Tuesday 8 December 2009

आतंक से कैसे लड़ें?

सुभाष धूलिया

पाकिस्तान आज दुनिया के सबसे खतरनाक क्षेत्र के रुप में उभर चुका है। नाभिकीय हथियारों से लैस यह देश भीतर और बाहर हर तरफ संकट से घिरा है और यहाँ हर घटनाक्रम भारत को गंभीर रुप से प्रभावित करता है। भारत का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा से कहता रहा है कि एक स्थिर और संपन्न पाकिस्तान ही भारत के हित में है। लेकिन आज पाकिस्तान राष्ट्र का भटकाव गहरे से गहरा होता चला गया है तो इस बदलते घटनाक्रम को संबोधित करने में भारतीय विदेश नीति, एक कदम आगे रहने की बजाय एक कदम पीछे, रहती ही अधिक प्रतीत हो रही है।

मुंबई पर आतंकवादी हमलों के उपरांत पाकिस्तान अलग-थलग सा पड़ गया था और इसे अपने आप को पाक-साफ करार देने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था। आज इन आतंकवादी हमलों को महज 11 महीने बीते हैं लेकिन पाकिस्तान ने आक्रमक रुख अपना लिया है। पाकिस्तान उल्टे भारत पर आतंकवाद भड़काने का आरोप लगा रहा हैं। भारत ने इस दौरान दवाब की कूटनीति का सहारा लिया और पाकिस्तान के साथ कोई वार्ता करने से इंकार कर दिया और पाकिस्तान से आतंकवाद से लड़ने में सच्चाई और इमानदारी का परिचय देने को कहा।

निश्चय ही भारत ने कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के काऱण बहुत जख्म झेले हैं। लेकिन आज इस बात का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के भारत-विरोधी आतंकवाद में तब से लेकर अब तक क्या परिवर्तन आये है। आज पाकिस्तान पर आतंकवादियों ने एक तरह से पूरा आक्रमण कर दिया है। दक्षिणी वजीरिस्तान में अमेरिका के दवाब के चलते पाकिस्तानी सेना को अपनी ही जमीन पर पूरा युद्द छेड़ देना पड़ा है। इसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि आतंकवाद इस क्षेत्र में अपने गढ़ों से निकलकर पूरे पाकिस्तान में फैल गया है और इसके साथ ही, कश्मीर से लेकर काबुल तक, तमाम आतंकवादी संगठनों ने एक आतंक का तंत्र कायम कर लिया है। सीमाविहीन इस ताकत की विनाशकारी क्षमता में बेमिसाल वृद्धि हुई है।

इसके अलावा पाकिस्तान का आंतरिक संकट भी गहरा ही नहीं जटिल होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के पुराने आरोपों के फिर से सतह पर आने के कारण राष्ट्रपति जरदारी राजनीतिक रूप से किनारे पड़ते जा रहे हैं और अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अधिकाधिक अमेरिका पर निर्भर होते जा रहे हैं। यह निर्भरता यहां तक बढ़ गयी है कि जब अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए डेढ़ अरब डॉलर की विशाल सहायता राशि मंजूर की तो यह भी शर्त लगा दी कि इसके लिए पाकिस्तानी सेना और खुफिया ऐजेंसी आईएसआई को यह प्रमाणपत्र देना होगा कि वे आतंकवाद से लड़ने के लिए कठोर कदम उठाएंगे और परमाणु अप्रसार के प्रति प्रतिबद्ध रहेंगे। सच्चाई जो भी हो लेकिन पाकिस्तान में आम धारणा यह पैदा हुई है कि अमेरिका की इस शर्त के पीछे जरदारी का हाथ है और इस तरह वे पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान पर अंकुश लगाना चाहते हैं। अमेरिका की इन शर्तों पर सेना ने सार्वजनिक रूप से आक्रोश व्यक्त किया और इससे ज़रदारी सरकार और सेना के बीच ठन सी गयी है।

पाकिस्तान आज एक जटिल स्थिति में है और सत्ता के अनेक केंद्र पैदा हो गए हैं। इस वक्त पाकिस्तान को समझना और इसके प्रति कोई स्पष्ट नीति तय कर पाना आज जितना जटिल है इतिहास में इससे पहले कभी नहीं था। इस अमेरिकापरस्ती के समांतर पाकिस्तान अपने परंपरागत सामरिक सहयोगी चीन से भी नए रिश्ते कायम कर रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अगले सप्ताह चीन की यात्रा पर जा रहे हैं और उनके ऐजेंडे में सबसे महत्वपूर्ण भारत और पाकिस्तान-अफगानिस्तान के प्रति चीन के रुख पर बातचीत करना है। चीन ने इस यात्रा के ठीक पहले पाकिस्तान को अत्याधुनिक विमान बेचने का बड़ा सौदा ही नहीं किया बल्कि एक ऐसी सैनिक प्रोद्योगिकी भी देने जा रहा है जिसे अमेरिका ने पाकिस्तान को देने से साफ इंकार कर दिया था। चीन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की मांग की है जबकि भारत स्थायित्व कायम हुए बिना इस तरह की वापसी के पक्ष में नहीं है ।

ओबामा की अगले सप्ताह चीन की यात्रा और 24 नवंबर को भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा के संदर्भ में इस भूभाग में नए समीकरण उभर रहे हैं। निश्चय ही यह भूभाग दुनिया की दो बड़ी ताकतों के बीच के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और भारत को उभरते परिदृश्य में अपनी अहम् भूमिका के लिए नए सामरिक समीकरण रचने होंगे। अफगानिस्तान में अमेरिका के बने रहने और हटने -दोनों ही स्थितियों का सामना करने के लिए भारत को रणनीति तैयार करनी होगी

भारत के करीब इस भूभाग में जब इस तरह के सामरिक समीकरण उभर रहे हों तो यह भी जरूरी हो जाता है कि भारतीय विदेश नीति कश्मीर के आंतकवाद को लेकर पाकिस्तान की भूमिका से पनपी मानसिकता से अपने आप को मुक्त करे और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को नए परिपेक्ष्य में देखे और इसके क्षेत्रीय ही नहीं बल्कि वैश्विक चरित्र का भी मूल्यांकन करे। मुंबई पर आतंकवादी हमलों के बाद से भारत ने पाकिस्तान के साथ किसी भी वार्ता से इंकार कर दिया था। लेकिन जब पाकिस्तान पर भी आतंकवाद ने एक पूरी तरह से हमला बोल दिया है तो एक नई स्थिति पैदा हो गई है और अब पाकिस्तान को कश्मीरी आतंकवाद के कटघरे से बाहर निकालकर एक व्यापक दृष्टि से देखना जरुरी है। तमाम खुफिया ऐजेंसिया आज इसी ओर संकेत कर रही हैं कि 26/11 जैसा हमला फिर हो सकता है और अगर ऐसा होता है तो फिर भारत के पास क्या विकल्प होंगे?

ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि पाकिस्तान पर दवाब की कूटनीति को कब तक जारी रखा जाए और आज इस बात का मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता के सारे रास्ते बंद करके भारत को क्या मिला है? पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से ही जब जब यहाँ की सत्ता किसी संकट में फँसी है इसने भारत विरोधी उन्माद का सहारा लिया है और आज सरदारी सरकार भी यही करती प्रतीत होती है। भारत इए उभरती महाशक्ति है और अगर पाकिस्तान जैसे संकटग्रस्त पडोसी के साथ फंसा रहेगा तो उन मुद्दों पर पूरा ध्यान केन्द्रित करना मुश्किल पड़ेगा जो भारत की मौजूदा प्राथमिकताओं हैं
भारत की विदेश नीति को आज पाकिस्तान में स्थिरता पैदा करने पर केन्द्रित होनी चाहिए और इस संकटग्रस्त देश के विखंडन के बजाय इसे संभलने मैं मदद करनी चाहिए क्योंकि इसी में भारत के दीर्घकालीन हित निहित हैं

हाल ही में भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि पाकिस्तान के साथ वार्ता की प्रक्रिया को शुरु किया जाना चाहिए और कश्मीर जैसे विवादित मसलों पर पहले जो समझदारी पैदा हुई थी उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यह सकारात्मक संकेत हैं और भारत की विदेश नीति को पाकिस्तान को दूर रखने के बजाय इसे बातचीत के मंच पर लाने पर केन्द्रित होनी चाहिए सच तो ये है को पाकिस्तान को मौजूदा संकट से उभरने के लिए भारत से बेहतर संबंधों की सबसे अधिक जरुरत है। एक एतिहासिक प्रष्टभूमि में पाकिस्तान में भारत को लेकर बेहद असुरक्षा की भावना है और अगर भारत के साथ सामान्य रिश्ते न बनें तो पाकिस्तान, मौजूदा परिस्थितिओं, में चीन के चंगुल में फँस सकता है । पाकिस्तान और चीन का भारत-विरोधी गठजोड़ कोई नया नहीं है पर आज जिस तरह के दोस्ती और नफ़रत के रिश्ते पाकिस्तान और अमेरिका के बीच विकसित हो रहे हैं उन्हें देखते हुए चीन से साथ इस वक़्त इस तरह के गढ़जोड़ के उभरनें से देश की अनेक प्राथमिकताएं गडबडा जाएँगी और अमरीका पर निर्भरता बढ़ जायेगी जो एक अस्त होती हाइपर सुपर पॉवर है और चीन उभरता प्रतिद्वंदी है जिसके साथ भारत के रिश्ते कभी भी संदेह और अविश्वास से मुक्त नहीं हो पाएं हैं और न ही इसकी उम्मीद की जा सकती है

आज यह भूभाग बड़ी शक्तियों के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और ऐसे में भारत को इस घटनाक्रम को प्रभावित करने की अपनी क्षमता के विस्तार की जरूरत है इसलिए ऐसे रास्तों का निर्माण करना होगा कि इस संघर्ष से संबंधित हर संभावित पक्ष से बातचीत के रास्ते खुले रखे ।

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