Tuesday 14 September 2010

एक नए,एक अलग शीत युद्ध की दस्तक

सुभाष धूलिया
इतिहास में आज तक विश्व के सत्ता समीकरण कभी भी शांतिपूर्वक नहीं बदले हैं। एक बड़ी आर्थिक और सैनिक शक्ति के रूप में चीन का उदय से भी विश्व के सत्ता समीकरण डगमगा रहे हैं और अमेरिकी प्रभुत्व के लिए चुनौती उभर रही है । चीन की इस बढ़ती ताकत पर अंकुश लगाने के लिए अमेरिका ने आक्रामक रुख अपना लिया है। अमेरिका और चीन के बीच उभर रहे आर्थिक संघर्ष और सैनिक टकराव से कारण दुनिया पर एक नए शीत युद्ध के बदल मंडरा रहे हैं।
अमेरिका और सोवियत संध के बीच पहला शीत युद्ध दुनिया के अनेक सामरिक ठिकानों और सागर महासागर के मार्गों पर प्रभुत्व कायम करने के लिये लड़ा गया। शीत युद्ध के दौरान वास्तविक युद्ध इसलिये कभी नहीं हो पाया क्योंकि सोवियत संघ और अमेरिका की सैनिक ताकत लगभग बराबर थी। पारस्परिक विनाश के डर शीत युद्ध कभी प्रत्यक्ष युद्ध में नहीं बदला। इस शीत युद्ध का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि अमेरिका की आर्थिक और सैनिक ताकत अब भी चीन से कहीं अधिक है लेकिन विनाश करने वाली ताकत के मामले में चीन को कम भी कम कर नहीं आँका जा सकता ।
आर्थिक ताकत के मामले में हाल ही में चीन जापान को पीछे छोड़ दिया है और अमेरिका के बाद यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन गया है। चीन की आर्थिक वृद्धि पर अगर इसी तरह बढ़त बनी रही तो अगले 20 साल में वह अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा। चीन के इस उभर के सामानांतर अमेरिका की आर्थिक ताकत में लगातार ह्रास हो रहा और दुनिया पर प्रभुत्व कायम रखने लिए अधिकाधिक सैनिक ताकत का सहारा ले रहा है। पिछले 20 सालों में अमेरिका दुनिया को यह संदेश दे चुका है कि उसके प्रभुत्व को ललकारने वाली किसी भी चुनौती को कुचलने के लिए वह सैनिक ताकत का प्रयोग करने से नहीं हिचकिचायेगा।
इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण के पीछे आतंकवाद से कहीं अधिक विश्व पर प्रभुत्व कायम करने की व्यापक रणनीति रही है। इराक पर नियंत्रण के बाद तेल संसाधनों से संपन्न मध्य-पूर्व में अमेरिका को चुनौती देने वाला कोई नही है और ईरान से उपजने वाला प्रतिरोध को कुचलने के लिए अमेरिका कमर कसे हुए है। अफगानिस्तान पर नियंत्रण के बाद अमेरिका को मध्य- एशिया पर प्रभुत्व कायम करने के लिये एक अहम सामरिक ठिकाना मिल गया है। मौजूदा परिस्थियों में पाकिस्तान के लिए भी अमेरिका के चंगुल से निकलना आसान नहीं है ।
चीन की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए अमेरिका ने घेराबंदी शुरु कर दी है। अमेरिका दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के साथ ही मध्य पूर्व में भी चीन के दरवाजे लगभग बंद कर दिये हैं। चीन से लगे पूर्व और दक्षिण एशिया में भी अमेरिका ने अपनी मजबूत सैनिक उपस्थिति कायम कर ली है। दक्षिण चीन सागर अमेरिका और चीन के बीच टकराव का सबसे बडा केन्द्र बना हुआ है। इस सागर का समुद्री मार्ग ही चीन को बाकी दुनिया से जोड़ता है और इसके आर्थिक जीवन की धुरी है। चीन इस सागर को अपना प्रभाव क्षेत्र मानता है और यहां अमेरिका या किसी भी दूसरी ताकत की सैनिक उपस्थिति का विरोधी है।
हाल ही में अमेरिकी हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि दक्षिणी चीन सागर सभी के लिए समान रूप से खुला होना चाहिये तो चीन के विदेश मंत्री ने इस बयान को चीन पर हमले के समान ठहराया। इस सागर को लेकर चीन और वियतनाम के बीच विवाद है और अमेरिका ने वियतनाम के साथ समारिक गठजोड़ कायम कर लिया है और वियतनाम को नाभिकीय प्रोद्योगिकी देने पर भी बातचीत चल रही है। दक्षिणी चीन सागर पर प्रभुत्व कायम करने की अमेरिकी रणनीति में वियतनाम की अहम भूमिका हो सकती है इसी वजह से वियतनाम के प्रति चीन ने आक्रमक रुख अपना लिया है। अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया,जापान,सिंगापुर,दक्षिण कोरिया और वियतानाम के साथ सामरिक गठजोड़ कायम कर चीन को घेर लिया है। भारत पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी अमेरिका ने अलग-अलग तरह के सामरिक रिश्ते कायम कर लिये हैं। यहां तक कि चीन की इस घेराबंदी को लेकर रूस भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका का ही साथ दे रहा है। इस घेराबंदी से अमेरिका ऐसी स्थिति में आ गया है की कभी भी किसी विवाद की स्थिति में वह चीन की अर्थव्यवस्था का गला घोंट सकता है और बार बार आ रही आर्थिक मंदी से इस तरह के हालत पैदा हो सकतें हैं।
इस पृष्ठभूमि में लगता है कि एक बार फिर उसी तरह के हालात पैदा हो रहे हैं जिनके परिणामस्वरुप दुनिया में दो विश्व युद्ध लड़े गये। दुनिया के बाजारों,आर्थिक संसाधनों और सामरिक ठिकानों को लेकर जब-जब स्थापित महाशक्तियों को उभरती शक्तियों से चुनौती मिली तो इसका परिणाम युद्ध के रूप में ही सामने आया। तीस के दशक की महामंदी दूसरे विश्व युद्ध का एक बहुत बड़ा कारण थी। आज फिर आर्थिक मंदियों के आने-जाने का सिलसिला कायम हो गया है और हर मंदी के बाद नये आर्थिक टकराव पैदा हो रहे हैं। नये परिदृश्य में चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध भी तेज हो रहा है और अमेरिका अपनी अनेक आर्थिक समस्यायों के लिए चीन को उत्तरदायी ठहरा रहा है। दूसरी ओर चीन अर्थव्यवस्था का लगातार विस्तार हो रहा है और इस बढ़ती अर्थव्यवस्था को बाजारों और आर्थिक संसाधानों की जरुरत होगी। चीन पहले ही अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का ऊर्जा का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है।

इस तरह की परिस्थितियों में पिछली सदी ने विश्व युद्धों को जन्म दिया। कुछ हलकों में आशंका है कि दुनिया एक बार फिर नए टकराव अग्रसर है लेकिन इक्कीसवीं सदी की विश्व व्यवस्था में अभी तक कोई स्थायित्व नहीं आया है और जहां चीन की आर्थिक वृद्धि किसी मजबूत आर्थिक धरातल पर खड़ी नहीं है वहीं अमेरिकी प्रभुत्व की जमीन भी ऊबड़खाबड़ है। इसलिये मौजूदा हालातों में इस टकराव की हार-जीत का गणित और हार-जीत के अर्थ काफी जटिल और कठिन है।

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