Tuesday 14 September 2010

अफगानिस्तान:एक स्थायी युद्ध का मैदान

सुभाष धूलिया

अमेरिका में यह अहसास गहराता जा रहा है कि अफगान युद्द जीता नहीं जा सकता। राष्ट्रपति ओबामा स्वयं ‘विजय’ के बजाय ‘समाधान’ की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने 2011 तक अपनी सेनाएं बुलाने का ऐलान कर दिया है। अमेरिका में यह धारणा प्रबल हो चुकी है कि अफगान युद्ध में जब अबतक विजय हासिल नहीं हुई तो अगले एक साल में ऐसा कुछ हासिल नहीं होने जा रहा जो अब तक नहीं हासिल हुआ है। अफगानिस्तान में सैनिक अमेरिका की वापसी से जो राजनीतिक शून्य पैदा होगा उसकी भरपाई को लेकर अभी तक कोई साफ तस्वीर नहीं उभरी है। लेकिन इतना तय है कि करजई सरकार अमेरिका की वापसी के उपरांत टिक नहीं सकती। अचरज की बात तो यह है कि नौ सालों से सैनिक अभियान चला रहे अमेरिका ने अबतक भावी अफगानिस्तान का कोई स्पष्ट नक्शा पेश नहीं किया है।

असमंजस और अनिश्चय के इस माहौल में पाकिस्तान बेहद सक्रिय हो गया है और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में अपनी पिठ्ठू सरकार कायम करना चाहता है। हाल ही में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कियानी और कुख्यात खुफिया एजेंसी के प्रधान जनरल पाशा ने काबुल की यात्राएं की। कई अन्य स्तरों पर भी पाकिस्तान करजई सरकार के संपर्क में है। करजई पाकिस्तान के कट्टर विरोधी रहे हैं और भारत समर्थक के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन अब बदली परिस्थितियों में पाकिस्तान करजई सरकार को लुभाकर और डराकर साथ लाना चाहता है। पाकिस्तान का केन्द्रीय लक्ष्य अफगानिस्तान में भारत विरोधी सत्ता कायम करना है। इस मकसद को हासिल करने के लिये इस्लामी इस्लामी उग्रवादी संगठन पाकिस्तान का साथ दे रहे हैं।

पाकिस्तान करजई को ये संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि अगर वे इस्लामी उग्रवादियों को सत्ता में भागीदार बना लेते हैं तो अमेरिकी वापसी के बाद भी अफगान के राजनैतिक जीवन में करजई का वजूद बना रहेगा। करजई ने कभी भी पाकिस्तान पर भरोसा नहीं किया है लेकिन उनको अहसास है कि अमेरिकी वापसी के उपरांत वे तालिबान से टक्कर नहीं ले सकते । पाकिस्तान ने इस रणनीति के पहले चरण में एक इस्लामी उग्रवादी हक्कानी के गुट को सत्ता में भागीदार बनाने का प्रस्ताव दिया है। हक्कानी वे शख्स हैं जिन्होंने आईएसआई की मदद से अफगानिस्तान में कई भारतीय ठिकानों पर आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया था। पाकिस्तान की रणनीति यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि मौका मिलने पर वे तालिबानी नेता मुल्ला उमर और कट्टरपंथी नेता हिकमतयार को भी सत्ता में घुसाने की कोशिश करेंगे। पाकिस्तान काफी समय से ‘उदार’ तालिबान की भी बातें करता रहा है और यह तर्क देता है कि अफगानिस्तान में तालिबान के बिना कोई स्थायित्व लाना संभव नहीं है। यहां चौंकाने वाली बात ये है कि सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी पाकिस्तान के साथ इस मैदान में कूद पड़े हैं और करजई को ‘मध्यस्थ’ की भूमिका अदा करने की सलाह दे रहे हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विश्वभर में यही वो तीन देश थे जिन्होंने 1996 में तालिबानी सत्ता को विश्व भर में मान्यता दी थी।

यह घटनाक्रम अमेरिकी लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है लेकिन विडंबना यह है कि अमेरिकी की वापसी की स्थिति में और विकल्प भी क्या है ? इस बीच पाकिस्तान ने अमेरिकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए चीन के साथ नाभिकीय समझौता किया है जिसके तहत चीन पाकिस्तान में दो नाभिकीय संयंत्र लगाने जा रहा है। यह इसलिये अधिक चिंताजनक है कि दुनिया में पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है जिसका नाभिकीय प्रोद्योगिकी के प्रसार में बेहद खराब रिकॉर्ड रहा है और यही एक ऐसा देश है जिसे लेकर शंका पैदा होती है कि पता नहीं कब और कैसे इसकी नाभिकीय प्रोद्योगिकी ऐसे गुटों के हाथ ना चले जाये जो दुनिया में विनाश फैला सकते हैं।

अफगानिस्तान में केवल पाकिस्तान और अमेरिका के हित ही दांव पर नहीं लगे हैं बल्कि भारत-ईरान और रूस भी अफगानिस्तान में इस्लामी उग्रवादी सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकते। ये तीनों देश तालिबान के खिलाफ उत्तरी गठजोड़ को समर्थन देते रहे हैं जिसमें ताजिकों का वर्चस्व है। अफगानिस्तान में ताजिक और पख्तून दो प्रभावशाली जातीय समुदाय हैं जिनके बीच सत्ता के नियंत्रण को लेकर हमेशा टकराव रहा है। उत्तरी गठजोड़ काबुल में ऐसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा जिसमें पख्तूनों का दबदबा हो। अमेरिका में इन तीनों देशों को अफगान समस्या से अलग थलग रखा। लेकिन आज एक ऐसी परिस्थिति पैदा होती हो रही है जिसमें उत्तरी अफगानी गठजोड़ भारत-रूस और ईरान की मदद से पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के खिलाफ नया संघर्ष छेड़ सकता है।

भारत ने अफगानिस्तान में करजई सरकार के सत्तासीन होने के बाद 1.3 अरब डॉलर की मदद दी और अफगानिस्तान में सड़कों, पुलों, बिजली, अस्पताल और स्कूलों का निर्माण किया। भारत के इन प्रयासों को विफल करने के लिये ही आईएसआई ने हक्कानी गुट की मदद से भारतीय ठिकानों पर हमले कराये। पाकिस्तानी रणनीति के तहत अफगानिस्तान में कोई भी राजनीतिक समाधान तभी हो सकता है जब वहां ऐसी कोई सत्ता कायम हो जिस पर इस्लामी कट्टपंथियों का नियंत्रण हो। ऐसे में इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने और नौ सालों तक अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ने के अमेरिकी लक्ष्यों की नियति क्या होगी ? अमेरिका 2011 के बाद अमेरिका अफगानिस्तान में इसलिए नहीं रह सकता क्योंकि नौ सालों में जो हासिल नहीं किया जा सका उसको आगे भी हासिल नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर अफगानिस्तान में पाकिस्तान का लक्ष्य पूरा होता है तो निश्चय ही भारत रूस और ईरान को यह मंजूर नहीं होगा और जाहिर है इस तरह की सत्ता को अमेरिका का भी समर्थन हासिल नहीं होगा। इस परिदृश्य में बलूचिस्तान में भारत के प्रभाव और उजबेकिस्तान में भारत के वायुसैनिक अड्डे से पाकिस्तान विचलित है।

पाकिस्तान की रणनीति अफगानिस्तान में एक नया युद्द का शुरु करेगी और यह एक ऐसा युद्द होगा जिससे लड़ने के लिए जर्जर और अस्थिर पाकिस्तान के पास कोई दमखम नहीं है। इस पाकिस्तानी रणनीति का संचालन का सैनिक प्रतिष्टान के हाथ में है और भारत विरोधी उन्माद से ग्रसित पाकिस्तानी सेना एक बार फिर पाकिस्तान को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इस भावी अफगान टकराव के दूरगामी परिणाम होंगे और इसकी सबसे अधिक तपिश अफगानी लोगों को झलनी पड़ेगी जो पिछले तीन दशकों से युद्द की आग में झुलस रहे हैं।

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