Saturday, 23 July 2011

अरब वसंत और अब तुर्की के चुनाव

सुभाष धूलिया

इक्कीसवीं सदी के विश्व के राजनीतिक मानचित्र के निर्माण और अनेक तरह के टकरावों का केंद्र इस्लामी दुनिया बनती जा रही है . शीत युद्ध के उपरांत पूरी इस्लामी दुनिया में उग्र राजीतिंक इस्लाम उफान पर था और 9/11 के उपरांत अमेरिका के आंतंकवाद के खिलाड वैश्विक युद्ध में इस्लामी देश ही निशाने पर रहे और इसले लगा कि दुनिया पश्चिम और इस्लाम के बीच एक ऐसे टकराव की ओर बढ़ रही हैं जिसका कोई अंत नहीं होगा और अस्थिरता एक स्थायी रूप धारण कर लेगी.
लेकिन हाल ही में इस्लामी दुनिया में कुछ ऐसे रुझान पनपने शुरू हुए हैं जिनमे कुछ बुनियादी और सकारात्मक परिवर्तनों के तत्त्व निहित हैं. अरब जगत के हाल के ही जन विद्रोह ने सन्देश दिया कि अब तो कुछ बदलना ही चाहिए भले ही यह अरब वसंत के पास अभी बदलाव की स्पष्ट रूपरेखा नहीं है और न ही यह कोई संघटित राजनीतिक ताकत है. पर इसने एक सन्देश यह दिया कि इस्लामी दुनिया सिर्फ कट्टरपंथ और आतंकवाद तक सीमित नहीं है. इसके भी एक बेहतर जिंदगी के कुछ सपने हैं.इन्हें भी भ्रष्ट तानाशाहों से मुक्ति चाहिए. इनके देश में भी स्वंत्रता की हवाएं बहनी चाहिए. लेकिन पूरा इस्लामी जगत कट्टरपंथ और युद्ध के एक ऐसे मकडजाल में फंसा है के परिवर्तन की अवधारणा ही धूमिल रही.

इन रुझानों के बीच हाल ही के तुर्की के चुनाव परिणाम और अनेक उग्र इस्लामी धाराओं में कुछ उदार तत्वों के उदय से परिवर्तन के एक नक़्शे के बनाने की छोटी सी आशा दिखती है. तुर्की के चुनावों में इस्लामी पार्टी ने लगातार तीसरी बार चुनाव जीते. 2002 से अब तक के अपने शासन में तुर्की ने यह साबित कर दिया के इस्लाम और लोकत्रंत्र परस्पर विरोधी नहीं हैं और लोकत्रंत्र को इस्लामी मूल्यों और संस्कृति के अनुरूप ढला जा सकता है. आज यह धारणा पनप रही है कि तुर्की इस्लामी दुनिया के लिए एक मॉडल हो सकता है जिसमें इस्लाम और लोकत्रंत्र एक एक साथ फल फूल सकतें हैं. तुर्की में पहले विश्व युद्ध के बाद कमाल अतातुर्क ने जिस धर्मनिरपक्ष गणतंत्र के नीव राखी थे वह आज इस्लामी पार्टी के सत्ता में आने के बाद भी फलफूल रही है . तुर्की में कई बार सेना ने इस्लामी सत्ता के उदय नहीं होने दिया और निवार्चित सरकारों को बर्खास्त किया लेकिन आज तुर्की में लोकत्रंत्र और इस्लाम का इस तरह का समावेश चुका है की “इस्लामी सता” के उदय का डर खत्म हो गया है . तुर्की के सफल प्रयोग ने यह साबित कर दिया कि इस्लामी सत्ता का पश्चिम-विरोधी होना अनिवार्य नहीं हैं और अब पूरे इस्लामी जगत के सन्दर्भ में पश्चिम को यह साबित करना होगा कि हर इस्लामी लोकत्रंत्र के पश्चिम-परस्त होना भी अनिवार्य नहीं है तभी इस्लामी दुनिया में ऐसे परिवर्तन संभव हैं जिनसे युद्ध और अस्थिरता को खत्म किया जा सकता है .

इस संदर्भ में इस बात को नहीं भूल जाना चाहिए कि हर देश कि अपनी संस्कृति है, अपनी एक पहचान और यही इसकी किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के आधार हो सकतें हैं. लोकत्रंत्र का निर्यात संभव नहीं है और यह न तो अफगानिस्तान ने सफल हुआ न इराक में और न ही लीबिया में सफल होने जा रहा है. इसके विपरीत इरान और सूडान जैसे देशों में इस्लामी सत्ता का जूनून भी कम हो रहा है और इक्कीसवीं सदी के साथ जीने के बदलाव के स्वर उठ रहे हैं. इस दौर में इस्लाम में कट्टरता के बजाय उदारता कि एक धारा पैदा हो रही है. मिस्र में इस्लामी ब्रदरहूड में नरम धारा पनप रही है और अरब वसंत के दौरान इसे साफ़ देखा जो सकता था. लेबनान में हिजबुल्लाह ने अस्सी के दशक में आत्मघाती हमलों के आतंकवाद कि शुरुआत की थी लेकिन आज यह एक राजनीतिक दल है और उग्रवादी तत्त्व हासिये पर चले गए हैं.
सत्तर के दशक से जो इस्लामी कट्टरपंथ पनप रहा था और जिसकी एक धारा आतंकवाद के रूप में पनपी, वह आज ढलान पर है. इस्लामी दुनिया के नया उफान है. तुर्की एक मॉडल पेश करता है और अगर मिस्र में भी इस्लाम और लोकत्रंत्र का समावेश हो पता है तो ये दोनों देश पूरी इस्लामी पर जबरदस्त असर डाल सकतें हैं. इस परिवर्तन का अग्रिम दस्ता युवा वर्ग है जिसकी उम्र तीस साल से कम है और जो इस्लामी जगत के आवादी का सत्तर प्रतिशत है. यही युवा अन्याय से लड़ने के लिए इस्लामी उग्रवाद की और खिंचा और आज इसी युवा के सपने कुछ और हैं . अरब वसंत ने यह साबित कर दिया कि इस्लामी दुनिया में ऐसी राजनीतिक धाराएं मौजूद हैं जो उदार व्यवस्थायों के निर्माण का आधार बन सकतीं हैं. इसने यह भी साबित कर दिया की भ्रष्ट तानाशाहों के खिलाफ कितना आक्रोश है जिन्हें हमेशा पश्चिम का समर्थन मिलता रहा. यही सब देश हैं जो दावा करतें हैं के उनकी सत्ता का विकल्प केवल पश्चिम-विरोधी इस्लामी सत्ताएं है. लेकिन अरब बसंत और तुर्की के सफल इस्लामी प्रयोग साबित कर दिया है कि जरुरी हैं है के परिवर्तन दी दिशा यही हो.

इस्लामी दुनिया और इसके तेल संसाधनों पर नियंत्रण के लिए अमेरिया ने तमाम तरह की तानाशाहियों को ही समर्थन देता रहा और इस्लामी उग्रवाद के उदय के बाद यह समर्थन गहरा होता चला गया. आज के इस्लामी दुनिया में इराक , अफगानिस्तान और अब लीबिया में अमेरिका के सैनिक अभियान चल रहें हैं और कोई भी ये उम्मीद नहीं करता के इनके परिणाम से कोई लोकत्रंत्र उभरेगा बल्कि पूरा ध्यान इस बात पर है कि स्थायित्व कैसे कायम किया जाये जो पश्चिम की बुनियादी चिंता है . फिर इरान हैं जहाँ एक घोर पश्चिम-विरोधी इस्लामी सत्ता है जिसके खिलाफ बार-बार अमेरिकी सैनिक आक्रमण की संभावना बनी रहती है पर के सच्चाई ये भी है के इस पूरे क्षेत्र में इरान एकमात्र ऐसा देश है जिसमें सबके अधिक बार चुनाव हुए हैं. और आज भी वहाँ चुनाव होते हैं. एक अल्जीरिया हैं जहाँ एक दशक पहले में इस्लामी पार्टी के सत्ता में आने के संभावना के कारण सेना ने चुनाव रद्द कर दिए और सत्ता संभल ली और तब से अब तक ये देश एक तरह के गृह युद्ध मैं फंसा है.

इस्लामी दुनिया में के नयी सूच पनप रही है. नयी पीड़ी सामाजिक और राजीनीतिक जीवन के केंद्र मैं आ रही है जिसकी सोच के के केन्द्र् में धार्मिक कट्टर्पंध नहीं है बल्कि वे स्वत्रन्त्रता चाहते हैं , वे एक आधुनिक समाज चाहतें हैं पर इसका मतलब या भे नहीं लगाया जाना चाहिए कि की वे निश्चित रूप से कोई पश्चिम-परस्त या पश्चिमी शैली के लोकत्रंत्र के भी समर्थक हैं. अब ये देखना भी बाकी है कि क्या अमेरिका और पश्चिम इस्लामी जगत मैं ऐसी सत्ताओं के साथ तालमेल बिठाने को राजी होंगे जो एकदम पश्चिम-परस्त न हों? क्या वे मौजूदा स्थिति का इस रूप में मूल्याकन करेंगे कि परिवर्तन को रोकने का मतलब अस्थिरता होगी जो स्वयं इनके हितों की पूर्ती नहीं करता ?

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