सुभाष धूलिया
मंदी के बाद अमेरिका में जब लेहमान ब्रदर्स जैसी कंपनी दिवालिया हुई तो यह कहा गया कि यह पूंजीवाद के पतन का उसी तरह प्रतीक है जैसा 1989 में बर्लिन की दीवार का ढहना सोवियत समाजवाद के पतन का प्रतीक था। 2008 की इस मंदी से पूरे विश्व में आर्थिक भूचाल आ गया था । लेकिन अमेरिकी प्रशासन वित्तीय सेक्टर को अरबों डॉलर का राहत पैकेज इस आर्थिक भूचाल को सीमित करने में सफल रहा। अब हाल ही में जब यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश ग्रीस की आर्थिक व्यवस्था ढहने के कगार पर थी तो यूरोपीय सूनियन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एक बार फिर अरबों डॉलर का पैकेज देकर ग्रीस को ढहने से बचा लिया। अगर इस बार ग्रीस से उठने वाली मंदी के बादल अगर पूरे यूरोप पर छाते तो एक बार फिर विश्व की अर्थव्यवस्था उसी हालत में पहुंच जाती जिसमें वह 2008 में जा पहुंची थी।
लेकिन यह संकट अभी पूरी तरह टला नहीं है। यह माना जा रहा है कि सरकारें वित्तीय घाटे को कम करने में विफल हो रही हैं और इसी कारण आर्थिक संकट पैदा हो रहे हैं। इस तरह की आर्थिक व्यवस्था में वित्तीय घाटे को कम करने का एक ही उपाय बचता है कि सरकार अपने खर्चों में कटौती करे और इसका सीधा मतलब यही है कि विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों के व्यय में कटौती की जाये।
ग्रीस में आर्थिक संकट आने के बाद लोग सड़कों पर उतर आये थे और ऐसे में राजनीतिक टकराव भी पनप रहा था।। इस परिस्थिति में राहत पैकेज में आर्थिक संकट का भले ही तात्कालिक रूप से हल पा लिया हो लेकिन रोजगार और लोगों की आय पर इसकी जो मार पड़ेगी उसके परिणाम दूरगामी होंगे। ग्रीस को दिये गये आर्थिक पैकेज में भागीदार बनने के लिये तो ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देश भी हिचकिचा रहे क्योंकि वो खुद इस तरह के आर्थिक संकट की चपेट में हैं। इनकी हिचकिचाहट इस हद तक थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को हस्तक्षेप करना पड़ा और तब जाकर राहत पैकेज तैयार हो सका।
लेकिन यह बात अब यहीं तक सीमित नहीं है कि ग्रीस पर आर्थिक संकट आया और एक राहत पैकेज से इस पर काबू पा लिया गया। आज यूरोप के कई देश जैसे स्पेन और पुर्तगाल भी ग्रीस जैसी स्थिति में फंसे हुए हैं। यूरोपीय कमीशन से बुल्गारिया, साइप्रस डेनमार्क और फिनलैंड को भी सचेत किया है कि उनका बजट घाटा सीमा पार कर रहा है और वो अपने सार्वजनिक व्ययों में कटौती करें। बजट घाटे की समस्या इन्ही छोटे देशों तक सीमित नहीं है बल्कि यूरोप के ब्रिटेन और जर्मनी जैसी आर्थिक महाशक्ति भी इस संकट से जूझ रही हैं।
1930 के दशक की महामंदी के बाद परंपरागत उदार अर्थव्यवस्था का पतन हुआ था और आर्थिक जीवन को केवल बाजार के भरोसे छोड़ने के बजाय सरकार के हस्तक्षेप को स्वीकर किया गया था। लेकिन 70 का दशक आते आते यह अर्थव्यवस्था भी डगमगाने लगी। सामाजिक वर्गों के बीच टकराव हुआ और इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन में मारग्रेट थैचर और अमेरिका में रीगन सत्तीसीन हुए जिन्होंने फिर से उदार अर्थव्यवस्था को बहाल किया । इसी दौर में सोवियत समाजवाद के पतन के समांतर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से पूरे विश्व में उदार लोकतंत्र की हवायें बहने लगी। लेकिन 90 का दशक आते आते इस अनियंत्रित बाजार पर संकट आते चले गये और जिसके परिणामस्वरूप 2008 का महासंकट आया। इस संकट से बचने के लिये अमेरिकी प्रशासन को नव उदारवाद का परित्याग कर आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके साथ ही दुनियाभर में यह स्वीकार किया गया कि मुक्त अर्थव्यस्था की मुक्तता में सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है ताकि बार बार आनेवाले इन संकटों पर काबू पाया जा सके।
निश्चय ही इस तरह की परिस्थिति पैदा होना उस नव उदारवाद का अंत है जिसकी शुरुआत सत्तर के दशक में हुई थी लेकिन इससे पहले के तमाम आर्थिक संकटो और पिछले दो दशकों में आने वाले संकटों में एक बुनियादी अंतर है। पहले ये संकट सामाजिक टकरावों का परिणाम होते थे और इनसे राजनीतिक सत्ता समीकरणों में परिवर्तन आता था । 70 के दशक में मुक्त अर्थव्यवस्था और नियंत्रित अर्थव्यवस्था (वाम बनाम दक्षिण, पूंजीवाद बनाम समाजवाद) के बीच के संघर्ष अपनी पराकाष्ठा पर था और और इस तरह के संकटों का प्रभाव स्पष्ट रूप से राजनीतिक पटल पर देखा जा सकता था। आंदोलन पनपते थे और सरकारें बदलती थीं। लेकिन इस बार के आर्थिक संकट व्यवस्था के भीतर सामाजिक शक्तियों के टकराव का परिणाम नहीं है बल्कि नव उदारवादी व्यवस्था स्वयं ही ढह गयी है और यह व्यवस्था स्वयं अपने को ही संभालने के संघर्ष में जुटी हुई है। मौजूदा दौर में हर आर्थिक संकट के बाद राजनीतिक मानचित्र अस्पष्ट होता जा रहा है। एक व्यवस्था बिखर रही है लेकिन उसका कोई विकल्प नहीं उभर रहा है। यह व्यवस्था का अन्तर्विस्फोट है जहां व्यवस्था अपने भीतर ही विकल्प ढूंढ रही है और इससे स्वयं अपने ही विकल्प एक दूसरे से जूझ रहे हैं और संकट का अंत कही नजर नहीं आता है।
इस आर्थिक संकटों से जिस तरह का यूरोप उभर रहा है उसकी तस्वीर दिनोंदिन बोझिल और अस्पष्ट होती नजर आती है। यूरोप की इस बोझिल और अस्पष्ट रीजनीति का सबसे ज्वलंत उदाहरण ब्रिटेन में हुए चुनाव हैं। चुनाव के उपरांत घनघोर दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी और वामपंथी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के गठजोड़ की सरकार अस्तित्व में आई है। यह गठजोड़ सरकार मौजूदा आर्थिक संकट पर काबू पाने के लिये जिस तरह के कदम उठा रही है उससे लगता है कि परंपरागत राजनीतिक अवधारणायें बदल रही हैं और ब्रिटेन के कंजरवेटिव अब कंजरवेटिव नहीं रह गये हैं और लिबरल डेमोक्रेट नये कंजरवेटिव हो गये हैं।
यूरोप में विचारधाराओं के आधार पर परंपरागत रुप से पारिभाषित दक्षिणपंथ और वामपंथ में परिवर्तन आ रहा है। मुख्यधारा विचाराधात्मक राजनीति के इस तरह के संकट और इस तरह के परिवर्तन से कोई विकल्प नहीं उभर पा रहा है और एक और ऐसे राजनीतिक गठजोड़ अस्तित्व में आ रहे हैं जिनके बीच कोई खास राजनीतिक समानता नहीं है ।
नव उदारवाद के पतन से जो राजनीतिक शून्य पैदा हुआ उससे निश्चय ही एक नई राजनीति के लिये दरवाजे खुले हैं। लेकिन इस तरह की नई राजनीति के उभरने के संकेत नहीं मिल रहे हैं जो इस ऐतिहासिक शून्य को भर सके। इन परिस्थितियों में पूरे यूरोप का आर्थिक और राजनीतिक मानचित्र विखंडित सा दिखायी पड़ता है।
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