you are likely to recall easily, but they have helped you with their expertise on business issues, for instance, cross-reference their entry under ‘business’ too.

Your contacts book should be jealously guarded. People give you their private phone numbers and details because they trust you. Some people lead very private lives and do not want to be pestered by constant phone calls. Don’t leave your book lying around for others to use.

If you treat them courteously, contacts become one of the best sources of new ideas and information because they multiply. You may have 100 contacts and each one of those 100 will have 100. The numbers start to build dramatically.

On days when it is difficult to find inspiration, make a few random calls to people in your book. Ask them what is happening. Are they doing anything new? Have they heard information about anything in general?

This is hugely useful when you write for a specialist feature section, like health, for instance, since your contacts will work and socialise with many hundreds more in that field, giving you the best chance of a scoop.

Ideas File

If budding authors had money for every plot they have thought up for a brilliant novel in the middle of the night, but failed to write down, they might all be rich. It is the same with features.

When an idea occurs to you, write it down that instant. You can be sure you will not remember it if you leave it to chance.

Keep the ideas in one notebook or one computer file, so that you can browse through it from time to time. The idea may not be useful immediately, but something may happen in the future to trigger its use.

Organised journalists will take their ideas file one step further by filing away relevant newspaper and magazine cuttings, press releases, emails and website printouts in folders with each idea.

Chances are that if you get excited by an idea – and so do the people around you – then your readers will too.

PR Departments

Public Relations or Press Relations departments in government organisations and businesses are staffed by people who have a three-way function in life.

These PR departments will set up interviews and supply background information for your features, which is useful and saves you time.

The same staff will also ‘sell’ you a story. They will telephone, email and send you press releases. They will also invite you to events to celebrate the launch of new products or premises, or policies.

It is important to realise when you are simply being sold an advert and when there is a real story worth printing. There is sometimes a fine dividing line between the two. You must decide whether there is a story worthy of public attention or whether it would be giving a product or organisation free publicity by mentioning it. Decide too whether you need to question the basis of the PR department’s story.


Press Releases

Where the information is factual and interesting, press releases can be a useful source of news. However, the content is more usually bland and worthless corporate puffery, dressed up as interesting editorial.

Press Conferences

The journalist should be selective about which conferences are covered and which information is reported. Sometimes they are vital; other times irrelevant.

If it’s boring, leave and go and find a real story.

There are plenty of other things happening in the world!


Summary

Ideas

Ideas are not difficult to conceive if you open your mind to the possibility that they can come from all around you. Be alert and train your powers of observation. Start to question everything that you see. Ask yourself how, what, where, who, when and why? You will start to look at the world in a different light. But when you are thinking of ideas, don’t select only the ones that appeal to you. Writing features is not a self-indulgent pastime. Think of your readers. Are they likely to buy your newspaper to read the feature you are planning?

Newspapers Both your own, and other people’s newspapers are a constant source of features ideas. Read news stories to look for missed or new angles. Read advertisements and look through the What’s On diary of events.

Magazines, books and other publications Read through magazines to spot trends and features that might adapt for a newspaper readership. Books often produce good story angles, particularly if they focus on real-life events.

The Internet The World Wide Web is an invaluable sources of information. But not all of the information contained in it is reliable. When in doubt, cross-check with another source.

TV and Radio Both television and radio are popular worldwide since satellite technology made them more accessible. If your readers are watching TV, it is useful to know what they are likely to view. Features can include interview with personalities from TV or spin-offs from documentary and factual programmes

Contacts There is no better source of ideas that are likely to produce exclusive material than your own contacts. Every journalist should cultivate contacts from the moment they start in the job. Keep a book or a file with the personal details of everyone interesting you meet or interview.

Ideas File The world is full of people who had a brilliant idea in the middle of the night, but forgot to write it down. Organised journalists jot down ideas for features immediately. Even better, they create files, with cuttings from newspapers and magazines, printouts from the internet, emails and other relevant background information.

PR Departments These will try very hard to ‘sell’ you an idea for a feature. The more space they gain for their client, without having to pay advertising charges, the happier the client becomes. Although good PR departments do come up with well-targeted ideas, beware that you are not being duped into carrying advertising material. Remain objective.

Diary Events All newspapers keep a diary in which to record the dates, times and places of future events. These may include visits by government ministers, major criminal trials, protest meetings, sporting events etc. Writers will find it useful to browse through this list, making a note of events that might lend themselves to feature treatment.

आतंक से कैसे लड़ें?

सुभाष धूलिया

पाकिस्तान आज दुनिया के सबसे खतरनाक क्षेत्र के रुप में उभर चुका है। नाभिकीय हथियारों से लैस यह देश भीतर और बाहर हर तरफ संकट से घिरा है और यहाँ हर घटनाक्रम भारत को गंभीर रुप से प्रभावित करता है। भारत का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा से कहता रहा है कि एक स्थिर और संपन्न पाकिस्तान ही भारत के हित में है। लेकिन आज पाकिस्तान राष्ट्र का भटकाव गहरे से गहरा होता चला गया है तो इस बदलते घटनाक्रम को संबोधित करने में भारतीय विदेश नीति, एक कदम आगे रहने की बजाय एक कदम पीछे, रहती ही अधिक प्रतीत हो रही है।

मुंबई पर आतंकवादी हमलों के उपरांत पाकिस्तान अलग-थलग सा पड़ गया था और इसे अपने आप को पाक-साफ करार देने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था। आज इन आतंकवादी हमलों को महज 11 महीने बीते हैं लेकिन पाकिस्तान ने आक्रमक रुख अपना लिया है। पाकिस्तान उल्टे भारत पर आतंकवाद भड़काने का आरोप लगा रहा हैं। भारत ने इस दौरान दवाब की कूटनीति का सहारा लिया और पाकिस्तान के साथ कोई वार्ता करने से इंकार कर दिया और पाकिस्तान से आतंकवाद से लड़ने में सच्चाई और इमानदारी का परिचय देने को कहा।

निश्चय ही भारत ने कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के काऱण बहुत जख्म झेले हैं। लेकिन आज इस बात का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के भारत-विरोधी आतंकवाद में तब से लेकर अब तक क्या परिवर्तन आये है। आज पाकिस्तान पर आतंकवादियों ने एक तरह से पूरा आक्रमण कर दिया है। दक्षिणी वजीरिस्तान में अमेरिका के दवाब के चलते पाकिस्तानी सेना को अपनी ही जमीन पर पूरा युद्द छेड़ देना पड़ा है। इसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि आतंकवाद इस क्षेत्र में अपने गढ़ों से निकलकर पूरे पाकिस्तान में फैल गया है और इसके साथ ही, कश्मीर से लेकर काबुल तक, तमाम आतंकवादी संगठनों ने एक आतंक का तंत्र कायम कर लिया है। सीमाविहीन इस ताकत की विनाशकारी क्षमता में बेमिसाल वृद्धि हुई है।

इसके अलावा पाकिस्तान का आंतरिक संकट भी गहरा ही नहीं जटिल होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के पुराने आरोपों के फिर से सतह पर आने के कारण राष्ट्रपति जरदारी राजनीतिक रूप से किनारे पड़ते जा रहे हैं और अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अधिकाधिक अमेरिका पर निर्भर होते जा रहे हैं। यह निर्भरता यहां तक बढ़ गयी है कि जब अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए डेढ़ अरब डॉलर की विशाल सहायता राशि मंजूर की तो यह भी शर्त लगा दी कि इसके लिए पाकिस्तानी सेना और खुफिया ऐजेंसी आईएसआई को यह प्रमाणपत्र देना होगा कि वे आतंकवाद से लड़ने के लिए कठोर कदम उठाएंगे और परमाणु अप्रसार के प्रति प्रतिबद्ध रहेंगे। सच्चाई जो भी हो लेकिन पाकिस्तान में आम धारणा यह पैदा हुई है कि अमेरिका की इस शर्त के पीछे जरदारी का हाथ है और इस तरह वे पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान पर अंकुश लगाना चाहते हैं। अमेरिका की इन शर्तों पर सेना ने सार्वजनिक रूप से आक्रोश व्यक्त किया और इससे ज़रदारी सरकार और सेना के बीच ठन सी गयी है।

पाकिस्तान आज एक जटिल स्थिति में है और सत्ता के अनेक केंद्र पैदा हो गए हैं। इस वक्त पाकिस्तान को समझना और इसके प्रति कोई स्पष्ट नीति तय कर पाना आज जितना जटिल है इतिहास में इससे पहले कभी नहीं था। इस अमेरिकापरस्ती के समांतर पाकिस्तान अपने परंपरागत सामरिक सहयोगी चीन से भी नए रिश्ते कायम कर रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अगले सप्ताह चीन की यात्रा पर जा रहे हैं और उनके ऐजेंडे में सबसे महत्वपूर्ण भारत और पाकिस्तान-अफगानिस्तान के प्रति चीन के रुख पर बातचीत करना है। चीन ने इस यात्रा के ठीक पहले पाकिस्तान को अत्याधुनिक विमान बेचने का बड़ा सौदा ही नहीं किया बल्कि एक ऐसी सैनिक प्रोद्योगिकी भी देने जा रहा है जिसे अमेरिका ने पाकिस्तान को देने से साफ इंकार कर दिया था। चीन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की मांग की है जबकि भारत स्थायित्व कायम हुए बिना इस तरह की वापसी के पक्ष में नहीं है ।

ओबामा की अगले सप्ताह चीन की यात्रा और 24 नवंबर को भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा के संदर्भ में इस भूभाग में नए समीकरण उभर रहे हैं। निश्चय ही यह भूभाग दुनिया की दो बड़ी ताकतों के बीच के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और भारत को उभरते परिदृश्य में अपनी अहम् भूमिका के लिए नए सामरिक समीकरण रचने होंगे। अफगानिस्तान में अमेरिका के बने रहने और हटने -दोनों ही स्थितियों का सामना करने के लिए भारत को रणनीति तैयार करनी होगी

भारत के करीब इस भूभाग में जब इस तरह के सामरिक समीकरण उभर रहे हों तो यह भी जरूरी हो जाता है कि भारतीय विदेश नीति कश्मीर के आंतकवाद को लेकर पाकिस्तान की भूमिका से पनपी मानसिकता से अपने आप को मुक्त करे और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को नए परिपेक्ष्य में देखे और इसके क्षेत्रीय ही नहीं बल्कि वैश्विक चरित्र का भी मूल्यांकन करे। मुंबई पर आतंकवादी हमलों के बाद से भारत ने पाकिस्तान के साथ किसी भी वार्ता से इंकार कर दिया था। लेकिन जब पाकिस्तान पर भी आतंकवाद ने एक पूरी तरह से हमला बोल दिया है तो एक नई स्थिति पैदा हो गई है और अब पाकिस्तान को कश्मीरी आतंकवाद के कटघरे से बाहर निकालकर एक व्यापक दृष्टि से देखना जरुरी है। तमाम खुफिया ऐजेंसिया आज इसी ओर संकेत कर रही हैं कि 26/11 जैसा हमला फिर हो सकता है और अगर ऐसा होता है तो फिर भारत के पास क्या विकल्प होंगे?

ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि पाकिस्तान पर दवाब की कूटनीति को कब तक जारी रखा जाए और आज इस बात का मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता के सारे रास्ते बंद करके भारत को क्या मिला है? पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से ही जब जब यहाँ की सत्ता किसी संकट में फँसी है इसने भारत विरोधी उन्माद का सहारा लिया है और आज सरदारी सरकार भी यही करती प्रतीत होती है। भारत इए उभरती महाशक्ति है और अगर पाकिस्तान जैसे संकटग्रस्त पडोसी के साथ फंसा रहेगा तो उन मुद्दों पर पूरा ध्यान केन्द्रित करना मुश्किल पड़ेगा जो भारत की मौजूदा प्राथमिकताओं हैं
भारत की विदेश नीति को आज पाकिस्तान में स्थिरता पैदा करने पर केन्द्रित होनी चाहिए और इस संकटग्रस्त देश के विखंडन के बजाय इसे संभलने मैं मदद करनी चाहिए क्योंकि इसी में भारत के दीर्घकालीन हित निहित हैं

हाल ही में भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि पाकिस्तान के साथ वार्ता की प्रक्रिया को शुरु किया जाना चाहिए और कश्मीर जैसे विवादित मसलों पर पहले जो समझदारी पैदा हुई थी उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यह सकारात्मक संकेत हैं और भारत की विदेश नीति को पाकिस्तान को दूर रखने के बजाय इसे बातचीत के मंच पर लाने पर केन्द्रित होनी चाहिए सच तो ये है को पाकिस्तान को मौजूदा संकट से उभरने के लिए भारत से बेहतर संबंधों की सबसे अधिक जरुरत है। एक एतिहासिक प्रष्टभूमि में पाकिस्तान में भारत को लेकर बेहद असुरक्षा की भावना है और अगर भारत के साथ सामान्य रिश्ते न बनें तो पाकिस्तान, मौजूदा परिस्थितिओं, में चीन के चंगुल में फँस सकता है । पाकिस्तान और चीन का भारत-विरोधी गठजोड़ कोई नया नहीं है पर आज जिस तरह के दोस्ती और नफ़रत के रिश्ते पाकिस्तान और अमेरिका के बीच विकसित हो रहे हैं उन्हें देखते हुए चीन से साथ इस वक़्त इस तरह के गढ़जोड़ के उभरनें से देश की अनेक प्राथमिकताएं गडबडा जाएँगी और अमरीका पर निर्भरता बढ़ जायेगी जो एक अस्त होती हाइपर सुपर पॉवर है और चीन उभरता प्रतिद्वंदी है जिसके साथ भारत के रिश्ते कभी भी संदेह और अविश्वास से मुक्त नहीं हो पाएं हैं और न ही इसकी उम्मीद की जा सकती है

आज यह भूभाग बड़ी शक्तियों के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और ऐसे में भारत को इस घटनाक्रम को प्रभावित करने की अपनी क्षमता के विस्तार की जरूरत है इसलिए ऐसे रास्तों का निर्माण करना होगा कि इस संघर्ष से संबंधित हर संभावित पक्ष से बातचीत के रास्ते खुले रखे ।

अब ईरान भी अस्थिर होने की कगार पर

सुभाष धूलिया

ईरान भी अब दुनिया का एक सबसे अस्थिर क्षेत्र बनने की राह पर अग्रसर है। नाभिकीय कार्यक्रम को लेकर ईरान के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है और अमेरिका, उसके सहयोगी और इजराइल किसी भी कीमत पर ईरान के मौजूदा नाभिकीय कार्यक्रम को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। ईरान पर बार-बार आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने अनेक नाभिकीय प्रतिष्टानों को अंतर्राष्ट्रीय आणविक ऊर्जा एजेंसी की निगरानी से अलग रखे हुए है और इनके इस्तेमाल से नाभिकीय हथियार विकसित करने का इरादा रखता है। इस मसले पर ईरान हमेशा ही यही कहता आया है कि उसका नाभिकीय कार्यक्रम ऊर्जा उत्पादन तक ही सीमित है और नाभिकीय हथियार बनाने का उसका कोई इरादा नहीं है। दरअसल ईरान यूरेनियम संवर्धन की जिस क्षमता को हासिल कर रहा है उसका इस्तेमाल नाभिकीय हथियार विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है।

हाल ही में जब ये पता चला की ईरान गुप्त रूप से एक अन्य नाभिकीय संयंत्र कायम कर रहा है आणविक ऊर्जा एजेंसी के सब्र का बाँध टूट गया। एजेंसी के प्रबन्धक बोर्ड ने एक प्रस्ताव पास कर ईरान की भर्त्सना की है। 35 सदस्यीय बोर्ड ने 25-3 के बहुमत से ये प्रस्ताव पारित किया जिसमें वेनेजुएला, क्यूबा और मलेशिया का प्रस्ताव के विरोध में वोट देना तय था। भारत पहले ही ईरान के खिलाफ वोट डाल चुका है और भारत एक जिम्मेदार नाभिकीय शक्ति का दर्जा हासिल करने के लिए ऐसे किसी भी प्रयास का समर्थन नहीं करेगा जिससे किसी भी रूप में नाभिकीय हथियारों का प्रसार होता है। इसके अलावा भारत और अमेरिका के बीच हुए नाभिकीय समझौते से भी भारत की नीति में बदलाव आया है।

लेकिन इस बार ईरान को समर्थन देने वाले रूस और चीन ने भी ईरान के भर्त्सना प्रस्ताव का समर्थन किया। अमेरिका और उसके सहयोगी तो काफी समय से ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने की वकालत करते रहे हैं लेकिन रूस और चीन इसके पक्ष में नहीं थे । इन दोनों देशों के ईरान में सामरिक और आर्थिक हित भी दांव पर लगे हैं। इसी वजह से सुरक्षा परिषद के माध्यम से कड़े प्रतिबंध लगाने का रास्ता नहीं निकल पा रहा था।

आणविक ऊर्जा एजेंसी के भर्त्सना प्रस्ताव के बाद भी ईरान के रुख में कोई नरमी नहीं आई और अपने नाभिकीय कार्यक्रम विकसित करने के अधिकार से कोई भी समझौता करने से इंकार कर दिया है। इन हालातों में एक नया परिदृश्य पैदा हो गया है और यह संभावना प्रबल हो गयी है कि सुरक्षा परिषद ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पारित कर देगी। इस तरह के प्रतिबंध लगाने से ईरान के अर्थतंत्र को विनाशकारी परिणाम झेलने होंगे। ईरान दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है लेकिन तेल और गैस संसाधनों को परिष्कृत करने की क्षमता न होने के कारण उसे 40 प्रतिशत गैसोलीन का आयात करना पड़ता है। इसलिए अगर ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए जाते हैं तो इसके परिणाम ईरान समेत पूरी दुनिया को झलने पड़ेंगे।

मौजूदा नेतृत्व के चलते ईरान के कट्टर रुख में किसी परिवर्तन के उम्मीद नहीं की जा सकती और ऐसे में सामरिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण देश एक गहरे संकट में पड़ने जा रहा है । ईरान भले ही खुले तौर पर यही कहता है कि वह नाभिकीय हथियार विकसित करने का कोई इरादा नहीं रखता पर परोक्ष रूप से इसमें यह संदेश भी निहित है कि अगर उसे नाभिकीय हथियार विकसित करने से रोका जा रहा है तो फिर इजराइल के नाभिकीय हथियारों को लेकर भी यही दृष्टिकोण क्यों नहीं अपनाया जाता ? ईरान का यह भी कहना है 1991 में खाड़ी युद्द समाप्त करने के संयुक्त राष्ट के उस प्रस्ताव का क्या होगा जिसमें मध्यपूर्व को नाभिकीय हथियारों और इन्हें दागने में समर्थ मिसाइलों से मुक्त रखने का आह्वान किया गया था जिसमें अमेरिका भी शामिल था। लेकिन लेकिन ईरान के ये तर्क कितने ही वाजिब क्यों न हों अमेरिका, उसके सहयोगी और इजराइल नाभिकीय ईरान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

रूस के रुख में परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण यही है कि वह ईरान में ऐसा युद्द नहीं चाहता जिससे इस भूभाग के सामरिक और आर्थिक समीकरण तहस-नहस हो जाएं। ईरान के इरादों पर अंकुश लगाए रखने के लिए रूस ने उसे विमानभेदी मिसाइलें देने से इंकार कर दिया था और एक नाभिकीय संयंत्र लगाने के समझौते का भी पालन नहीं किया है। रूस का मानना है कि ईरान को इस तरह की मदद देने से वह नरम पड़ने की बजाय आक्रमण का सामना करने की और ही उन्मुख होगा। इसके अलावा रूस यूरोप में अमेरिका की मिसाइल शील्ड को अपने लिए बड़ा खतरा मानता था लेकिन अमेरिका ने यूरोप से इसे हटाकर रूस को अपने साथ लाने की महत्वपूर्ण पहल की थी। रूस के रुख में परिवर्तन के बाद चीन के लिए भी ईरान का समर्थन जारी रखना मुश्किल होता गया। हालांकि चीन के ईरान में ऊर्जा संसाधनों को लेकर काफी बड़े आर्थिक हित दांव पर लगे हैं और वह ईरान में बड़े पैमाने पर विनिवेश करने जा रहा है।

राष्ट्रपति ओबामा ने भले ही 1979 से चल रहे ईरान के बहिष्कार को समाप्त कर बातचीत का रास्ता अपनाया लेकिन सैनिक विकल्प का रास्ता भी खुला रखा है। इस बीच अमेरिका और इजराइल ने ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त युद्ध अभ्यास भी किए हैं। इस दृष्टि देखें तो ईरान के प्रति अमेरिका की बुनियादी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

रूस और चीन के रुख में परिवर्तन से सुरक्षा परिषद के माध्यम से ईरान पर कड़े लगाने का मार्ग प्रशस्त होता नजर आ रहा है। कड़े प्रतिबंध लगने के बाद संकटग्रस्त ईरान और कौन सा रास्ता अपनाने को मजबूर होगा ? पहले ही इसकी सरहदों से लगे इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की सेनाएं युद्ध लड़ रही हैं। इस तरह संकटग्रस्त और असुरक्षित होने के बाद ईरान अपनी बची-खुची क्षमता से नाभिकीय हथियार विकसित करने का रास्ता अपना सकता है। ऐसे में ये टकराव यहीं खत्म नहीं होने जा रहा है बल्कि इसमें एक बड़े संकट और अलग तरह के टकराव की संभावनाएं इसमें निहित हैं।

मैत्री और प्रतिद्वंदता के बीच भारत-चीन

सुभाष धूलिया

भारत और चीन पिछले एक दशक के दौरान एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से पैदा हुए संदेह और अविश्वास से उबरने की कोशिश कर रहे थे और दोनों देशों के बीच अनेक स्तरों पर वार्ताओं का सिलसिला चला और आर्थिक संबंधों, खास तौर पर व्यापार में बेमिसाल वृद्दि हुई। लेकिन अभी पिछले दिनों ही एक ऐसा माहौल पैदा हुआ मानों दोनों देशों के बीच कटुता ही नहीं आ गयी है बल्कि कहीं दूर युद्द के बादल भी दिखाई दे रहे हैं। हालांकि भारत और चीन दोनों के ही राजनैतिक नेतृत्व ने युद्ध की किसी भी संभावना से इंकार किया और साफ तौर पर कहा कि दोनों देशों के संबंधों में ऐसी कोई कटुता नहीं आई है और यह युद्ध का सारा उन्माद मीडिया की उपज भर है। निश्चय ही मीडिया और खासतौर पर टेलीविजन के विस्तार के बाद अनेक ऐसे अवसर आये हैं जब राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति से संबंद्धित मुद्दों पर सरकार को अनावश्यक दवाब झेलना पड़ा है। ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने के सवाल पर भी बवाल मचा लेकिन आधिकारिक स्तर पर चीन ने इस तरह के किसी भी बांध के निर्माण से इंकार किया है। लेकिन फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि चन्द वर्षों पहले दोनों देशों के संबंधो में सुधार की जो प्रक्रिया शुरु हुई थी और जिसकी अभिव्यक्ति 2006 को भारत-चीन मैत्री वर्ष के रुप में मनाए जाने को हुई थी, वह आज कहीं न कहीं पारस्परिक संदेह और अविश्वास के घेरे में आ गयी है। 1962 के युद्द से ही भारतीय सोच में चीन के इरादों को लेकर हमेशा संदेह और अविश्वास रहा है और भले ही मीडिया ने उन्माद पैदा किया हो लेकिन लोगों के दिलोदिमाग ये कटु यादें फिर से ताजी हो गईं।

शीतयुद्द के दौरान भारत के सोवियत संघ से बहुत करीबी रिश्ते थे और इसके जवाब में चीन-पाकिस्तान-अमेरिका ने अपना गठजोड़ कायम कर लिया था। शीतयुद्ध खत्म होने पर नए सैनिक गठजोड़ों का महत्व कम हुआ और नए आर्थिक समीकरण पैदा हुए। इस नई विश्व व्यवस्था में भारत और चीन के संबंधों में भी गरमाहट आयी। लेकिन अमेरिका पर आतंकवादी हमलों के उपरांत दुनिया का राजनीतिक और सामरिक मानचित्र बदल गया और अमेरिका ने दुनिया पर सैनिक प्रभुत्व कायम करने का अभियान छेड़ दिया। अफगानिस्तान और इसके साथ-साथ पाकिस्तान में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति से चीन आशंकित हुआ और इसी के समांतर भारत और अमेरिका के संबंधों का एक नया अध्याय शुरु हुआ- जिसके साथ ही भारत -चीन संबंधों के सुधारों की प्रक्रिया भी मंद पड़ने लगी। अब इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका के फंसने के बाद यह कहना मुश्किल हो गया है कि दुनिया किस ओर जायेगी । यह धारणा भी बलवती हो रही है कि इन देशों से अमेरिका के हटने से इसकी ताकत में भारी ह्रास होगा और दुनिया में एक नेतृत्वकारी और प्रभुत्वकारी ताकत के इस तरह ढलने के बाद जो शून्य उभरेगा उसकी भरपाई कहां से होगी और कौन करेगा? इस संदर्भ में बार-बार चीन की ओर ही देखा जाता है। चीन के इस तरह की शक्ति के रूप में उभरने के उपरांत एक नई विश्व व्यवस्था अस्तित्व में आएगी और इसमें भारत के स्थान को लेकर दोनों देशों के सामरिक हितों में अंतर्विरोध पैदा होगें।

हाल ही के वर्षों में चीन की आर्थिक ताकत में भारी वृद्दि हुई है और दुनिया भर में मंदी के बावजूद चीन में आर्थिक तरक्की की यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही है। चीन पहले ही अमेरिका के बाद विश्व की दूसरे नंबर की आर्थिक ताकत बन चुका है। इस दौरान भारत की आर्थिक वृद्धि भी बेमिसाल रही। हालांकि चीन की तरह भारत रोजगार और कृषि से जुड़े अनेक मसलों का हल नहीं खोज पाया है और देश के भीतर अनेक टकराव भी बरकरार हैं तो कुछ नए तरह के टकराव भी पैदा हो रहे हैं। लेकिन फिर भी यह माना जाता है कि भारतीय अर्थतंत्र की वृद्धि की यह रफ्तार बनी रहेगी और कुछ वर्षों में भारत अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेगा। भारत के 30 करोड़ मध्यमवर्ग की क्रयशक्ति में लगातार विस्तार हो रहा है और जल्द ही यह यूरोपीय यूनियन से भी बड़े बाजार का रुप धारण कर लेगा।

चीन की तरह भारतीय अर्थतंत्र भी मंदी की मार को बखूबी झेलने में सफल रहा है। एक धारणा यह भी है कि मंदी अभी शांत भर हुई है और कभी भी उफन सकती है और भारत और चीन ही ऐसे देश हैं जिनकी अर्थव्यवस्था मंदी की मार झेलने में सक्षम है। ऐसे में जब दुनिया की अनेक आर्थिक ताकतें कमजोर पड़ेंगी तब भारत और चीन की आर्थिक ताकत उभार पर होगी। इसलिए यह दोनों देशों के लिए ही अच्छा होगा है कि ऐसा कुछ ना हो जिससे आर्थिक तरक्की की प्रक्रिया में बाधा पड़े। दुनिया पर जब संकट के नए बादल मंडरा रहे हैं और अमेरिकी ताकत के भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो दोनों देशों के हित में यही है कि वे अतीत के संदेह और अविश्वास से मुक्त होकर 2006 के मैत्री वर्ष की भावना पर ही आगे बढ़ें।

लेकिन चीन कहीं ना कहीं भारत की उभरती ताकत को स्वीकारने से कतराता ही नहीं रहा है बल्कि इसमें बाधाएं भी पैदा करता रहा है। इस कारण मैत्री की भावना पर समय समय पर चोट लगती रही है जिससे अतीत का संदेह और अविश्वास सतह पर आता रहा है। अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते संबंधों को जहां चीन अपने आप को घेरने के रूप में देखता है वहीं पाकिस्तान के अलावा नेपाल,बांग्लादेश और म्यांमार में चीन की बढ़ती घुसपैठ एक तरह से भारत को घेरने का प्रयास ही है। विश्व के सामरिक मानचित्र पर दोनों देशों का टकराव साफ तौर पर देखा जा सकता है। भारत और अमेरिका के बीच नाभिकीय करार के बाद विश्व के नाभिकीय समुदाय में भारत के प्रवेश का चीन ने विरोध किया और सुरक्षा परिषद में विस्तार और भारत और जापान को इसमें शामिल किए जाने का भी चीन ने विरोध किया। कई मौकों पर चीन के दोहरे मानदंड रहे हैं- कथनी और करनी में अंतर रहा है जिससे संदेह और अविश्वास पैदा होना स्वाभाविक ही है।

चीन एक ऐसी विश्व व्यवस्था का सपना देखता है जिसमें अमेरिका ,यूरोपीय यूनियन, रूस और चीन ही शक्ति के स्तंभ हों। भारत की उभरती ताकत को इस शक्ति स्तंभ में शामिल होने का चीन किसी ना किसी रूप में विरोध और प्रतिरोध करता है। इसके अलावा एशिया में प्रभाव क्षेत्र को लेकर भी दोनों देशों के हितों का सामरिक टकराव है। इन तमाम कारणों से दोनों देशों के संबंधों के आर्थिक परिपेक्ष्य और सामरिक तानेबाने के बीच लागातर टकराव रहा है और मौजूदा विश्व व्यवस्था में यह टकराव और तेज हो रहा है।

इस पृष्ठभूमि में चीन की बढ़ती आर्थिक और सैनिक ताकत का भारत को सामना करना ही होगा। हालांकि अमेरिका के साथ नए सामरिक संबंधों को लेकर भारत का इरादा चीन को घेरने का नहीं है । लेकिन अमेरिका निश्चय ही भारत के साथ सामरिक सहयोग को चीन पर नकेल लगाने के रुप में ही देखता है। भारत और अमेरिका के बीच हाल ही के वर्षों में सैनिक सहयोग का विस्तार हुआ है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति और भारत के साथ अमेरिका के सामरिक गठजोड़ को चीन संदेह की निगाह से देखता है। इस दृष्टि से भले ही हाल ही में दोनों देशों के बीच सैनिक तनाव मीडिया का बवंडर भर हो लेकिन वास्तविकता के धरातल पर निश्चय ही ऐसे समीरकरण उभर रहे हैं जो 2006 की मैत्री की भावना से मेल नहीं खाते हैं और टकराव के नए कारण पैदा हो रहे हैं और नए केन्द्र उभर रहे हैं। अनेक विकासशील क्षेत्रों में ऊर्जा संसाधनों को लेकर भी दोनों देशों के हित टकरा रहे हैं। दोनों देशों की उभरती अर्थव्यवस्था को ऊर्जा संसाधनों की भारी जरूरत है और इस कारण ऊर्जा टकराव तेज होना भी स्वाभाविक है।

इसके अलावा पाकिस्तान की स्थिति नाजुक बनी हुई है। आज पाकिस्तान अमेरिका के इतने जबर्दस्त सैनिक दवाब में है कि चीन की ओर उन्मुख होने की संभावनाएं सीमित हो गयी हैं। लेकिन अफगान युद्ध के भविष्य को लेकर इतने संदेह बने हुए हैं कि पाकिस्तान क्या करवट लेगा यह कहना भी मुश्किल है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र से अगर अमेरिका को हटना पड़ा तो ऐसी सत्ताएं अस्तित्व में आ सकती हैं जो भारतीय हितों के लिए गंभीर चुनौती पेश करें और इनका इस्लामी उग्रवाद अमेरिका पर केन्द्रित न हो क्योंकि सिर्फ इस स्थिति में अमेरिका के अफगानिस्तान से लौटने की संभावनाएं पैदा होती हैं।अफगानिस्तान में उदार तालिबान के उदय की बातें की जा रही हैं और यह कहना मुश्किल है कि उदार तालिबान भारत के लिए भी उदार होगा और पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत-विरोधी गठजोड़ कायम नहीं करेगा। और, आज चीन ने भारत के प्रति जो रुख अपनाया हुआ है उसे देखते हुए चीन इस तरह की सत्ताओं से गठजोड़ कायम करने से नहीं कतराएगा चाहे इनका चरित्र कैसा भी क्यों न हो। चीन की विदेश और सामिरक नीतियों में हमेशा से एक तरह का अवसरवाद हावी रहा है और चीन ने ऐसी सत्ताओं के साथ गठजोड़ कायम किए हैं जो इसके घोषित समाजवादी आदर्शों से कहीं से भी मेल नहीं खाते हैं। इस तरह की स्थिति में अगर चीन फिर से इसी तरह के अवसरवाद का सहारा लेता है और एशिया के इस भूभाग में भारत-विरोधी गठजोड़ कायम करता है या इनमें साझेदार बनता है, तो निश्चय ही दोनों देशों के संबंधों पर आर्थिक सहयोग की जगह सैनिक परिपेक्ष्य हावी हो जायेगा। इस तरह की चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत को भी नए सामरिक समीकरणों की जरूरत होगी जिसमें अमेरिका की केन्द्रीय भूमिका होने के ही सबसे प्रबल संकेत हैं।

इतिहास की वापसी !

सुभाष धूलिया

बर्लिन की दीवार को ढहे बीस वर्ष हो गए हैं। इस ऐतिहासिक घटना के साथ ही शीत युद्ध समाप्त हुआ था और जिसके परिणामस्वरूप 1981 में सोवियत संघ के अवसान के साथ ही एक वैकल्पिक विचारधारा और एक व्यवस्था का आदर्श भी ढह गया। बौद्धिक हलकों में समाजवाद और पूंजीवाद के भविष्य को लेकर अनेक बहसें छिड़ीं। समाजवादी विचारकों ने इसे समाजवाद की पराजय मानने के बजाय स्टालिनवादी नौकरशाही सत्ता का पतन करार दिया तो पूंजीवाद में यकीन रखने वालों ने इसके अधिनायकवाद के खिलाफ लोकतंत्र और स्वतंत्रता की विजय के रूप में देखा। अमेरिकी विचारक फ्रांसिस फुकुयामा ने इस विजय को "इतिहास का अंत" करार दिया। फुकुयामा का तर्क था कि मानव सभ्यता अपने ऐतिहासिक विकास के अंतिम पड़ाव पर पहुंच गयी है और अब पश्चिमी शैली के उदार लोकतंत्र और पूंजावादी अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है ।

नब्बे के पूरे दशक में पश्चिमी देशों में ऐतिहासिक विजय का नशा सा छा गया। समाजवाद के सोवियत मॉडल के पतन को पूंजीवाद के विजय के रूप में इस हद तक देखा गया कि इस व्यवस्था की खामियों और निहित कमजोरियों की ओर से ध्यान हट गया। पूंजीवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की विजय का झंडा दुनिया भर में फहरने लगा। सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि मुक्त अर्थव्यवस्था ही गतिशील साबित हुई है और इसमें ही पूंजी और श्रम दोनों को कुशलता और उत्पादकता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने की क्षमता निहित है। निश्चित ही सोवियत मॉडल की नियंत्रित अर्थव्यवस्था जड़ता का शिकार होती चली गयी। इसी के समांतर इसने राजनीतिक असहमति और विमर्श का हर दरवाजा ही नहीं बल्कि हर खिड़की तक बंद कर दी और अधिनायकवादी केन्द्रवाद हावी होता चला गया। आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही स्वतंत्रताओं के छिनने से इस व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास उठ गया और अवसर मिलते ही कहीं गहरा धंसा आक्रोश फूट पड़ा और बर्लिन की दीवार ढह गयी ।

इसके साथ ही पूरी दुनिया में मुक्त अर्थव्यवस्था उन्मुख सुधारों का दौर चला। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने नया आवेग ग्रहण किया और राष्ट्रीय अर्थतंत्रों के वैश्विक अर्थतंत्र में एकीकरण के लिए उदारीकरण की गूंज हर तरफ उठने लगी। लेकिन केवल एक दशक के भीतर ही उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने ऐसा रूप धारण कर लिया कि अनेक हलकों में यह कहा जाने लगा कि यह समृद्धि का नहीं बल्कि गरीबी का भूमंडलीकरण हो रहा है और इस पर बहुराष्ट्रीय निगमों के दबदबे से इसे कॉर्पोरेट भूमंडलीकरण का नाम दिया गया।

नोबेल पुरुस्कार विजेता जोजेफ स्टिग्लिट्ज जैसे अर्थशास्त्री जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के प्रबल हिमायती हुआ करते थे उनसे ही विरोध के स्वर उठने लगे। इस सदी के प्रारंभ होने के साथ ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विकास के तत्वों को समावेश करने की जोरदार मांग उठने लगी। इसी के समांतर वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक संकट ने झकझोर दिया। 1997 में एशियाई टाइगरों के वित्तीय संकट ने पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को इतना झकझोर दिया कि मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातीर ने कहा कि जिस अर्थव्यवस्था के निर्माण में हमें चालीस वर्ष लगे, एक सट्टेबाज आया और उसने चालीस घंटों में ही सब बर्बाद कर दिया। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर वित्तीय पूंजी हावी होने लगी थी। संकटों इस इस श्रंखला में 1997 के तत्काल बाद 1998 में पूंजी के प्रबंधन का संकट पैदा हुआ और 2001 में डॉटकॉम का गुब्बारा भी फूट गया। तब से लेकर 2008 की बड़ी मंदी तक अनेक तरह के संकट आते रहे। इन घटनाओं से बर्लिन की दीवर के ढहने से उपजा विजयवाद ठंडा पड़ने लगा और सवाल उठाए गए कि सरकार और बाजार के संबंधों को नए सिरे से देखने की जरूरत है। सब कुछ बाजार की शक्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता ।

1930 की महामंदी के बाद जिस तरह मुक्त अर्थव्यवस्था को पूरी तरह मुक्त करने के बजाय सरकार के हस्तक्षेप की पैरवी की गई और प्रख्यात अर्थशास्त्री कीन्स ने कहा कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की भलाई इसी में है कि रोजगार पैदा करने में सरकार का हस्तक्षेप करे। आज मौजूदा नव-उदारवादी व्यवस्था पर संकट के उपरांत भी दुनिया के अनेक जाने-माने अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि सरकार को किसी ना किसी रूप में बाजार को रेग्यूलेट करना होगा। 15 सितंबर 2008 में अमेरिका की एक 158 वर्ष पुरानी प्रमुख विनियोग बैंक लेहमान ब्रदर्स दिवालिया होने पर जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने कहा कि जिस तरह 1989 में बर्लिन की दीवार का ढहना समाजवाद के पतन का प्रतीक था उसी तरह लेहमान ब्रदर्स का दिवालिया होना पूंजीवाद के मौजूदा स्वरुप के पतन का प्रतीक है। लेहमान ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद अमेरिका की अनेक बड़ी-बड़ी वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने के कगार पर खड़ी थी और अमेरिकी सरकार को "मुक्त" अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर अरबों डॉलर के पैकेज के बल पर इन संस्थाओं को डूबने के बचाने पर विवश होना पड़ा।

बर्लिन दीवार के ढहने से जो पूंजीवाद विजयी हुआ था आज उसे लेकर सवाल उठ रहे हैं। कई बहसें हो रही है कि मुक्त अर्थव्यवस्था को कितना मुक्त रखा जाए और इसे रेग्यूलेट करने के लिए किस हद तक सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है? लेकिन इसके साथ ही यह बहस भी हो रही है कि पूंजीवादी व्यवस्था में अनेक अन्तर्विरोध निहित हैं और अगर इस पर बार-बार आने वाले संकटों से मुक्ति पानी है तो पूंजीवादी व्यवस्था की जड़ों की ओर देखना होगा और राहत पैकेज तो केवल तात्कालिक सामाधान है।

निश्चय ही बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद उपजे उदारीकरण का आवेग तीव्र ढलान पर लुढक रहा है और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया दुम दबाकर भागती सी दिखाई दे रही है। दुनिया भर में ऱाष्ट्रीय अर्थतंत्र को संरक्षण देने का दौर शुरु हो चुका है। पर विकल्प को लेकर कोई ठोस अवधारण विकसित नहीं हो रही है इसकी अभिव्यक्ति अमेरिका की एक बहुत बड़ी वित्तीय संस्था मेरिल लिन्च के अध्यक्ष बर्नी सुचर के इस कथन में होती है कि "हमारी दुनिया बिखर गई है और हमें नहीं मालूम कि इसका स्थान कौन लेने जा रहा है"। लेकिन दुनिया के दो सबसे बड़े अमीरों- बिल गेट्स और वारेन बफेट -ने कहा है कि संकट टल गया है और पूंजीवाद पूरी तरह स्वस्थ है। लेकिन स्टिग्लिट्ज और अमृर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों का कहना है कि संकट टला भर है और जब तक मुक्त बाजार की मनमानी पर रोक नहीं लगाई जाएगी तब तक इस तरह के संकट आते ही रहेंगे।

आज पूंजीवाद के मौजूदा चरित्र और स्वरूप पर "समाजवादी" नहीं बल्कि पूंजीवादी दर्शन में आस्था रखने वाले ही सवाल उठा रहे हैं। बर्लिन की दीवार ढहने से जिस पूंजीवाद की विजय हुई थी वह निश्चय ही इतिहास का अंत नहीं है और बर्लिन की दीवार ढहने जैसी एक और ऐतिहासिक घटना की किरणें क्षितिज में कहीं दिखाई दे रही हैं।

Thursday 29 October 2009

८ से २० होने के अर्थ

सुभाष धूलिया

दुनिया का आर्थिक मानचित्र बदल रहा है. विश्व अर्थव्यवस्था पर लम्बे समय तक के उन्नत आद्योगिक देशों के प्रभुत्व का लगभग अंत आ गया है और एक नए प्रभुत्वकारी गुट का उदय हुआ है जिनमें भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती आर्थिक ताकतें शामिल हैं. एशिया के १९९९ के वित्तीय भूचाल ने मलेशिया जैसे एशियायी टाइगर्स को हिला कर रख दिया था और अगर और गहरा होता तो पूरे विश्व को ही संकट के दलदल में फँस सकता था. इस संकट के उपरांत सात औदौगिक देशों का गुट बना था जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस , जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान शामिल थे और बाद मैं इसमें रूस को भी शामिल कर इसे आठ का गुट बना दिया गया था. इस बार जब २००८ में और भी बड़ा वित्तीय संकट आया तो आठ के गुट को लगा की दुनिया की अर्थव्यस्था को संभाले रखना इस गुट के बस में नहीं रह गया है इसलिए भारत और चीन जैसी उभरती आर्थिक ताकतों को भी शामिल कर अब बीस देशों का गुट बना दिया गया है और इस गुट के देशों मैं दुनिया के दो तिहाई लोग बसतें हैं, ८० प्रतिशित विश्व व्यापर पर इनका नियंत्रण है और लगभग ८५ प्रतशित सकल घरलू उत्पादन इन्ही देशों का है - इसका मतलब ये भी है की नयी व्यवस्था मैं भले ही उभरती ताकतों को शामिल कर दिया गया है पर मानव सभ्यता के एक बड़े हिस्से को बहार भी रख दिया गया है.

जाहिर है की इस मंदी के महामंदी में बदलने से रोकने के लिए ही इन उभरती आर्थिक ताकतों को साथ लिया गया है. बूढे शेर ने जवान चीत्ते को साथ लेकर आर्थिक जंगल मैं अपना राज कायम रखने का रास्ता अपनाया है. पर इस रूप में यह एक बड़ा परिवर्तन है की अब दुनिया का आर्थिक शक्ति संतुलन बदल गया है और विश्व आर्थिक व्यवस्था के प्रबंध और संचालन का जिम्मा बीस के गुट के हाथ मैं आ गया है और आठ का गुट अब गैर-आर्थिक मुद्दों तक ही सिमित रहेगा यानि गपशप का काफीहाउस बन कर रह जायेगा . इसी के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष मैं भी अब नयी आर्थिक ताकतों को अधिक हिस्सा दे दिया गया है जो एक नहीं विश्व आर्थिक व्यवस्था के उदय को प्रतिबिंबित करता है.

लेकिन बुनियादी सवाल यह उठता है की क्या आठ को बीस कर देने से बार बार आने वाले वित्तीय संकटों पर काबू पाया जा सकता है. दुनिया के अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने कहा है की मंदी पर अभी एक नियंत्रण भर किया गया है और अभी वे कारण ज्यों के त्यों बने हुए हैं जिनसे मंदी आई थी. यहं तक कहा गया है की आज भी हालत वैसे ही हैं जैसे मंदी से पहले २००७ में थे . बार बार यह सवाल उठ रहा ही की मौजदा आर्थिक व्यवस्था मैं मौलिक परिवर्तन किये बिना किसी तरह का स्थायित्व हासिल नहीं किया जा सकता है. दरअसल मुक्त अर्थ व्यवस्था की पूरी तरह बाज़ार की शक्तिओं के हवाले के देने से वित्तीय अर्थव्यवस्था का उदय हुआ है और ये एक एस व्यवस्था है कोई उत्पादन नहीं करती बस यहाँ का पैसा वहां डालकर अरबों-खरबों का मुनाफा बटोरती है. यह पूँजी एक तूफ़ान की तरह दुनिए मैं दौड़ पड़ती है औए अपने पीछे आर्थिक विनाश के अवशेष छोड़ती चली जाती है. एशियायी टाइगर्स के आर्थिक संकट के बाद मलेशिया के तत्कालिन प्रधानमंत्री महातिर ने कहा था की जिस अर्थ व्यवस्था की बनाने मैं हमें ४० वर्ष लगे , एक सट्टेबाज आया और ४० घंटों मैं इसे तबाह कर चला गया. उनका एब कथन वित्तीय अर्थ व्यवस्था में निहित कमजोरिओं का साफ तौर से व्यक्त करता है . २००८ के संकट पर काबू पाने के लिए खुद मुक्त व्यवस्था के सबमे बड़े झंडाबरदार अमेरिका में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा था और अरबों डॉलर का पैकेज देकर संकट को काबू मैं किया था. ये एक ऐसी स्थति थी की वित्तीय संस्थाओं ने सट्टेबाजी की और तुरत मुनाफा कामने के लिए खुल कर कर्जे दिया और जब संकट आया तो जनता के पैसे से इन्हें संकट से उभरा गया. अमेरिका की एक बड़ी और पुरानी विनिवेश कंपनी लहमान्न ब्रदर्स के दिवालिया होने पर नोबल पुरस्कार से समान्नित अर्थिशास्त्री जोसेफ स्तिग्लित्ज़ ने कहा था की यह उसी तरह पूंजीवाद का अंत है जिस तरह १९८९ में बर्लिन की दीवार के ढहने से सोवियत समाजवाद का अंत हुआ था. इस संदर्भ में सवाल पैदा होता है की कहीं ऐसा तो नहीं की बीस का गुट बनाकर इस बात की अनदेखी की जा रही है की मौजूदा विश्व आर्थिक वस्थ्वा में कहीं कोई बुनियादी खोट है और इसे सम्बोधित किये बिना बार बार आने वाले आर्थिक संकटों से मुक्ति पाने का कोई वास्तविक प्रयास से बचा जा रहा है . ये भी सच है की हल की मंदी का जितना असर विकसित मुक्त अर्थव्यवस्था वाले देशों पर पड़ा था उसकी तुलना मैं भारत और चीन जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश इस पर जल्द काबू पाने में सफल रहे और अगर ये मंदी एक महामंदी मैं तब्दील होती तो भी ये कहा जा सकता है की ये देश उस तरह के आर्थिक विनाश के शिकार नहीं होते जिस तरह इसका असर पशिमी देशों पर होता.

८ के २० होने से निश्चय ही दुनिया मैं एक नयी आर्थिक व्यवस्था कायम हो गयी है और एक नया आर्थिक संतुलन पैदा हो गया है और विश्व अर्थतंत्र पर पश्चिमी देशों का एकाधिकार खत्म हो गया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की २० का गुट कैसे ८ के गुट से अलग विश्व की आर्थिक व्यवस्था का प्रबंध और संचालन करता है और आने वाले समय किस तरह के परिवर्तनों का रास्ता तैयार करता है . एक नए रास्ते के निर्माण के अभी कोई संकेत नहीं हैं और अभी तो एक नयी साझदारी भर पैदा हुयी है. ८ के गुट ने १२ के साथ हाथ तो मिला लिया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की इन्हें आर्थिक मंदी के नकारात्मक परिणामों को झेलने के लिए साथ लिया गया है या फिर ऐसा कुछ होने जा रहा ही की विश्व अर्थव्यवस्था में निर्णय लेने में भी इन्हें प्राप्त रूप से साझीदार बनाया जाता है ताकि ये बीस का गुट कुछ बुनियादी परिवर्तनों का मार्ग प्रसस्थ कर सके.

Wednesday 28 October 2009

समकालीन मीडिया परिदृश्य

समकालीन मीडिया परिदृश्य
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सुभाष धूलिया

अतंराष्ट्रीय मीडिया परिदृश्य को समझने के लिए विश्व राजनीति पर एक निगाह डालना जरूरी हो जाता है। पिछले दो दशकों में दुनिया में कुछ ऐसे परिवर्तन आए हैं जिससे विकास की दिशा और दशा दोनों बदल गए। लेकिन यह कह सकते हैं अब तक कोई ऐसी विश्व व्यवस्था नहीं आ पायी है जिसमें स्थायित्व निहित हो। पिछली सदी की अस्सी-नब्बे के दशक की कुछ घटनाओं ने राजनीतिक, आर्थिक और सूचना संचार की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं को एक तरह से फिर से पारिभाषित कर दिया जिससे विश्व राजनीति के चरित्र और स्वभाव में बड़े परिवर्तन आए। अस्सी के दशक में विकास के सोवियत समाजवादी मॉडल के चरमराने की प्रकिया शुरु हुई और 1991 में सोवियत संघ का अवसान हुआ। इस घटना को पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थव्यवस्था के विजय के रूप में देखा गया। इसी दशक में सूचना क्रांति ने भी बेमिसाल ऊंचाइयां हासिल की और इसी के समांतर दुनिया भर में मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख आर्थिक सुधारों की प्रकिया भी शुरु हुई। इस आर्थिक प्रकिया के पूरक के रूप में भूमंडलीकरण ने भी नई गति हासिल की।

इन घटनाओं के उपरांत विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था का भी उदय हुआ। एक रूप से इस व्यवस्था ने विकासशील देशों की उन तमाम दलीलों को ठुकरा दिया जो उन्होंने विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था कायम करने के लिए छठे और सातवें दशक में पेश की थीं और जिन्हें 1980 में यूनेस्को मे मैक्बाइट कमीशन की रिपोर्ट के रूप में एक संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। विकासशील देशों की मांग थी कि विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन है और फिर इन पर विकसित देशों की चंद मीडिया संगठनों का नियंत्रण है। इसकी वजह से विकसशील देशों के बारे में नकारात्मक सूचना और समाचार ही छाए रहते हैं जिससे विकासशील देशों की नकारात्मक छवि ही बनती है जबकि विकसित देशों को लेकर सबकुछ सकारात्मक है।
यूनेस्को ने इन तमाम मसलों को संबोधित करने के लिए मैक्बाइट कमीशन का गठन किया और इसने 1980 में 'मैनी वॉइसेज वन वर्ल्ड'( दुनिया एक, स्वर अनेक) शीर्षक से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन को दूर करने के लिए अनेक सिफारिशें की गयी थीं। लेकिन अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों ने इन सिफारिशों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इनमें असंतुलन को दूर करने के नाम पर सरकारी हस्तक्षेप का न्यौता निहित है और इस तरह ये सिफारिशें प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करती हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर तो इस मसले पर यूनेस्को से अलग हो गए और इन देशों के अलग होने से यूनेस्को को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद हो गयी जिसकी वजह से यूनेस्को एक तरह से पंगु हो गया।

लेकिन अस्सी-नब्बे दशक की घटनाओं के उपरांत इस तरह की नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था की मांग भी बेमानी हो गयी। इसका सबसे मुख्य कारण तो यही था कि इस मांग को करने वाले सबसे प्रबल स्वर ही शांत हो गए। विकासशील देशों में इस मांग को उठाने वाले अधिकांश देशों ने आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के मॉडल का रास्ता छोड़कर उदार भूमंडलीकरण का रास्ता अपना लिया था। दूसरा प्रमुख कारण यह भी था कि यहां आते-आते सूचना क्रांति एक ऐसी मंजिल तक पहुंच चुकी थी जिसमें दूरसंचार,सेटेलाइट और कम्प्यूटर प्रोद्योगिकी के बल पर एक ऐसे तंत्र का उदय हुआ जिसमें सूचना समाचारों के प्रवाह पर किसी भी तरह का अंकुश लगाना संभव ही नहीं रह गया। विकासशील देश सूचना-समाचारों के जिस एकतरफा प्रवाह की शिकायत करते थे उसका आवेग इस नए दौर अब पहले से कहीं अधिक तेज हो गया और इसे रोक पाना वास्तविक रुप से संभव नहीं रह गया था।

नया परिदृश्य

सूचना क्रांति से निश्चय ही दुनिया एक तरह के वैश्विक गांव में परिवर्तित हो गयी। सूचना -समाचारों और हर तरह के मीडिया उत्पादों का प्रवाह बाधाविहीन होने के उपरांत वैश्विक मीडिया के स्वरूप में भी बड़ा परिवर्तन आया। पहले वैश्विक मीडिया जो विश्व भर में सूचना और समाचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता था लेकिन उसका काफी हद तक एक देश के भीतर इसका सीधा नियंत्रण नहीं होता था-यानी नियंत्रण का स्वरूप अप्रत्यक्ष था और ये स्वदेश संगठनों से माध्यम से ही घरेलू बाजार में मीडिया उत्पाद वितरित करते थे। लेकिन आज वैश्विक मीडिया का प्रसार देशों की सीमा के भीतर तक हो चुका है जहां वो प्रत्यक्ष रूप से मीडिया के बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुके हैं। आज भले ही सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से जुड़े सवाल समय-समय पर उठते रहते हों और अनेक परिस्थितियों में इनका प्रतिरोध विभिन्न तरह के कट्टरपंथ के रूप में उभर रहा है( धार्मिक कट्टरपंथ और आतंकवाद के सामाजिक आधार का एक कारण यह भी है) लेकिन फिर भी विभिन्न देशों की सीमाओं के संदर्भ में इन अहसासों का कोई खास प्रतिरोध नहीं है।

मीडिया उत्पादों के वैश्विक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नए तरह का सूचना और संचार का परिदृश्य पैदा हुआ है।
समकालीन परिदृश्य में मीडिया उत्पादों और इनके वितरण के माध्यमों में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। प्रिंट,रेडियो टेलीविजन और मल्टीमीडिया इंटरनेट बहुत सारे मीडिया उत्पाद और व्यापक विकल्प पेश कर रहे हैं। विकसित देशों इस उभरते बाजार में प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विकसित देशों में समाचार पत्रों का सर्कुलेशन घट रहा है और अनेक पुराने और प्रतिष्ठित मीडिया संगठन बंद होकर बाजार से बाहर हो गए हैं। नए बाजार में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लगभग हर समाचार पत्र और मीडिया संगठन इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है और इंटरनेट पर ये उपलब्ध हैं। लेकिन इंटरनेट पर इनकी मौजूदगी ने संकट को दूर करने की बजाय इसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। दरअसल विकसित देशों में जहां लगभग तीन-चौथाई लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और वह समाचार पत्रों को इंटरनेट पर ही पढ़ लेते है। इस वजह से समाचार पत्र पढे़ तो जा रहे हैं लेकिन वह सर्कुलेशन के दायरे से बाहर हो रहे और इसका समाचार पत्रों की बिक्री पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

विकसित देशों में मीडिया बाजार एक ठहराव की स्थिति में आ गया है और एक मीडिया की कीमत पर दूसरे मीडिया के चयन की प्रक्रिया शुरु हुई है। इस कारण प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के बीच एक तरह होड़ शुरु हो गयी है। भारत जैसे विकसाशील देशों में मीडिया बाजार में अभी ठहराव की स्थिति पैदा नहीं हुई है और हर मीडिया प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट का विस्तार हो रहा है। समाज के नए-नए तबके मीडिया बाजार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं। भारत में यह माना जा रहा है कि लगभग 30 करोड़ लोग मध्यवर्गीय हो चुके हैं जिनके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और इस कारण वे नए-नए उपभोक्ता उत्पाद के खरीददार होने की क्षमता रखते हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर वर्ष 3 करोड़ लोग मध्यमवर्ग की श्रेणी में शामिल हो रहे हैं और इन लोगों की क्रय शक्ति इतनी बढ़ रही है कि वे विभिन्न तरह के मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि में लोगों के मीडिया उत्पादों के उपयोग में भी परिवर्तन आ रहे हैं। अगर आज प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के उपभोक्ताओं का तुलनात्मक उपभोग पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोगों की मीडिया उत्पादों को खरीदने की प्राथमिकताओं में लगातार परिवर्तन आ रहे हैं। इस संदर्भ में हम बात का उल्लेख करना सामयिक होगा कि रेडियो माध्यम की जब लगभग अनदेखी की जा रही थी तो अचानक ही इस माध्यम ने जबर्दस्त वापसी की और भारत में पिछले दो वर्षों में रेडियो माध्यम की वृद्धि दर अन्य माध्यमों से कहीं अधिक रही।

नया वैश्विक मीडिया

समकालीन मीडिया परिदृश्य में केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। एक ओर तो नई प्रोद्योगिकी और इंटरनेट ने किसी भी व्यक्ति विशेष को अपनी बात पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक पहुंचाने का मंच प्रदान किया है तो दूसरी ओर मुख्यधारा मीडिया में केन्द्रीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है। पूरे विश्व और लगभग हर देश के भीतर मीडिया शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है। एक ओर तो मीडिया का आकार विशालकाय होता जा रहा है और दूसरी ओर इस पर स्वामित्व रखने वाले संगठनों कॉर्पोरेशनों की संख्या कम होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों से यह प्रक्रिया चल रही है और अनेक बड़ी मीडिया कंपनियों ने छोटी मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। इसके अलावा कई मौकों पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के बीच विलय से भी मीडिया सत्ता के केन्द्रीकरण को ताकत मिली है।

आज वैश्विक संचार और सूचना तंत्र पर चन्द विशालकाय बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है जिनमें से अधिकांश अमेरिका में स्थित हैं। बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन स्वयं अपने आप में व्यापारिक संगठन तो हैं ही लेकिन इसके साथ ही ये सूचना-समाचार और मीडिया उत्पाद के लिए एक वैश्विक बाजार तैयार करने और एक खास तरह के व्यापारिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करते हैं। इन कॉर्पोरेशनों के इस व्यापारिक अभियान में पत्रकारिता और सांस्कृतिक मूल्यों की कोई अहमियत नहीं होती। इस रूझान को आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट रूप से भी देखा जा सकता है। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि वैश्विक मीडिया वैश्विक व्यापार के अधीन ही काम करता है और दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं।
पूरी वैश्विक मीडिया व्यवस्था पर इस वक्त मुश्किल से नौ-दस मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है और इनमें से अनेक कॉर्पोरेशनों का एक-तिहाई से भी अधिक कारोबार अपने मूल देश से बाहर दूसरे देशों में होता है। उदाहरण के लिए रूपर्ट मडॉक की न्यूज कॉर्पोरेशन का अमेरिका ,कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और लैटिन अमेरिका में मीडिया के एक हिस्से पर स्वामित्व है। जर्मनी के बर्टैल्समन्न कॉर्पोरेशन का विश्व के 53 देशों की 600 कंपनियों में हिस्सेदारी है। विश्व की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी एओएल टाइम वार्नर भी अमेरिका की है और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी वियाकॉम कंपनी भी अमेरिका की है जिनका विश्व के मीडिया बाजार के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण है। सोनी कॉर्पोरेशन शुरु में इलेक्ट्रोनिक्स के उत्पादों में नाम कमा चुका था लेकिन आज एक मीडिया कंपनी के रूप में दुनिया भर में इसकी एक हजार सहयोगी कंपनियां काम कर रही हैं। इनके अलावा डिज्नी, वियाकॉम, एमटीवी, टेली-कम्युनिकेशन इंक, यूनीवर्सल( सीग्राम), माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू का भी एक बड़े बाजार पर कब्जा है जो लगभग दुनिया के हर देश में फैला हुआ है। अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक जैसी हथियार बनाने वाले कॉर्पोरेशन ने भी मीडिया जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है और अमेरिका के एक प्रमुख समाचार चैनल एनबीसी पर इसका नियंत्रण है।

इन विशालकाय कॉर्पोरेशनों के बाद दूसरी परत के भी मीडिया संगठन हैं जिनका व्यापार दुनिया भर में बढ़ रहा है। इस वक्त विश्व में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से उभरते सेक्टरों में से एक है और रोज नई-नई कंपनियां अपना नया और अलग मीडिया उत्पाद लेकर बाजार में कूद रही हैं। अधिकांश बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन संचार के क्षेत्र के जुड़े कई सेक्टरों में काम कर रहे हैं जिनमें समाचार-पत्र और रेडियो और टेलीविजन चैनल के अलावा पुस्तक प्रकाशन, संगीत, मनोरंजन पार्क और अन्य तरह के मीडिया और मनोरंजन उत्पाद शामिल हैं। प्रोद्योगिक क्रांति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए अपार संभावनाओं को जन्म दिया है। आज अधिकांश बड़े मीडिया कॉर्पोरेशन दुनिया भर में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। अनेक कॉर्पोरेशनों ने या तो किसी देश में अपनी कोई सहयोगी कंपनी खोल ली है या किसी देशी कंपनी के साथ साझेदारी कर ली है। हमारे देश में ही अनेक बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों के भारतीय संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। ये वैश्विक संगठन अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए स्थानीयकरण की ओर उन्मुख हैं और स्थानीय जरूरतों और रुचियों के अनुसार अपने उत्पादों को ढाल रहे हैं। इस तरह भूमंडलीकरण स्थानीयता का रूप ग्रहण कर रहा है और बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों की ये स्थानीयता दरअसल उनके ही वैश्विक उपभोक्ता मूल्यों और व्यापार संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं।

इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की अवधारणा भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही है और आज यह अवधारणा पहले से कहीं अधिक व्यापक गहरी और विशालकाय हो चुकी है। वैश्विक सूचना और संचार तंत्र पर आज पश्चिमी देशों का नियंत्रण और प्रभुत्व उससे कहीं अधिक मजबूत हो चुका है जिसे लेकर कुछ दशक पहले विकासशील देशों में विरोध के प्रबल स्वर उठ रहे थे। लेकिन आज अगर सांस्कृतिक उपनिवेशवाद पर पहले जैसी बहस नहीं चल रही है तो इसका मुख्य कारण यही है कि शीत युद्ध के बाद उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों की सामुहिक सौदेबाजी की क्षमता लगभग क्षीण हो गयी है। दूसरा शीत युद्ध के बाद दो विचारधाराओं के बीच संघर्ष का अंत हो गया और पश्चिमी विचारधारा ही प्रभुत्वकारी बन गयी और इतिहास के इस दौर में इसका कोई विकल्प नहीं उभर पाया। इन कारणों की वजह से पश्चिमी शैली की उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक स्तर पर मुक्त अर्थतंत्र और इनके विस्तार के लिए भूमंडलीकरण और विश्व बाजार के विस्तार - यही आज की विश्व व्यवस्था के मुख्य स्तंभ हैं। राजनीति और आर्थिकी के इस स्वरूप के अनुरूप ही सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य ढल रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में पश्चिमी जीवन शैली और सांस्कृतिक मूल्यों का ही विस्तार हो रहा है और वैश्विक मीडिया इसमें अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। दरअसल भूमंडलीकरण की मौजूदा प्रक्रिया एक " टोटल पैकेज" है जिसमें राजनीति, आर्थिकी और संस्कृति तीनों ही शामिल हैं। मीडिया नई जीवनशैली और नए मूल्यों का इस तरह सृजन करता है इससे नए उत्पादों की मांग पैदा की जा सके और एक बाजार का सृजन किया जा सके। अनेक अवसरों पर मीडिया ऐसे उत्पादों की भी मांग पैदा करता है जो स्वाभाविक और वास्तविक रूप से किसी समाज की मांग नहीं होते हैं।

निष्कर्ष के तौर पर यह कह सकते हैं कि शीत युद्ध के उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था पर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पश्चिम का दबदबा है और वैश्विक मीडिया को भी यही नियंत्रित करता है। मीडिया पर नियंत्रण का मतलब किसी भी व्यक्ति, देश, संस्कृति, समाज आदि की छवि पर भी नियंत्रण करना है और इसी नियंत्रण से सही-गलत के पैमाने निर्धारित होते हैं। मीडिया के नियंत्रण से विरोधी को शैतान साबित किया जा सकता है और अपनी तमाम बुराइयों को दबाकर अपनी थोड़ी सी अच्छाइयों का ढिंढोरा पीटा जा सकता है। मीडिया ऐसे मूल्य और मानक तय करता है जिनके आधार पर यह तय होता है कि कौन सा व्यवहार सभ्य है और कौन सा असभ्य ? इसी निर्धारण से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की सीमा शुरु होती है।

हिन्दी मीडिया

भारतीय मीडिया के मानचित्र पर भारी परिवर्तन आ रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा और एक हद तक ऐतिहासिक परिवर्तन भारतीय भाषाओं और खास तौर से हिन्दी भाषा के मीडिया का भारी विस्तार है। देश में एक तरह की मीडिया क्रांति अगर आयी है तो इसका मुख्य कारण हिन्दी मीडिया की चहुंमुखी वृद्धि और विकास है। सत्तर के दशक में नई प्रोद्योगिकी के आने के समय से ही हिन्दी मीडिया का विस्तार शुरु हो गया था। नई प्रोद्योगिकी से समाचारों को कई केन्द्रों से प्रकाशित करना संभव हो गया। इससे मीडिया तक लोगों की पहुंच का विस्तार हुआ और इसी के साथ साक्षरता बढ़ने से नए-नए लोग समाचार पत्र पढ़ने लगे और क्रयशक्ति बढ़ने से भी अधिक लोग समाचार पत्र खरीदने लगे। साक्षरता के संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है हिन्दी भाषी क्षेत्रों में नव साक्षर केवल हिन्दी ही पढ़ लिख सकते थे जबकि अंग्रेजी पढ़-लिख सकने वाले पहले से ही समाचारपत्रों के पाठक थे। इसलिए पिछले कुछ दशकों में हिन्दीभाषी क्षेत्रों में समाचारपत्रों जितना भी विस्तार हुआ है उसका बहुत बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया के खाते में ही जाता है। 70 के दशक के दौरान देश में राजनीतिक संघर्ष भी तेज हो चुका था। यह दौर विचारधारात्मक राजनीति संघर्ष का दौर था और इस राजनीतिक कारण से भी समाचारपत्रों में लोगों की रुचि बढ़ती चली गयी जिसकी वजह से समाचार पढने (खासकर हिन्दी समाचारपत्र) वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई।

आज देश में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पहले और दूसरे नंबर के समाचार पत्र हिन्दी में हैं। देश के दस सबसे बड़े समाचार पत्रों में 9 हिन्दी भाषा के हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि सत्तर के दशक में हिन्दी मीडिया में एक क्रांति की शुरुआत हुई। इस दौर में हिन्दी मीडिया का जबर्दस्त विस्तार हुआ और साथ ही इसके ढांचे और स्वामित्व में भी बड़े परिवर्तन आए। परंपरागत रूप से भारतीय मीडिया को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, और जिला स्तर पर बांटा जाता था। इस समाचार पत्र की क्रांति के दौर में क्षेत्रीय मीडिया का सबसे अधिक विस्तार हुआ और राष्ट्रीय मीडिया के भी उस हिस्से का भी विस्तार हुआ जिसने क्षेत्रीय मीडिया में प्रवेश किया। समाचार पत्रों के अनेक स्थानों के प्रकाशन और समाचारों के स्थानीयकरण से जिला स्तर का वह छोटा प्रेस विलुप्त हो जिसका सर्कुलेशन हजार-दो हजार होता था और जो स्थानीय समस्याओं पर केन्द्रित था। अब बड़े अखबार ही स्थानीय अखबार की जरूरतों को पूरा करने लगे।

नब्बे के दशक के मीडिया का व्यापारीकरण और विस्तार भी भारतीय भाषाओं पर ही केन्द्रित रहा है और इस विस्तार का सबसे बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया का ही था। पिछले कुछ समय में मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जो बेमिसाल वृद्धि हुई है वह मुख्य रूप से भारतीय और हिन्दी भाषा में ही हुई है। टेलीविजन ने मात्र दस वर्षों में एक बड़े उद्योग का रूप धारण कर लिया है। टेलीविजन ने आज देश के राजनीतिक और सामाजिक मानचित्र पर अपने लिए अहम और महत्वपूर्ण भूमिका अर्जित कर ली है। आज देश के पूरे मीडिया और मनोरंजन उद्योग में टेलीविजन का हिस्सा सबसे अधिक है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा केबल टेलीविजन का बाजार है। दरअसल टेलीविजन माध्यम अपने स्वभाव से अंतरंग मीडिया है और साथ ही यह मीडिया लोकप्रिय संस्कृति से भी काफी गहरे से संबद्ध रहता है। इस कारण टेलीविजन मीडिया का हिन्दी भाषी राज्यों में जो विस्तार हो रहा है वह एर तरह से हिन्दी मीडिया का ही विस्तार है। सिनेमा और मनोरंजन के क्षेत्र में हिन्दी मीडिया केवल हिन्दीभाषी प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे देश में ही अच्छा-खासा बाजार पैदा कर चुका है। इस इकाई में भारतीय मीडिया के विकास के जिन रुझानों का विवरण दिया गया है उसी दिशा में हिन्दी मीडिया की भी वृद्धि और विकास हो रहा है। दरअसल भारत की मौजूदा मीडिया क्रांति के बाद हिन्दी मीडिया का ही सबसे तेजतर विस्तार हुआ है और आने वाले समय में यह रुझान और भी प्रबल होने की संभावना है।

समकालीन मीडिया परिदृश्य

समकालीन मीडिया परिदृश्य
विभाजित दुनिया, विखंडित मीडिया

सुभाष धूलिया

समकालीन मीडिया परिदृश्य अपने आप में अनोखा और बेमिसाल है। जनसंचार के क्षेत्र में जो भी परिवर्तन आए और जो आने जा रहे है उनको लेकर कोई भी पूर्व आकलन न तो किया जा सका था और ना ही किया जा सकता है। सूचना क्रांति के उपरांत जो मीडिया उभर कर सामने आया है वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जीवन के केन्द्र में है। आज मानव जीवन का लगभग हर पक्ष मीडिया द्वारा संचालित हो रहा है। आज मीडिया इतना शक्तिशाली और प्रशावशाली हो गया है कि लोकतांत्रिक विमर्श अधिकाधिक मीडिया तक ही सीमित होता जा रहा है। एक तर्क ये भी है कि लोकतंत्र का स्थान मीडिया तंत्र ले चुका है। संचार क्रांति के उपरांत आज पूरी दुनिया एक वैश्विक गांव बन चुकी है। दूरसंचार,सेटेलाइट और कम्प्यूटर के संबद्ध होने से आज हर तरह की सूचनाओं का आदान-प्रदान तत्काल और बाधाविहीन हो चुका है। आज इंटरनेट के रूप में एक ऐसा महासागर पैदा हो गया है जहां मीडिया की हर नदी, हर छोटी-मोटी धाराएं आकर मिलती हैं। इंटरनेट के माध्यम से आज किसी भी क्षण दुनिया के किसी भी कोने में संपर्क साधा जा सकता है। इंटरनेट पर सभी समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन चैनल उपलब्ध हैं। आज हर बड़े से बड़े और छोटे से छोटे संगठनों की अपनी वेबसाइट्स हैं जिन पर इनके बारे में अनेक तरह की जानकारियां हासिल की जा सकती है।

इंटरनेट पर नागरिक पत्रकार ने भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज की है। इंटरनेट पर ब्लॉगों के माध्यम से अनेक तरह की आलोचनात्मक बहसें होती हैं, उन तमाम तरह के विचारों को अभिव्यक्ति मिलती है जिनकी मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया अनदेखी ही नहीं उपेक्षा भी करता है। इनमें कॉर्पोरेट व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करने की भी क्षमता होती है। भले ही ब्लॉग एक सीमित तबके तक ही सीमित हो लेकिन फिर भी ये समाज का एक प्रभावशाली तबका है जो किसी भी समाज और राष्ट्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ब्लॉगिंग ने अत्याधिक व्यापारीकृत मीडिया बाजार में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करायी है। विकासशील देशों में ब्लॉग लोकतांत्रिक विमर्श के मानचित्र पर अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। ब्लॉग निश्चय ही आज की शोरगुल वाले मीडिया बाजार की मंडी में एक वैकल्पिक स्वर को अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस नए वैकल्पिक मीडिया में कुछ निहित कमजोरियां भी हैं। मीडिया बाजार में उपस्थित शक्तिशाली तबके ब्लॉग की दुनिया को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। बड़े कॉर्पोरेट संगठन और सरकारी एजेंसिया भी अनेक ब्लॉग खोलकर या पहले से ही सक्रिय ब्लॉगों में प्रवेश कर इस लोकतांत्रिक विमर्श को प्रभावित करने की अपार क्षमता रखते हैं। ऐसे में शक्तिशाली संगठनों का ब्लॉगसंसार में दखल के परिणामों का आकलन करना भी जरुरी हो जाता है। मीडिया के केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण को समझने के लिए शक्तिशाली संगठनों की इस क्षमता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । ब्लॉग के गुरिल्ला ने व्यापारीकृत मीडिया के बाजार में प्रवेश कर हलचल तो पैदा कर दी है लेकिन अभी ये देखा जाना बाकी है कि यह इस मंडी में अपने लिए कितने स्थान का सृजन कर पाता है और किस हद तक कॉर्पोरेट और सरकारी संगठनों के इसे विस्थापित करने के प्रयासों को झेल पाता है। इस दृष्टि से सबसे अधिक आशावाद इस बात से पनपता है कि मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया के समाचारों और मनोरंजन की अवधारणाओं में जो रुझान( विकृतियां) पैदा हो रही है उससे इसकी साख में जबर्दस्त गिरावट आ रही है और अब लोग इनसे ऊबने लगे हैं,निराश होने लगे हैं। मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया की साख में इस गंभीर संकट से ब्लॉगसंसार के लिए अपने स्थान से विस्तार की नई संभावनाएं पैदा हो गयी हैं। लेकिन अभी ये थोड़ा कशमकश का दौर है और ऐसा नहीं कहा जा सकता कि साख के इस संकट की कॉर्पोरेट मीडिया अनदेखी ही करता रहेगा और बाजार इस स्थिति में बदलाव लाने में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
आज मीडिया बाजार को लेकर भी भ्रम की स्थिति है। मीडिया उत्पाद, उपभोक्ता और विज्ञापन उद्योग के संबंध अभी स्थायित्व के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं। आज भले भी मीडिया के बाजार के प्रति कोई साफ सुथरी सोच विकसित नहीं हो पायी है लेकिन अभी एक बाजार है, इसे मापने के जो पैमाने हैं विज्ञापन उद्योग इससे ही प्रभावित होता है। इस बाजार को हथियाने की होड़ में इंफोटेंनमेंट नाम के नए मीडिया उत्पाद का जन्म हुआ है जिसमें सूचना के स्थान पर मनोरंजन को प्राथमिकता मिलती है। इसके तहत सूचना की विषयवस्तु बौद्धिक स्तर पर इतनी हल्की और मनोरंजक बना दी जाती है कि वह एक विशाल जनसमुदाय को आकृष्ट कर सके। अनेक अवसरों पर इस तरह के समाचार और समाचार कार्यक्रम पेश किये जाते है कि वो लोगों का ध्यान खींच सकें भले ही साख और विश्वसनीयता के स्तर पर वो कार्यक्रम खरे ना उतरें।

इसके साथ ही 'पॉलिटिकॉनटेंमेंट' की अवधारणा का भी उदय हुआ है जिसमें राजनीति और राजनीतिक जीवन पर मनोरंजन उद्योग हावी हो रहा है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के विषयों का चयन, इनकी व्याख्या और प्रस्तुतीकरण पर मनोरंजन के तत्व हावी होते चले जा रहे हैं। कई मौकों पर बड़े राजनीतिक विषयों को सतही रूप से और एक तमाशे के रूप में पेश किया जाता है और आलोचनात्मक होने का आभास भर पैदा कर वास्तविक आलोचना किनारे कर दी जाती है। कई अवसरों पर टेलीविजन के परदों पर प्रतिद्वंदी राजनीतिज्ञों की बहसों का इस दृष्टि से मूल्यांकन करें तो यह तमाशा ही अधिक नजर आता है। इन बहसों में वास्तविक विषयों और विभिन्न राष्ट्रीय परिपेक्ष्य नदारद रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम बुनियादी राजनीतिक मदभेदों के स्थान पर तूतू-मैंमैं के मनोरंजन की ओर ही अधिक झुके होते हैं। इससे अनेक बुनियादी सवाल पैदा होते हैं और राजनीति के इस सहतीकरण और एक हद तक विकृतीकरण से लोकतंत्र के ह्रास का आकलन करना जरुरी हो जाता है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के सतहीकरण की इस प्रकिया का सबसे बड़ा हथियार सेलेब्रिटी संस्कृति का उदय है। सेलेब्रिटीज का राजनीति में प्रवेश हो रहा है जिससे राजनीतिज्ञ सेलेब्रिटीज बन रहे हैं। सेलेब्रिटी संस्कृति की वजह से राजनीतिक विमर्श के संदर्भ में एक नए टेलीविजन का उदय हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों पर एक बड़ा फिल्मस्टार टेलीविजन के पर्दे पर आधे घंटे तक यह बताता है कि क्या करना चाहिए तो दूसरी ओर राष्ट्रीय पार्टी का एक बड़ा नेता सेलेब्रिटी बनने के लिए इसी राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध विषय को इस तरह पेश करता है कि देखने वालों को मजा आ जाए और वह विषय की तह में कम जाता है।

मुंबई पर आतंकवादी हमलों के उपरांत गंभीर समाचारों, राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध विषयों पर इस तरह का रुझान स्पष्ट रूप से देखने को मिला था। आतंकवाद से देश किस तरह लड़े- इस बात की नसीहत वो लोग टेलीविजन पर्दे पर दे रहे थे जिनका न तो सुरक्षा और न ही आतंकवाद जैसे विषयों पर किसी तरह की समझ का कोई रिकॉर्ड है ना इन विषयों पर कभी कोई योगदान दिया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि एक नरम ( सॉफ्ट) मीडिया का उदय हुआ है जो कड़े-कठोर विषयों का नरमी से पेश कर लोगों को रिझाना चाहता है और कुल मिलाकर इस तरह गंभीर राजनीतिक विमर्श का ह्रास हो रहा है। इसी दौरान लोकतांत्रित राजनीति के चरित्र में ही भारी बुनियादी परिवर्तन आए और इसी के अनुरूप मीडिया तंत्र के साथ इसके संबंध पुनरभाषित हुए। दूसरा विश्वभर में आर्थिक विकास से उपभोक्ताओं की नयी पीढी़ का उदय हुआ। इससे मीडिया के लिए नए बाजार पैदा हुए और इस बाजार में अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए एक नई तरह की बाजार होड़ पैदा हुई। इस बाजार होड़ के कारण मीडिया उन उत्पादों की ओर झुकने लगा जो व्यापक जनसमुदाय को आकृष्ट कर सकें।

ऐसा नहीं है कि समाचारों में मनोरंजन का तत्व पहले नहीं रहा है। समाचारों को रुचिकर बनाने के लिए इनमें हमेशा ही नाटकीयता के तत्वों का समावेश किया जाता रहा है। लेकिन अधिकाधिक उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने की होड़ में समाचारों को मनोरंजन के तत्वों का विस्तार होता चला गया। तीसरा मीडिया के जबर्दस्त विस्तार और चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों के कारण भी समाचारों की मांग बेहद बढ़ गयी जिसकी वजह से ऐसी अनेक घटनाएं भी समाचार बनने लगी जो मुख्यधारा की पत्रकारिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी। चौधा पहले विचारधारात्मक राजनीतिक संघर्ष , स्वतंत्रता और उसके बाद विकास की आकांक्षा के दौर में मुख्यधारा समाचारों में लोगों की दिलचस्पी होती थी। विकास की गति बढ़ने से ऐसे सामाजिक तबकों का उदय हुआ जो उन तमाम मुद्दों के प्रति उदासीन होते चले गए जो इससे पहले तक ज्वलंत माने जाते थे। इसी के समानांतर अतिरिक्त क्रय शक्ति के समाजिक तबके के विस्तार के कारण माडिया के व्यापारीकरण का दौर भी शुरु हुआ। नए अतिरिक्त क्रय शक्ति वाला तबका ही बाजार था और इस बाजार ने एक नया सामाजिक माहौल पैदा किया जिसमें 'ज्वलंत' समाचार 'ज्वलंत' नहीं रह गए और एक तरह की अराजनीतिकरण की प्रकिया शुरु हुई। अराजनीतिकरण की यह प्रकिया समाचारों के चयन को प्रभावित करने लगी।

समाज के संपन्न तबकों में राजनीति के प्रति उदासीनता कोई नयी बात नहीं है। विकास का एक स्तर हासिल करने के बाद इस तबके को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता की बागडोर किसके हाथ में है जबतक कि राजनीति किसी बड़े परिवर्तन की ओर उन्मुख ना हो। इस कारण भी समाचारों का मूल स्वाभाव और चरित्र प्रभावित हुआ और व्यापारीकरण की गति तेज हुई। लेकिन व्यापारीकरण की इस प्रकिया के प्रभाव और परिणामों के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच एक बड़ा बुनियादी अंतर है। विकसित देशों में व्यापारीकरण की यह प्रकिया तब शुरु हो गयी जब लगभग पूरा समाज ही विकास का एक स्तर हासिल कर चुका था। लेकिन विकासशील देशों में विकास की यह प्रकिया तभी शुरु हो गयी जब समाज का एक छोटा सा तबका ही विकसित की श्रेणी में आ पाया था। विकासशील देशों में विकसाशीलता के दौर में मीडिया से सहभागी होने की अपेक्षा की जाती थी जो संभव नहीं हो पायी और व्यापारीकरण के कारण विकास का एजेंडा काफी हद तक किनारे हो गया। विकसशील समाज पर व्यापारीकरण की इस प्रकिया के प्रभाव और परिणामों का सही मूल्यांकन कर पाना अभी संभव नहीं दिखता लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसके नकारात्मक परिणाम सकारात्मक परिणामों की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और गहरे होने जा रहे हैं। अपेक्षतया बौद्धिक रूप से कुशल उपभोक्ता-नागरिक और एक विकासशील समाज के एक 'आम' नागरिक पर एक ही तरह के मीडिया उत्पाद का प्रभाव भिन्न होगा-कहीं यह मनोरंजन-रोमांच पैदा कर सकता है तो अंयत्र यह वैज्ञानिक सोच पर कुठाराघात कर अंधविश्वास की जड़ों को गहरा कर सकता है।

मीडिया और मनोरंजन का रिश्ता भले ही नया नहीं है लेकिन नया यह है कि इतिहास में मीडिया इतना शक्तिशाली कभी नहीं था और मनोरंजन के उत्पाद लोकप्रिय संस्कृति से उपजते थे। आज शक्तिशाली मीडिया लोकप्रिय संस्कृति के कुछ खास बिंदुओं के आधार पर मनोरंजन की नई अवधारणाएं पैदा कर रहा है और इनसे लोकप्रिय संस्कृति के चरित्र और स्वरूप को बदलने में सक्षम हो गया है। यह प्रकिया आज इतनी तेज हो चुकी है कि यह कहना मुश्किल हो गया है कि 'लोकप्रिय' क्या है और 'संस्कृति' क्या है? यह कहना भी मुश्किल हो गया है कि इनका सृजन कहां से होता है और कौन करता है ? पर फिर भी अगर हम लोकप्रिय संस्कृति को उसी रूप में स्वाकार कर लें जिस रूप में हम इसे जानते थे तो हम यह कह सकते हैं कि आज लोकप्रिय संस्कृति समाचार और सामाचारों पर आधारित कार्यक्रमों पर हावी हो चुकी है और गंभीर और सार्थक विमर्श का स्थान संकुचित हो गया है। इस प्रकिया से तथ्य और कल्पना का एक घालमेल सा पैदा हो गया है जिससे पैदा होने वाला समाचार उत्पाद अपने मूल स्वभाव से ही समाचार की अवधारणा से भटका हुआ दिखायी पड़ता है।

नब्बे के दशक में एक नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के उपरांत एक उपभोक्ता की राजनीति और एक उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय हुआ और इसका सीधा असर समाचारों पर पड़ा। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नए-नए उपभोक्ता उत्पाद बाजार में आए और इनको बेचने के लिए नई-नई मीडिया तकनीकियों का इसतेमाल किया गया जिसके परिणामस्वरूप 'सेलेब्रिटी लाइफस्टाइल ' त्रकारिता का उदय हुआ। एक नया मेट्रो बाजार का उदय हुआ और इसके अनुरूप नए-नए उपभोक्ता उत्पादों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन देर सवेर इस बाजार और इस बाजार की मांग में ठहराव आना स्वाभाविक है। इस स्थिति में बाजार और समाचार के संबंद्ध भी प्रभावित होंगे। मेट्रो बाजार को हथियाने की होड़ में बाकी देश की अनदेखी की और एक हद तक तो स्वयं मेट्रो मध्यमवर्ग की संवेदनाओं को भी ठेस पहुंचायी। इस कारण एक राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में समाचार एक तरह से स्वाभाविक स्थान से विस्थापित होकर शरणार्थी बन गए जिनका कोई पता-ठिकाना नहीं बचा। समाचारों के विषय चयन, समाचार या घटनाओं को परखने की इनकी सोच और दृष्टिकोण के पैमाने और मानदंड बेमानी हो गए इसके परिणामस्वरूप आज किसी एक खास दिन एक उपभोक्त-नागरिक को इस बात का भ्रम होता है कि देश-दुनिया की महत्वपूर्ण घटनाएं कौन सी है? परंपरागत रूप से मीडिया एक ऐसा बौद्धित माध्यम होता था जो लोगों को यह भी बताता था कि कौन सी घटनाएं उनके जीवन से सरोकार रखती हैं और उनके लिए महत्वपूर्ण है। तब समाचारों को नापने-परखने के कुछ सर्वमान्य मानक होते थे जो आज काफी हद तक विलुप्त से हो गए हैं और एक उपभोक्ता-नागरिक समाचारों के समुद्र में गोते खाकर कभी प्रफुल्लित होता है, कभी निराश होता है और कभी इतना भ्रमित होता है कि समझ ही नहीं पाता कि आखिर हो क्या रहा है ?

गुफ्तगू बंद न हो, बात से बात चले

गुफ्तगू बंद न हो, बात से बात चले
सुभाष धूलिया


दक्षिण एशिया पर हिंसक धार्मिक कट्टरपंथ के बादल गहरे होते जा रहे हैं। यह सकंट इसलिए भी गंभीर हो जाता है कि दक्षिण एशिया के दो सबसे बड़े देश नाभिकीय हथियारों से लैस हैं। पाकिस्तान में तो हिंसक धार्मिक कट्टरपंथ और इस्लामी उग्रवाद की ताकत अनेक कारणों से बढ़ रही है और स्वयं पाकिस्तान के राजनीतिक और सैनिक प्रतिष्ठान में इस तरह के तत्वों की कमी नहीं है। ऐसे में नाभिकीय पाकिस्तान केवल भारत के या समूचे विश्व के लिए नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह चिंता इस कारण भी और गहरी हो जाती है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाएं इस कदर कमजोर हैं कि बार-बार आशंकाएं पैदा होती है कि क्या ये सरकार हिंसक इस्लामी कट्टरपंथ और धार्मिक उग्रवाद से प्रभावशाली ढंग से लड़ पा रही है। पाकिस्तानी सैनिक शासन भी इस तरह के उग्रवाद को ताकत के बस पर दबाने में सफल रहे हैं और अपने इतिहास में अधिकांश समय तक सैनिक तानाशाहियों से शासित पाकिस्तान की समस्याओं का हल नहीं हुआ बल्कि ये गहराती चली गयीं और नई नई समस्याएं पैदा होती चली गयीं।

अस्तित्व में आने बाद से ही पाकिस्तान के पूरे राजनीतिक जीवन की धुरी भारत-विरोधी रही और इसी के समांतर भारत में भी पाकिस्तान विरोध प्रबल रहा और दोनों देश एक-दूसरे को अस्थिर करने में ही केन्द्रित रहे। कश्मीर पाकिस्तान की नकारात्मक राजनीति का केन्द्र बना रहा और इस सवाल पर पाकिस्तान के शासकों ने व्यावहारिक रुख अपनाने और वास्तविक राष्ट्रीय हितों को संबोधित करने के बजाय छद्म राष्ट्रवाद का सहारा लिया। भारत में भी पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद का अस्तित्व बना रहा। इस तरह राष्ट्रवाद के अस्तित्व में रहने से कभी भी दोनों देशों के बीच ऐसी कोई वार्ता नहीं हो पायी जो दीर्घकाल में सैनिक होड़ और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति से ऊपर उठकर वास्तविक रुप से अच्छे संबंधों का मार्ग प्रशस्त करती। दोनों देशों के बीच अब तक के इतिहास में जितनी भी वार्ताएं हुई, जितने भी शिखर सम्मेलन हुए वे किसी तात्कालिक संकट के समाधान के लिए ही हुए। जब कोई संकट या तकरार पैदा हुई तो वार्ता हुई, शिखर सम्मेलन हुए। ऐसा कभी नहीं हुआ कि संकट या टकराव की स्थिति ना होने पर कोई वार्ता या शिखर सम्मेलन हुआ हो जिसका मकसद वास्तविक रूप से अच्छे संबंध कायम करना और इस क्षेत्र को तनाव और युद्ध से मुक्त करना रहा हो।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल का इस पृष्ठभूमि और संदर्भ में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने सही ही कहा है कि अगर दुनिया बदल गयी है तो नई परिस्थितियों को अब पुराने चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। दरअसल मनमोहन सिंह की इस पहल का जितना भी विरोध हो रहा है तो इसका आधार कहीं ना कहीं पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद ही है। लेकिन आज इस बात का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है कि क्या आज पाकिस्तान भारत के लिए उस तरह का खतरा है जितना कि अस्तित्व में आने से लेकर अमेरिका पर आतंकवादी हमलों तक बना रहा? अमेरिका पर आतंकवादी हमलो के उपरांत पाकिस्तान उन देशों में अफगानिस्तान के बाद दूसरे नंबर पर था जिन पर अमेरिकी आक्रमण के बारे में सोचा गया था। अफगानिस्तान पर तो आक्रमण होना ही था लेकिन क्योंकि अफगानिस्तान की इस्लामी सत्ता का सबसे बड़ा संरक्षक पाकिस्तान था इसलिए पाकिस्तान को चेतावनी नहीं बल्कि धमकी दी गयी थी कि अमेरिका के साथ आओ, मदद लो या अमेरिका के विनाशकारी आक्रमण के लिए तैयार हो जाओ। पाकिस्तान के दृष्टिकोण से जनरल मुशर्रफ को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने 180 डिग्री की पलटी खाकर पाकिस्तान अमेरिकी हमले से बचा लिया।

अफगानिस्तान में मौजूद हिंसक इस्लामी कट्टरपंथ और धार्मिक उग्रवाद के खिलाफ पाकिस्तान ने जिस दिन अमेरिका के साथ हाथ मिलाया उसी दिन दक्षिण एशिया का वह शक्ति संतुलन बदल गया जो पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से बना हुआ था। अब पाकिस्तान इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ अमेरिकी वैश्विक युद्ध में साझीदार था और भारत को वह चुनौती देने में समर्थ नहीं रह गया था जो अबतक देता आया था। कश्मीर में इस्लामी उग्रवाद को सैनिक और राजनीतिक मदद देने के सवाल पर भी पाकिस्तान काफी दह तक विकल्पहीन हो गया। अमेरिकी दवाब और पाकिस्तानी भूमि पर सीधे सैनिक कार्रवाई की चेतावनी के कारण पाकिस्तान को अफगान सीमा से लगे इलाकों और खासतौर पर स्वात घाटी में बड़ा सैनिक अभियान चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

अब सवाल यह पैदा होता है कि इस तरह के पाकिस्तान से भारत कैसे निबटे? प्रधानमंत्री की पहल को इस रूप में क्यों देखा जा रहा है कि यह पाकिस्तान स्थिति आतंकवाद को कई रियायत है? प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा है कि पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करनी होगी वरना एक संपूर्ण संवाद की प्रक्रिया को शुरु करना संभव नहीं हो पाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने बार-बार ये भी कहा कि अगर भारत कोई बातचीत ना करे तो क्या करे? युद्ध? पाकिस्तान के साथ बातचीत न करने का विकल्प क्या है? 26/11 के आतंकवादी हमलों को देश कभी नहीं भूल सकता लेकिन कम से कम अब जाकर तो यह मानना ही होगा कि इस हमले में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी तत्वों का हाथ था जिन्हें आईएसआई के तत्वों का संरक्षण प्राप्त था लेकिन इन हमलों में पाकिस्तान सरकार शामिल नहीं थी। निश्चित तौर पर इस मसले पर पाकिस्तान ने जो कुछ भी किया वह काफी अपर्याप्त रहा है लेकिन क्या बातचीत कर पाकिस्तान से यह नहीं कहना चाहिए कि वह आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करे? बहुत लंबे समय तक पाकिस्तानी सरकार भारत के खिलाफ आतंकवादियों को पूरी सैनिक और राजनैतिक मदद देती रही है लेकिन आज का परिस्थितियों में पाकिस्तान के लिए यह आत्महत्या से कम नहीं होगा।

आज की परिस्थितियों का मूल्यांकन, पुराने पड़ चुके पैमानों से नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री की पहल का जो भी विरोध संसद में हो रहा है, टेलीविजन के पर्दों पर विश्लेषण करने वाले रिटायर्ड राजनयिक और सैनिक जनरल पुराने पड़ चुके पैमानों से ही नई स्थिति का मूल्यांकन कर रहे हैं और ऐसा माहौल पैदा कर रहे हैं मानो भारत ने पाकिस्तान के सामने समर्पण ही कर डाला हो। एक समाचार पत्र के संपादकीय में कहा गया था कि "इस बयान से पाकिस्तान में खुशी की लहर दौड़ पड़ी है " । क्या दक्षिण एशिया की इस तरह की गंभीर राजनीतिक और सैनिक स्थिति का इस तरह का सतही मूल्यांकन किया जा सकता है? एक खास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर घरेलू राजनीति का काफी प्रभाव होता है। कई मौकों पर राजनीतिक नेतृत्व की सोच और जनमत के बीच टकराव भी पैदा होता है। दोनों देशों के बीच जब कभी भी कोई वार्ता, कोई पहल होगी, इस पर राजनीतिक नेतृत्व की सोच एक हो सकती है लेकिन देश के भीतर जनमत के स्तर पर जो प्रतिक्रिया होगी उसकी दोनों देशों की कोई भी सरकार अनदेखी नहीं कर सकती। कई मौकों पर सरकारों को वैदेशिक मामलों में फैसले लेने में इस घरेलू जनमत का भी सामना करना होता है और इससे बड़ा फैसला लेने में अड़चनें भी पैदा होती हैं। फिर दोनों देशों में राजनीति का स्वरूप ऐसा रहा है कि जो भी विपक्ष में होता है वह राष्ट्रीय हितों की बजाय लोकप्रिय संवेदनाओं और कभी-कभी सस्ती लोकप्रियता को ही अधिक संबोधित करता नजर आता है। प्रधानमंत्री की पहल को लेकर कुछ विपक्षी दलों और खासतौर पर भाजपा ने जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया है वह इस तरह की राजनीति की और ही इशारा करता है। निश्चय ही मिस्त्र में जारी किये गए संयुक्त बयान में बलूचिस्तान का उल्लेख एक राजनीतिक भूल है और इसे इसी रूप में लिया जाना चाहिए। इस राजनीतिक भूल से क्या वह सब कहा जा सकता है जो कहा जा रहा है और क्या इस भूल के आधार पर संयुक्त बयान के उन सारी बिंदुओं को नकारा जा सकता है जिनका संबध दक्षिण एशिया के भविष्य से है

आज की वैश्विक और दक्षिण एशिया की परिस्थितियां नई चुनौतियां पेश कर रही हैं और कुछ नए अवसर भी दे रही हैं। भारत की मौजूदा पहल इन चुनौतियों का सामना करने और इन अवसरों का लाभ उठाने की ओर उम्मुख है। अगर भारत और पाकिस्तान के बीच कभी कोई स्थायी शांति कायम हो सके तो इससे समूचे दक्षिण एशिया और यहां रहने वाले करोडो़-करोड़ो लोगों की तकदीर बदल जाएगी। और, अगर इस दिशा में एक बहुत छोटा सा कदम भी उठाना है तो बातचीत तो करनी ही होगी। मनमोहन सिंह भले ही इतिहास न रच पाएं पर यह छोटा सा कदम उन्होंने निश्चित रूप से उठाया है।

ऐतिहासिक द्वंद में फंसा अमेरिका

ऐतिहासिक द्वंद में फंसा अमेरिका
सुभाष धूलिया

दुनिया की बेमिसाल आर्थिक और सैनिक शक्ति आज अपने इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है। अमेरिका का सत्ता प्रतिष्ठान और अमेरिकी समाज -किसी ना किसी द्वंद में फंसा हुआ है। ओबामा ने परिवर्तन का नारा देकर अमेरिकी समाज में एक हलचल पैदा की - उस अमेरिका में जिसे लगता है कि कहीं कुछ बदलना चाहिए लेकिन क्या बदले इसकी कोई सुस्पष्ट तस्वीर उभरकर सामने नहीं आई थी । अब यह अमेरिका इस बदलाव की तस्वीर रचना चाहता है और दूसरा अमेरिका वह है जिसके पास इस विशालकाय आर्थिक और सैनिक ताकत का नियंत्रण है। यह वह अमेरिका है जिसकी नीतियां गहरे दलदल में फंसी थीं और उसे भी, परिवर्तन न सही, परिवर्तन का आभास पैदा करने की जरूरत थी, इसके लिए एक प्रतीक की जरुरत थी। शुरु में हमने हिचकिचाहट दिखाई लेकिन अंतत एक अश्वेत अमेरिकी को राष्ट्रपति स्वीकार कर लिया।

ओबामा आज अमेरिका के उस ऐतिहासिक टकराव के केन्द्र में हैं जो आर्थिक और सैनिक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सत्ता प्रतिष्ठान और अमेरिकी समाज के बीच पैदा हो गया है। इस टकराव का सबसे मुखर रूप अफगानिस्तान में सैनिक अभियान को लेकर प्रतिबिंबित हो रहा है। एक ओर ओबामा पर अफगानिस्तान और इराक से वापसी का दवाब है तो दूसरी ओर आर्थिक बदहाली की गिरफ्त में फंसे अमेरिका की स्वास्थ्य-शिक्षा में सुधार का दवाब है।

शीतयुद्धकालीन व्यवस्था में अमेरिकी सैन्यतंत्र ने बेमिसाल आयाम ग्रहण कर लिए थे। लेकिन शीतयुद्ध खत्म होने के बाद भी इसमें बेलगाम विस्तार जारी रहा। शीतयुद्ध के दौरान पूरी अमेरिकी व्यवस्था एक बड़े दुश्मन पर केन्द्रित थी लेकिन इसके पराभाव से अचानक भ्रम की सी स्थिति पैदा हो गई कि अब इस बेमिसाल सैनिक ताकत का भविष्य क्या होगा? सैनिक प्रतिष्ठान के अनेक सिद्धांतकारों ने तर्क दिए कि अब इस सैनिक ताकत का प्रयोग दुनिया को 'सभ्य और लोकतांत्रिक' बनाने के लिए करना चाहिए और इस संदर्भ में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' और 'उदार साम्राज्यवाद' जैसी अवधारणाओ को प्रतिपादित किया गया।

9/11 हमले से ऐसे कई सवालों का जवाब मिल गया और अमेरिकी सैन्यतंत्र की भूमिका फिर से केन्द्र में आ गई। अमेरिकी प्रशासन की डोर उस तबके के हाथ में आ गई जो दुनिया में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' के झंडे गाड़ना चाहता था। इस अभियान में वे आर्थिक हित भी जुड़ गये जो तेल संसाधनों पर नियंत्रण कायम करना चाहते थे और विशालकाय हथियार उद्योग भी गदगद हो उठा जो शीतयुद्ध खत्म होने की वजह से अपने भविष्य को लेकर आशंकित था। 9/11 ने एक ऐसा अवसर पैदा किया जिससे इन सभी हितों का गठजोड़ कायम हो गया और जिसके परिणामस्वरूप पहले अफगान और फिर इराक में सैनिक अभियान शुरु किए गए । अगर ये अभियान जरा भी सफल हुए होते तो ईरान के लक्ष्य पर भी अब तक गोला दागा जा चुका होता। 9/11 हमलों के आवेग में अफगान सैनिक अभियान का कहीं कोई प्रतिरोध नहीं हुआ लेकिन आवेग के थमने के साथ ही इन सैनिक अभियानों का औचित्य साबित करने के लिए लोकतंत्र और राष्ट्र-निर्माण के दावों का सहारा लिया गया। लेकिन आज ये सारे तर्क बेमानी साबित हो चुके हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि विदेशी सैनिक आधिपत्य के रहते लोकतंत्र का बीज नहीं बोया जा सकता और न ही युद्ध की धधकती आग के बीच राष्ट्र-निर्माण संभव है।

आज अफगानिस्तान और इराक में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' की अवधारणा की भी धज्जियां उड़ चुकी हैं और अगर इन दोनों देशों से अमेरिका वापस जाता है तो एक ऐसा शून्य पैदा होगा जिससे इन देशों के राष्ट्र-राज्य बने रहने पर भी संदेह पैदा होता है। ऐसे में अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर गंभीर मतभेद उभर रहे हैं। अफगानिस्तान में अमेरिका के सैनिक कमांडर स्टेनली मेक्रिस्टल सार्वजनिक रुप से कहा डाला कि अगर अफगानिस्तान में कई हजार और सैनिक भेजकर एक बड़ा जमीनी युद्ध नहीं छेड़ा गया तो एक वर्ष में अमेरिका पराजित हो जाएगा । इस जनरल को अमेरिका के सैनिक प्रतिष्ठान का पूरा समर्थन प्राप्त है। इससे स्पष्ट है कि अमेरिका में सैनिक प्रतिष्ठान ने अपनी कमर कस ली है और ओबामा पर इतना दवाब बना लिया है कि उनके विकल्प सीमित हो गये हैं। उपराष्ट्रपति बिदेन का मानना है कि जमीनी युद्ध के विस्तार के बजाय हवाई हमलो का अधिक इस्तेमाल किया जाये लेकिन वे भी युद्ध के ही विस्तार की वकालत कर रहे हैं -अंतर सिर्फ इतना है कि बिदेन की रणनीति से अमेरिका की वापसी का रास्ता आसान होगा और जमीनी युद्ध का मतलब अफगान बीहड़ों में गहरे से फंस जाना होगा।

यह लगभग वैसी ही स्थिति है जिसका सामना 1965 में राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को करना पड़ा था। जॉनसन एक नए समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे लेकिन सैनिक प्रतिष्ठान वियतनाम युद्ध में और ताकत झोंकने के लिये दवाब बना रहा था। जॉनसन सैनिक प्रतिष्ठान के दवाब को नहीं झेल पाए और वियतनाम में अधिक सैनिक झोंकते चले गए । 1968 आते-आते तय हो गया कि वियतनाम युद्ध एक ऐसा युद्ध बन चुका है जिसे जीता नहीं जा सकता। युद्ध मोर्चे के साथ-साथ घरेलू जनमत भी इतना प्रतिकूल हो चुका था कि जॉनसन ने दुबारा राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की हिमम्त भी नहीं जुटा पाये। आज आम धारणा बनती जा रही है कि अफगान युद्ध भी नहीं जीता जा सकता और अगर युद्ध का विस्तार किया गया तो कम से कम दस वर्षों तक अमेरिका को अफगानिस्तान में सैनिक अभियान जारी रखना होगा अर्थात ओबामा के वर्तमान कार्यकाल समाप्त होने के लंबे अर्से बाद भी अमेरिका अफगान युद्ध में फंसा रहेगा। अब यह देखा जाना बाकी है कि ओबामा उस स्थिति से कैसे रूबरू होंगे जिसका सामना राष्ट्रपति जॉनसन को करना पड़ा था।

अमेरिका के मौजूदा वैचारिक टकराव की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसके सैनिक प्रतिष्ठान की ताकत और अमेरिकी लोकतंत्र में इसकी भूमिका का आकलन जरुरी हो जाता है। 17 जनवरी 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहाबर ने राष्ट्र ने नाम अपने विदाई संबोधन में कहा था कि “देश को औद्योगिक-सैनिक गठजोड़ की बढ़ती ताकत से सजग रहना होगा। इस तरह की ताकत का उदय हमारी स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के किए खतरा होगा”। इस पृष्ठभूमि यह सोचना भी जरूरी हो जाता है कि अश्वेत ओबामा राष्ट्रपति निर्वाचित क्यों और कैसे हुए? क्या वे उन सभी राजनीतिक धाराओं संतुष्ट कर पाएंगे जिनका उनकी विजय में योगदान रहा है ? क्या इस तरह का संतुलन संभव है और अगर नहीं तो अमेरिका किधर जायेगा?