Wednesday 28 October 2009

समकालीन मीडिया परिदृश्य

समकालीन मीडिया परिदृश्य
विभाजित दुनिया, विखंडित मीडिया

सुभाष धूलिया

समकालीन मीडिया परिदृश्य अपने आप में अनोखा और बेमिसाल है। जनसंचार के क्षेत्र में जो भी परिवर्तन आए और जो आने जा रहे है उनको लेकर कोई भी पूर्व आकलन न तो किया जा सका था और ना ही किया जा सकता है। सूचना क्रांति के उपरांत जो मीडिया उभर कर सामने आया है वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जीवन के केन्द्र में है। आज मानव जीवन का लगभग हर पक्ष मीडिया द्वारा संचालित हो रहा है। आज मीडिया इतना शक्तिशाली और प्रशावशाली हो गया है कि लोकतांत्रिक विमर्श अधिकाधिक मीडिया तक ही सीमित होता जा रहा है। एक तर्क ये भी है कि लोकतंत्र का स्थान मीडिया तंत्र ले चुका है। संचार क्रांति के उपरांत आज पूरी दुनिया एक वैश्विक गांव बन चुकी है। दूरसंचार,सेटेलाइट और कम्प्यूटर के संबद्ध होने से आज हर तरह की सूचनाओं का आदान-प्रदान तत्काल और बाधाविहीन हो चुका है। आज इंटरनेट के रूप में एक ऐसा महासागर पैदा हो गया है जहां मीडिया की हर नदी, हर छोटी-मोटी धाराएं आकर मिलती हैं। इंटरनेट के माध्यम से आज किसी भी क्षण दुनिया के किसी भी कोने में संपर्क साधा जा सकता है। इंटरनेट पर सभी समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन चैनल उपलब्ध हैं। आज हर बड़े से बड़े और छोटे से छोटे संगठनों की अपनी वेबसाइट्स हैं जिन पर इनके बारे में अनेक तरह की जानकारियां हासिल की जा सकती है।

इंटरनेट पर नागरिक पत्रकार ने भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज की है। इंटरनेट पर ब्लॉगों के माध्यम से अनेक तरह की आलोचनात्मक बहसें होती हैं, उन तमाम तरह के विचारों को अभिव्यक्ति मिलती है जिनकी मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया अनदेखी ही नहीं उपेक्षा भी करता है। इनमें कॉर्पोरेट व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करने की भी क्षमता होती है। भले ही ब्लॉग एक सीमित तबके तक ही सीमित हो लेकिन फिर भी ये समाज का एक प्रभावशाली तबका है जो किसी भी समाज और राष्ट्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ब्लॉगिंग ने अत्याधिक व्यापारीकृत मीडिया बाजार में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करायी है। विकासशील देशों में ब्लॉग लोकतांत्रिक विमर्श के मानचित्र पर अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। ब्लॉग निश्चय ही आज की शोरगुल वाले मीडिया बाजार की मंडी में एक वैकल्पिक स्वर को अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस नए वैकल्पिक मीडिया में कुछ निहित कमजोरियां भी हैं। मीडिया बाजार में उपस्थित शक्तिशाली तबके ब्लॉग की दुनिया को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। बड़े कॉर्पोरेट संगठन और सरकारी एजेंसिया भी अनेक ब्लॉग खोलकर या पहले से ही सक्रिय ब्लॉगों में प्रवेश कर इस लोकतांत्रिक विमर्श को प्रभावित करने की अपार क्षमता रखते हैं। ऐसे में शक्तिशाली संगठनों का ब्लॉगसंसार में दखल के परिणामों का आकलन करना भी जरुरी हो जाता है। मीडिया के केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण को समझने के लिए शक्तिशाली संगठनों की इस क्षमता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । ब्लॉग के गुरिल्ला ने व्यापारीकृत मीडिया के बाजार में प्रवेश कर हलचल तो पैदा कर दी है लेकिन अभी ये देखा जाना बाकी है कि यह इस मंडी में अपने लिए कितने स्थान का सृजन कर पाता है और किस हद तक कॉर्पोरेट और सरकारी संगठनों के इसे विस्थापित करने के प्रयासों को झेल पाता है। इस दृष्टि से सबसे अधिक आशावाद इस बात से पनपता है कि मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया के समाचारों और मनोरंजन की अवधारणाओं में जो रुझान( विकृतियां) पैदा हो रही है उससे इसकी साख में जबर्दस्त गिरावट आ रही है और अब लोग इनसे ऊबने लगे हैं,निराश होने लगे हैं। मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया की साख में इस गंभीर संकट से ब्लॉगसंसार के लिए अपने स्थान से विस्तार की नई संभावनाएं पैदा हो गयी हैं। लेकिन अभी ये थोड़ा कशमकश का दौर है और ऐसा नहीं कहा जा सकता कि साख के इस संकट की कॉर्पोरेट मीडिया अनदेखी ही करता रहेगा और बाजार इस स्थिति में बदलाव लाने में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
आज मीडिया बाजार को लेकर भी भ्रम की स्थिति है। मीडिया उत्पाद, उपभोक्ता और विज्ञापन उद्योग के संबंध अभी स्थायित्व के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं। आज भले भी मीडिया के बाजार के प्रति कोई साफ सुथरी सोच विकसित नहीं हो पायी है लेकिन अभी एक बाजार है, इसे मापने के जो पैमाने हैं विज्ञापन उद्योग इससे ही प्रभावित होता है। इस बाजार को हथियाने की होड़ में इंफोटेंनमेंट नाम के नए मीडिया उत्पाद का जन्म हुआ है जिसमें सूचना के स्थान पर मनोरंजन को प्राथमिकता मिलती है। इसके तहत सूचना की विषयवस्तु बौद्धिक स्तर पर इतनी हल्की और मनोरंजक बना दी जाती है कि वह एक विशाल जनसमुदाय को आकृष्ट कर सके। अनेक अवसरों पर इस तरह के समाचार और समाचार कार्यक्रम पेश किये जाते है कि वो लोगों का ध्यान खींच सकें भले ही साख और विश्वसनीयता के स्तर पर वो कार्यक्रम खरे ना उतरें।

इसके साथ ही 'पॉलिटिकॉनटेंमेंट' की अवधारणा का भी उदय हुआ है जिसमें राजनीति और राजनीतिक जीवन पर मनोरंजन उद्योग हावी हो रहा है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के विषयों का चयन, इनकी व्याख्या और प्रस्तुतीकरण पर मनोरंजन के तत्व हावी होते चले जा रहे हैं। कई मौकों पर बड़े राजनीतिक विषयों को सतही रूप से और एक तमाशे के रूप में पेश किया जाता है और आलोचनात्मक होने का आभास भर पैदा कर वास्तविक आलोचना किनारे कर दी जाती है। कई अवसरों पर टेलीविजन के परदों पर प्रतिद्वंदी राजनीतिज्ञों की बहसों का इस दृष्टि से मूल्यांकन करें तो यह तमाशा ही अधिक नजर आता है। इन बहसों में वास्तविक विषयों और विभिन्न राष्ट्रीय परिपेक्ष्य नदारद रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम बुनियादी राजनीतिक मदभेदों के स्थान पर तूतू-मैंमैं के मनोरंजन की ओर ही अधिक झुके होते हैं। इससे अनेक बुनियादी सवाल पैदा होते हैं और राजनीति के इस सहतीकरण और एक हद तक विकृतीकरण से लोकतंत्र के ह्रास का आकलन करना जरुरी हो जाता है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के सतहीकरण की इस प्रकिया का सबसे बड़ा हथियार सेलेब्रिटी संस्कृति का उदय है। सेलेब्रिटीज का राजनीति में प्रवेश हो रहा है जिससे राजनीतिज्ञ सेलेब्रिटीज बन रहे हैं। सेलेब्रिटी संस्कृति की वजह से राजनीतिक विमर्श के संदर्भ में एक नए टेलीविजन का उदय हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों पर एक बड़ा फिल्मस्टार टेलीविजन के पर्दे पर आधे घंटे तक यह बताता है कि क्या करना चाहिए तो दूसरी ओर राष्ट्रीय पार्टी का एक बड़ा नेता सेलेब्रिटी बनने के लिए इसी राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध विषय को इस तरह पेश करता है कि देखने वालों को मजा आ जाए और वह विषय की तह में कम जाता है।

मुंबई पर आतंकवादी हमलों के उपरांत गंभीर समाचारों, राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध विषयों पर इस तरह का रुझान स्पष्ट रूप से देखने को मिला था। आतंकवाद से देश किस तरह लड़े- इस बात की नसीहत वो लोग टेलीविजन पर्दे पर दे रहे थे जिनका न तो सुरक्षा और न ही आतंकवाद जैसे विषयों पर किसी तरह की समझ का कोई रिकॉर्ड है ना इन विषयों पर कभी कोई योगदान दिया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि एक नरम ( सॉफ्ट) मीडिया का उदय हुआ है जो कड़े-कठोर विषयों का नरमी से पेश कर लोगों को रिझाना चाहता है और कुल मिलाकर इस तरह गंभीर राजनीतिक विमर्श का ह्रास हो रहा है। इसी दौरान लोकतांत्रित राजनीति के चरित्र में ही भारी बुनियादी परिवर्तन आए और इसी के अनुरूप मीडिया तंत्र के साथ इसके संबंध पुनरभाषित हुए। दूसरा विश्वभर में आर्थिक विकास से उपभोक्ताओं की नयी पीढी़ का उदय हुआ। इससे मीडिया के लिए नए बाजार पैदा हुए और इस बाजार में अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए एक नई तरह की बाजार होड़ पैदा हुई। इस बाजार होड़ के कारण मीडिया उन उत्पादों की ओर झुकने लगा जो व्यापक जनसमुदाय को आकृष्ट कर सकें।

ऐसा नहीं है कि समाचारों में मनोरंजन का तत्व पहले नहीं रहा है। समाचारों को रुचिकर बनाने के लिए इनमें हमेशा ही नाटकीयता के तत्वों का समावेश किया जाता रहा है। लेकिन अधिकाधिक उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने की होड़ में समाचारों को मनोरंजन के तत्वों का विस्तार होता चला गया। तीसरा मीडिया के जबर्दस्त विस्तार और चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों के कारण भी समाचारों की मांग बेहद बढ़ गयी जिसकी वजह से ऐसी अनेक घटनाएं भी समाचार बनने लगी जो मुख्यधारा की पत्रकारिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी। चौधा पहले विचारधारात्मक राजनीतिक संघर्ष , स्वतंत्रता और उसके बाद विकास की आकांक्षा के दौर में मुख्यधारा समाचारों में लोगों की दिलचस्पी होती थी। विकास की गति बढ़ने से ऐसे सामाजिक तबकों का उदय हुआ जो उन तमाम मुद्दों के प्रति उदासीन होते चले गए जो इससे पहले तक ज्वलंत माने जाते थे। इसी के समानांतर अतिरिक्त क्रय शक्ति के समाजिक तबके के विस्तार के कारण माडिया के व्यापारीकरण का दौर भी शुरु हुआ। नए अतिरिक्त क्रय शक्ति वाला तबका ही बाजार था और इस बाजार ने एक नया सामाजिक माहौल पैदा किया जिसमें 'ज्वलंत' समाचार 'ज्वलंत' नहीं रह गए और एक तरह की अराजनीतिकरण की प्रकिया शुरु हुई। अराजनीतिकरण की यह प्रकिया समाचारों के चयन को प्रभावित करने लगी।

समाज के संपन्न तबकों में राजनीति के प्रति उदासीनता कोई नयी बात नहीं है। विकास का एक स्तर हासिल करने के बाद इस तबके को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता की बागडोर किसके हाथ में है जबतक कि राजनीति किसी बड़े परिवर्तन की ओर उन्मुख ना हो। इस कारण भी समाचारों का मूल स्वाभाव और चरित्र प्रभावित हुआ और व्यापारीकरण की गति तेज हुई। लेकिन व्यापारीकरण की इस प्रकिया के प्रभाव और परिणामों के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच एक बड़ा बुनियादी अंतर है। विकसित देशों में व्यापारीकरण की यह प्रकिया तब शुरु हो गयी जब लगभग पूरा समाज ही विकास का एक स्तर हासिल कर चुका था। लेकिन विकासशील देशों में विकास की यह प्रकिया तभी शुरु हो गयी जब समाज का एक छोटा सा तबका ही विकसित की श्रेणी में आ पाया था। विकासशील देशों में विकसाशीलता के दौर में मीडिया से सहभागी होने की अपेक्षा की जाती थी जो संभव नहीं हो पायी और व्यापारीकरण के कारण विकास का एजेंडा काफी हद तक किनारे हो गया। विकसशील समाज पर व्यापारीकरण की इस प्रकिया के प्रभाव और परिणामों का सही मूल्यांकन कर पाना अभी संभव नहीं दिखता लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसके नकारात्मक परिणाम सकारात्मक परिणामों की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और गहरे होने जा रहे हैं। अपेक्षतया बौद्धिक रूप से कुशल उपभोक्ता-नागरिक और एक विकासशील समाज के एक 'आम' नागरिक पर एक ही तरह के मीडिया उत्पाद का प्रभाव भिन्न होगा-कहीं यह मनोरंजन-रोमांच पैदा कर सकता है तो अंयत्र यह वैज्ञानिक सोच पर कुठाराघात कर अंधविश्वास की जड़ों को गहरा कर सकता है।

मीडिया और मनोरंजन का रिश्ता भले ही नया नहीं है लेकिन नया यह है कि इतिहास में मीडिया इतना शक्तिशाली कभी नहीं था और मनोरंजन के उत्पाद लोकप्रिय संस्कृति से उपजते थे। आज शक्तिशाली मीडिया लोकप्रिय संस्कृति के कुछ खास बिंदुओं के आधार पर मनोरंजन की नई अवधारणाएं पैदा कर रहा है और इनसे लोकप्रिय संस्कृति के चरित्र और स्वरूप को बदलने में सक्षम हो गया है। यह प्रकिया आज इतनी तेज हो चुकी है कि यह कहना मुश्किल हो गया है कि 'लोकप्रिय' क्या है और 'संस्कृति' क्या है? यह कहना भी मुश्किल हो गया है कि इनका सृजन कहां से होता है और कौन करता है ? पर फिर भी अगर हम लोकप्रिय संस्कृति को उसी रूप में स्वाकार कर लें जिस रूप में हम इसे जानते थे तो हम यह कह सकते हैं कि आज लोकप्रिय संस्कृति समाचार और सामाचारों पर आधारित कार्यक्रमों पर हावी हो चुकी है और गंभीर और सार्थक विमर्श का स्थान संकुचित हो गया है। इस प्रकिया से तथ्य और कल्पना का एक घालमेल सा पैदा हो गया है जिससे पैदा होने वाला समाचार उत्पाद अपने मूल स्वभाव से ही समाचार की अवधारणा से भटका हुआ दिखायी पड़ता है।

नब्बे के दशक में एक नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के उपरांत एक उपभोक्ता की राजनीति और एक उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय हुआ और इसका सीधा असर समाचारों पर पड़ा। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नए-नए उपभोक्ता उत्पाद बाजार में आए और इनको बेचने के लिए नई-नई मीडिया तकनीकियों का इसतेमाल किया गया जिसके परिणामस्वरूप 'सेलेब्रिटी लाइफस्टाइल ' त्रकारिता का उदय हुआ। एक नया मेट्रो बाजार का उदय हुआ और इसके अनुरूप नए-नए उपभोक्ता उत्पादों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन देर सवेर इस बाजार और इस बाजार की मांग में ठहराव आना स्वाभाविक है। इस स्थिति में बाजार और समाचार के संबंद्ध भी प्रभावित होंगे। मेट्रो बाजार को हथियाने की होड़ में बाकी देश की अनदेखी की और एक हद तक तो स्वयं मेट्रो मध्यमवर्ग की संवेदनाओं को भी ठेस पहुंचायी। इस कारण एक राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में समाचार एक तरह से स्वाभाविक स्थान से विस्थापित होकर शरणार्थी बन गए जिनका कोई पता-ठिकाना नहीं बचा। समाचारों के विषय चयन, समाचार या घटनाओं को परखने की इनकी सोच और दृष्टिकोण के पैमाने और मानदंड बेमानी हो गए इसके परिणामस्वरूप आज किसी एक खास दिन एक उपभोक्त-नागरिक को इस बात का भ्रम होता है कि देश-दुनिया की महत्वपूर्ण घटनाएं कौन सी है? परंपरागत रूप से मीडिया एक ऐसा बौद्धित माध्यम होता था जो लोगों को यह भी बताता था कि कौन सी घटनाएं उनके जीवन से सरोकार रखती हैं और उनके लिए महत्वपूर्ण है। तब समाचारों को नापने-परखने के कुछ सर्वमान्य मानक होते थे जो आज काफी हद तक विलुप्त से हो गए हैं और एक उपभोक्ता-नागरिक समाचारों के समुद्र में गोते खाकर कभी प्रफुल्लित होता है, कभी निराश होता है और कभी इतना भ्रमित होता है कि समझ ही नहीं पाता कि आखिर हो क्या रहा है ?

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