Wednesday 28 October 2009

ऐतिहासिक द्वंद में फंसा अमेरिका

ऐतिहासिक द्वंद में फंसा अमेरिका
सुभाष धूलिया

दुनिया की बेमिसाल आर्थिक और सैनिक शक्ति आज अपने इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है। अमेरिका का सत्ता प्रतिष्ठान और अमेरिकी समाज -किसी ना किसी द्वंद में फंसा हुआ है। ओबामा ने परिवर्तन का नारा देकर अमेरिकी समाज में एक हलचल पैदा की - उस अमेरिका में जिसे लगता है कि कहीं कुछ बदलना चाहिए लेकिन क्या बदले इसकी कोई सुस्पष्ट तस्वीर उभरकर सामने नहीं आई थी । अब यह अमेरिका इस बदलाव की तस्वीर रचना चाहता है और दूसरा अमेरिका वह है जिसके पास इस विशालकाय आर्थिक और सैनिक ताकत का नियंत्रण है। यह वह अमेरिका है जिसकी नीतियां गहरे दलदल में फंसी थीं और उसे भी, परिवर्तन न सही, परिवर्तन का आभास पैदा करने की जरूरत थी, इसके लिए एक प्रतीक की जरुरत थी। शुरु में हमने हिचकिचाहट दिखाई लेकिन अंतत एक अश्वेत अमेरिकी को राष्ट्रपति स्वीकार कर लिया।

ओबामा आज अमेरिका के उस ऐतिहासिक टकराव के केन्द्र में हैं जो आर्थिक और सैनिक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सत्ता प्रतिष्ठान और अमेरिकी समाज के बीच पैदा हो गया है। इस टकराव का सबसे मुखर रूप अफगानिस्तान में सैनिक अभियान को लेकर प्रतिबिंबित हो रहा है। एक ओर ओबामा पर अफगानिस्तान और इराक से वापसी का दवाब है तो दूसरी ओर आर्थिक बदहाली की गिरफ्त में फंसे अमेरिका की स्वास्थ्य-शिक्षा में सुधार का दवाब है।

शीतयुद्धकालीन व्यवस्था में अमेरिकी सैन्यतंत्र ने बेमिसाल आयाम ग्रहण कर लिए थे। लेकिन शीतयुद्ध खत्म होने के बाद भी इसमें बेलगाम विस्तार जारी रहा। शीतयुद्ध के दौरान पूरी अमेरिकी व्यवस्था एक बड़े दुश्मन पर केन्द्रित थी लेकिन इसके पराभाव से अचानक भ्रम की सी स्थिति पैदा हो गई कि अब इस बेमिसाल सैनिक ताकत का भविष्य क्या होगा? सैनिक प्रतिष्ठान के अनेक सिद्धांतकारों ने तर्क दिए कि अब इस सैनिक ताकत का प्रयोग दुनिया को 'सभ्य और लोकतांत्रिक' बनाने के लिए करना चाहिए और इस संदर्भ में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' और 'उदार साम्राज्यवाद' जैसी अवधारणाओ को प्रतिपादित किया गया।

9/11 हमले से ऐसे कई सवालों का जवाब मिल गया और अमेरिकी सैन्यतंत्र की भूमिका फिर से केन्द्र में आ गई। अमेरिकी प्रशासन की डोर उस तबके के हाथ में आ गई जो दुनिया में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' के झंडे गाड़ना चाहता था। इस अभियान में वे आर्थिक हित भी जुड़ गये जो तेल संसाधनों पर नियंत्रण कायम करना चाहते थे और विशालकाय हथियार उद्योग भी गदगद हो उठा जो शीतयुद्ध खत्म होने की वजह से अपने भविष्य को लेकर आशंकित था। 9/11 ने एक ऐसा अवसर पैदा किया जिससे इन सभी हितों का गठजोड़ कायम हो गया और जिसके परिणामस्वरूप पहले अफगान और फिर इराक में सैनिक अभियान शुरु किए गए । अगर ये अभियान जरा भी सफल हुए होते तो ईरान के लक्ष्य पर भी अब तक गोला दागा जा चुका होता। 9/11 हमलों के आवेग में अफगान सैनिक अभियान का कहीं कोई प्रतिरोध नहीं हुआ लेकिन आवेग के थमने के साथ ही इन सैनिक अभियानों का औचित्य साबित करने के लिए लोकतंत्र और राष्ट्र-निर्माण के दावों का सहारा लिया गया। लेकिन आज ये सारे तर्क बेमानी साबित हो चुके हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि विदेशी सैनिक आधिपत्य के रहते लोकतंत्र का बीज नहीं बोया जा सकता और न ही युद्ध की धधकती आग के बीच राष्ट्र-निर्माण संभव है।

आज अफगानिस्तान और इराक में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' की अवधारणा की भी धज्जियां उड़ चुकी हैं और अगर इन दोनों देशों से अमेरिका वापस जाता है तो एक ऐसा शून्य पैदा होगा जिससे इन देशों के राष्ट्र-राज्य बने रहने पर भी संदेह पैदा होता है। ऐसे में अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर गंभीर मतभेद उभर रहे हैं। अफगानिस्तान में अमेरिका के सैनिक कमांडर स्टेनली मेक्रिस्टल सार्वजनिक रुप से कहा डाला कि अगर अफगानिस्तान में कई हजार और सैनिक भेजकर एक बड़ा जमीनी युद्ध नहीं छेड़ा गया तो एक वर्ष में अमेरिका पराजित हो जाएगा । इस जनरल को अमेरिका के सैनिक प्रतिष्ठान का पूरा समर्थन प्राप्त है। इससे स्पष्ट है कि अमेरिका में सैनिक प्रतिष्ठान ने अपनी कमर कस ली है और ओबामा पर इतना दवाब बना लिया है कि उनके विकल्प सीमित हो गये हैं। उपराष्ट्रपति बिदेन का मानना है कि जमीनी युद्ध के विस्तार के बजाय हवाई हमलो का अधिक इस्तेमाल किया जाये लेकिन वे भी युद्ध के ही विस्तार की वकालत कर रहे हैं -अंतर सिर्फ इतना है कि बिदेन की रणनीति से अमेरिका की वापसी का रास्ता आसान होगा और जमीनी युद्ध का मतलब अफगान बीहड़ों में गहरे से फंस जाना होगा।

यह लगभग वैसी ही स्थिति है जिसका सामना 1965 में राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को करना पड़ा था। जॉनसन एक नए समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे लेकिन सैनिक प्रतिष्ठान वियतनाम युद्ध में और ताकत झोंकने के लिये दवाब बना रहा था। जॉनसन सैनिक प्रतिष्ठान के दवाब को नहीं झेल पाए और वियतनाम में अधिक सैनिक झोंकते चले गए । 1968 आते-आते तय हो गया कि वियतनाम युद्ध एक ऐसा युद्ध बन चुका है जिसे जीता नहीं जा सकता। युद्ध मोर्चे के साथ-साथ घरेलू जनमत भी इतना प्रतिकूल हो चुका था कि जॉनसन ने दुबारा राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की हिमम्त भी नहीं जुटा पाये। आज आम धारणा बनती जा रही है कि अफगान युद्ध भी नहीं जीता जा सकता और अगर युद्ध का विस्तार किया गया तो कम से कम दस वर्षों तक अमेरिका को अफगानिस्तान में सैनिक अभियान जारी रखना होगा अर्थात ओबामा के वर्तमान कार्यकाल समाप्त होने के लंबे अर्से बाद भी अमेरिका अफगान युद्ध में फंसा रहेगा। अब यह देखा जाना बाकी है कि ओबामा उस स्थिति से कैसे रूबरू होंगे जिसका सामना राष्ट्रपति जॉनसन को करना पड़ा था।

अमेरिका के मौजूदा वैचारिक टकराव की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसके सैनिक प्रतिष्ठान की ताकत और अमेरिकी लोकतंत्र में इसकी भूमिका का आकलन जरुरी हो जाता है। 17 जनवरी 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहाबर ने राष्ट्र ने नाम अपने विदाई संबोधन में कहा था कि “देश को औद्योगिक-सैनिक गठजोड़ की बढ़ती ताकत से सजग रहना होगा। इस तरह की ताकत का उदय हमारी स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के किए खतरा होगा”। इस पृष्ठभूमि यह सोचना भी जरूरी हो जाता है कि अश्वेत ओबामा राष्ट्रपति निर्वाचित क्यों और कैसे हुए? क्या वे उन सभी राजनीतिक धाराओं संतुष्ट कर पाएंगे जिनका उनकी विजय में योगदान रहा है ? क्या इस तरह का संतुलन संभव है और अगर नहीं तो अमेरिका किधर जायेगा?

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