Thursday 23 December 2010

इतिहास से हारता एक देश

सुभाष धूलिया

हाल ही में भारत यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा ने थोड़ा हिचकिचाहट के साथ कहा कि ‘एक स्थिर और समृद्द पाकिस्तान ही भारत के हित में है’। आज ओबामा ये बात कह रहे हैं लेकिन सच्चाई ये है कि यही बात इन्ही शब्दों में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी वर्षों साल पहले कह चुके हैं। भारत का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा से ही इस तरह की भावनाओं को अभिव्यक्त करता रहा है। लेकिन अब सवाल यह पैदा होता है कि खोखले और हिंसक उग्रवाद से घिरे पाकिस्तान को स्थिर और समृद्ध कैसे बनाया जाए ?

ओबामा अपनी भारत यात्रा के दौरान भले ही भारत की अनेक अपेक्षाओं पर खरे उतरे हों और कुछ अन्य पर सहमति ना बन पायी हो लेकिन ओबामा का ये कथन एक नये दौर का आगाज है कि ‘भारत एक उभरती महाशक्ति नहीं बल्कि पहले ही एक महाशक्ति बन चुका है’। सुरक्षा परिषद में भारत के स्थायी सदस्य के रूप में प्रवेश का रास्ता भले ही कितना भी लंबा क्यों ना हो लेकिन इस मसले पर भारत को अमेरिका के समर्थन से दोनों देशों के राजनीतिक संबंधों को नई ऊचाइयां मिली हैं। सुरक्षा परिषद के मुद्दे का वास्तविक से कहीं अधिक प्रतीकात्मक महत्व है जिससे पाकिस्तान के सत्ता गलियारों में खलबली सी मच गई है। ओबामा ने भले ही पाकिस्तान पर सीधा निशाना न साधा हो लेकिन जितना भी उन्होंने कहा वह पाकिस्तान को विचलित कर देने वाला है। आंतकवाद के संदर्भ में ओबामा ने सिर्फ इतना ही कहा कि पाकिस्तान सरकार उसको खत्म करने के लिये प्रयासरत है। इसका मतलब यह भी है कि इन प्रयासों को प्रयास तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता।

पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरणों को देखते हुए इसकी उग्रवाद से लड़ने की इच्छा और क्षमता पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं। पाकिस्तानी लोकतंत्र की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में है जो किन्ही खास परिस्थितियों में चुनाव जीते और देश के राजनीतिक जीवन में इनकी कभी कोई खास हस्ती नहीं रही। आज पाकिस्तानी सत्ता की वास्तविक बागडोर सैनिक प्रतिष्ठान के हाथ में है। सैनिक प्रतिष्ठान इस लोकतांत्रिक सरकार को इसलिए स्वीकार किये हुए है क्योंकि पहला तो ये सेना के ऐजेंडे में कोई रुकावट डालने की हिम्मत नहीं जुटा सकती और दूसरा सैनिक तख्तापलट अमेरिका को भी स्वीकार्य नहीं होगा।

इस्लामी उग्रवाद को लेकर पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान के इतिहास पर एक नहीं अनेक काले धब्बे लगे हुए हैं। कश्मीर में आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व से कहीं बड़ा हाथ सैनिक प्रतिष्ठान का रहा है। अफगानिस्तान को अपने एक सामरिक क्षेत्र में तब्दील करने के मकसद से तालिबान को पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान ने ही खड़ा किया था। तालिबान से पाकिस्तान ने इसलिए हाथ नहीं झाड़े थे कि उसे कोई इस्लामी उग्रवाद से कोई परहेज रहा हो बल्कि 9/11 के उपरांत अमेरिका सैनिक कार्रवाई का मन बना चुका था और अगर पाकिस्तान इस युद्ध में अमेरिका का साथ नहीं देता तो खुद भी अमेरिका के निशाने पर होता।

इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ जो भी अभियान चला रहा है और जिस तरह भी चला रहा है उसमें आस्था बहुत कम और मजबूरी कहीं अधिक है। पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्टान के इस्लामी उग्रवाद के साथ इतने गहरे रिश्ते रहे हैं कि इसमें अब भी ऐसे प्रभावशाली तत्व मौजूद है जो आतंकवादी गतिविधियों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं। ऐसे में किसी भी आतंकवादी हमले की स्थिति में पाकिस्तान सरकार अपने आप को पाक-साफ अक्षम नजर आती है।

पाकिस्तान आज ऐसा विखंडित देश बन गया है जो दिशाहीन है और जिसकी आर्थिक दशा जर्जर है। यह एक ऐसी सैन्यीकृत व्यवस्था में जकड़ा हुआ है जो 21वीं सदी के साथ तालमेल बिठाने को तैयार नहीं है और जिसकी पूरी सोच युद्ध से प्रदूषित है। दुनिया के सभी देश आज इस बहुआयामी दुनिया में नये संतुलन, नये तालमेल बिठा रहे हैं पर पाकिस्तान अपनी सोच को युद्ध-प्रदूषित मानसिकता से मुक्त नहीं कर पा रहा है।

पाकिस्तान अब भी ओबामा की यात्रा के परिणामों को सही परिपेक्ष्य में नहीं देख पा रहा है और एक ऐसे ऐतिहासिक घटनाक्रम का विरोध कर रहा है जिसे रोका नहीं जा सकता। भारत आज एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। आर्थिक संकट के बाद दुनिया काफी कुछ बदल गयी है और इसमें भारत जैसी उभरती हुई महाशक्तियों की भूमिका कहीं अधिक अहम हो चुकी है। भारत अमेरिका में 10 अरब डॉलर का निवेश करने जा रहा है जिससे अमेरिका में 50 हजार रोजगार के अवसर पैदा होंगे। पाकिस्तान को हर साल विकास के लिए अमेरिका से एक अरब डॉलर और सेना के लिए दो अरब डॉलर खैरात में मिल रहे है। अमेरिका को अपनी आर्थिक सेहत के लिए भारत की जरुरत है जबकि पाकिस्तान का उपयोग अफगान युद्ध तक ही सीमित है। आज चीन से भी पाकिस्तान पहले जैसे समर्थन की उम्मीद नही कर सकता क्योंकि चीन अमेरिका को पीछे छोडते हुए भारत का सबसे का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बन चुका है। आज पाकिस्तान के पास ऐसा क्या है जो वह चीन और अमेरिका को दे सके।

ओबामा ने अफगानिस्तान के विकास में भारत के प्रयासों की भी सराहना की। पाकिस्तान अफगानिस्तान में एक पाकिस्तान-परस्त और भारत-विरोधी सत्ता कायम करना चाहता है लेकिन सच तो यह है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान का प्रभाव तभी तक कायम रह सकता है जब तक यह देश उग्रवादी हिंसा की चपेट में है। एक स्थिर अफगानिस्तान के उदय के उपरांत पाकिस्तान के पास अफगानिस्तान को देने के लिए भी क्या है जबकि अफगानिस्तान के पुनर्निमार्ण और विकास में मदद देने की भारत के पास अपार क्षमता है।

ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि पाकिस्तान कैसे सोच सकता है कि कश्मीर को भारत से छीना जा सकता है। भारत के साथ तनाव बरकरार रखकर भले ही पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्टानों के निहित स्वार्थों की पूर्ति हो लेकिन इससे पाकिस्तान के व्यापक हितों को चोट पहुंच रही है और इसके विफल राष्ट्र होने का खतरा पैदा हो रहा है।

इन परिस्थितियों में पाकिस्तान भारत और अमेरिका की साझेदारी के साथ तालमेल बिठाने की बजाय छाती पीट रहा है और संकट से निकलने की कोशिश करने की बजाय इसमें और भी गहरा धंसता जा रहा है।

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