Saturday 23 July 2011

अमेरिकी वापसी संभव नहीं

सुभाष धूलिया

ओबामा का इस दावे से कि अमेरिका अफगानिस्तान कें अपने लक्ष्य काफी हद तक हासिल कर चुका है युद्ध की ज्वाला थम रही है, सवाल पैदा होतें हैं कि आखिर अमेरिका के लक्ष्य थे क्या ? अगर अल-कायदा और इसकी संरक्षक तालिबानी सत्ता को ध्वस्त करना ही अगर अमेरिका का लक्ष्य था तो यह तो युद्ध छेडने के एक वर्ष के भीतर ही हासिल हो गया था. फिर दस वर्षों से यह युद्ध क्यों लड़ा जा रहा है जो अमेरिका के इतिहास का सबसे लंबा युद्ध है ? अमेरिका अफगान युद्ध में अरबों डॉलर खर्च कर चुका है . केवल इसी वर्ष १२० अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं, दिसम्बर २००९ में खुद ओबामा ने अफगानिस्तान में ३३ हज़ार सैनिक भेज कर अमेरिकी सैनिकों की संख्या लगभग एक लाख कर दी थी और अब इस वर्ष और सितम्बर २०१२ में इतने ही सैनिक वापस बुलाएं जा रहें हैं. इसलिए वास्तविक अर्थों में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति में कोई कमी नहीं हो रही है .
सच तो यह है की अमेरिका अपने लक्ष्य से कहीं अधिक दूर है और अमेरिका-विरोधी इस्लामी उग्रवाद पहले से भी उग्र हो गया है और अब तो पाकिस्तान में भी इसका आधार विस्तृत हुआ है. यही इस्लमी उग्रवाद आतंकवाद को जन्म देता है.
आज यह युद्ध पहले से कहीं अधिक नाजुक और जटिल मोड पर पहुँच गया है. लादेन को मारने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान को अँधेरे में रखकर सैनिक कार्रवाई करनी पडी पाक सरहदी इलाकों में अमेरिकी ड्रोन हवाई हमले तेज हो रहे हैं. पाकिस्तान के सत्ता और सैनिक प्रतिष्टान में का प्रभावशाली तबका अमेरिका से काफी नाराज है. अमेरिका इस बात से नाखुश है की पाकिस्तान ने अमेरिकी युद्ध को कभी भी उतना समर्थन नहीं दिया जितने की जरुरत थी और पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरण और इसका संकट इतना गहरा होता जा रहा है कि अमेरिकी सैनिक अभियान को समर्थन देने की इसकी क्षमता सीमित होती जा रही है और इस सबसे बढ़कर अमेरिका अफगानिस्तान में बिना पाकिस्तान के समर्थन के अपना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता. आज कहीं से भी ऐसे संकेत नहीं मिल रहे हैं जिनके आधार पर यह कहा जो सके की १९१४ तक अफगानिस्तान में ऐसी स्थिति पैदा हो सकेगी की अमेरिका की पूरी तरह सैनिक वापसी संभव हो सके. खुद अमेरिका के भीतर सैनिक वापसी को लेकर घहरे मतभेद हैं. सैनिक प्रतिष्टान तो इसके खिलाफ है और विदेश मानती क्लिटन तक इसके पक्ष में नहीं थीं. लेकिन अंततः इस कारण सहमति हो पाई कि अमेरिका अपनी रणनीति में परिवर्तन करेगा और अब विशेष सैनिक अभियानों और हवाई हमलों पर अधिक निर्भर रहेगा. इसके अलावा अमेरिका के भीतर आर्थिक संकट और बेरोज़गारी रुकने का नाम नहीं ले रही है और ओबामा कि लोकप्रियता लगातार गिर रही है. ओबामा ने यह भी कहा है कि युद्ध से संसाधनों को बेरोज़गारी दूर करने और राष्ट्रीय निर्माण में लगाया जायेगा. लेकिन उनका यह दावा भी खोखला है क्यूंकि अमेरिका कि वैश्विक सामरिक रणनीति में कोई बदलाव नहीं आया है. अफगानिस्तान में अमेरिका के बड़े सामरिक हित दाव पर लगे हैं. मध्य एशिया और खाड़ी कि तेल संसाधनों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए अफगानिस्तान पर नियंत्रण ज़रूरी है. आज कि स्थिति में अफगानिस्तान में ऐसी कोई सत्ता कायम होने के असार नहीं है जो अमेरिका विरोधी न हों. पाकिस्तान अफगान भू-भाग में आज घोर अमेरिका-विरोधी इस्लामी उग्रवाद गहरी जड़े जमा चुका है और यही उग्रवाद आतंकवाद को उपजाऊ ज़मीन मुहैया करता है. इस उग्रवाद को पराजित किये बिना अमेरिका के सामरिक हितों कि पूर्ती नहीं हो सकती. दस वर्षों के युद्ध में इस भू-भाग में उग्रवाद शिथिल पड़ने कि बजाये और भी उग्र हुआ है. अफगानिस्तान में पाकिस्तान के भी सामरिक हित दाव पर लगें हैं और आज ऐसी किसी सत्ता कि कल्पना नहीं कि जा सकती जो अमेरिका-विरोधी भी न हो और पाकिस्तान परस्त भी हो. अफगानिस्तान में पाकिस्तान के पास केवल तालिबान का विकल्प है और तालिबान के साथ संपर्क साधने के अमेरिका के प्रयास विफल हुए हैं. तालिबानी नेतृत्व का मानना है कि “ साम्राज्यों के कब्रिस्तान” अफगानिस्तान में अमेरिका युद्ध नहीं जीत सकता और एक न एक दिन पाकिस्तान के समर्थन से उसके सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्थ होगा. ओसामा को मार गिराने के लिए पाकिस्तान कि प्रभुसत्ता और अखंडता कि धज्जियाँ उड़ाते हुए अमेरिका ने इसके राजधानी के करीब सैनिक आक्रमण किया और पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में हमले लगातार तेज हो रहे हैं. एक तरह से अमेरिका अब केवल अफगानिस्तान में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी युद्ध ग्रस्त हो गया है. इस कारण पाकिस्तान के सत्ता और सैनिक प्रतिष्टान के भीतर अमेरिका विरोधी तबके की ताकत बढ़ी है और पाकिस्तान के सैनिक कमांडरों अमेरिका से बेहद नाखुश हैं. अफगानिस्तान में किसी भी तरह के स्थायित्व कायम करने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान कि ज़रूरत है. लेकिन अमेरिका कि शिकायत है पाकिस्तान ने अमेरिकी युद्ध को कभी भी उतना समर्थन नहीं दिया जितने कि ज़रूरत थी. पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिकी हमलों ले कारण अब पाकिस्तान को उतना समर्थन देना भी भारी पड़ रहा है जितना समर्थन वह अब तक देता रहा है.
इस पृष्टभूमि में कहीं से भी ऐसे कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ते जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि १९१४ तक अमेरिका अफगानिस्तान से पूरी तरह हट जाएगा. सच तो यह है कि अमेरिका के सामरिक हितों कि पूर्ती के लिए अफगानिस्तान पर नियंत्रण ज़रूरी है. आज अमेरिका कि वौश्विक सामरिक रणनीति में कहीं भी यह प्रतिबिंबित नहीं होता कि वह किसी भी सूरत में अफगानिस्तान पर अपना नियंत्रण खत्म करेगा. इस लक्ष्य कि पूर्ती के लिए मौजूदा स्थिति में अमेरिका को अफगानिस्तान पर नियंत्रण बनाकर रखने के लिए १९१४ में वापसी तो दूर अफगानिस्तान में अपने सैनिक अड्डों को कायम रखना होगा और इस संकट ग्रस्त भू-भाग में इन सैनिक अड्डों को बनाये रखने के लिए अमेरिका को स्थायी रूप से हज़ारों सैनिक अफगानिस्तान में तैनात रखने होंगे. इन परिस्थितियों में ओबामा का यह दावा खोखला और झूठा है कि अफगानिस्तान में अमेरिका के लक्ष्य काफी हद तक पूरे हो गए हैं और इस भूभाग में युद्ध कि ज्वाला थम रही है.

युद्ध और संघर्ष : सैनिक सफलता ही काफी नहीं

सुभाष धूलिया
आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के वैश्विक युद्ध को लगभग दस वर्ष हो गए हैं. इस युद्ध के रूप-स्वरूप और इससे लड़ने की रणनीतियों को लेकर भी निरंतर बहसें और विमर्श होते रहे हैं. ओबामा के सत्ता में आने के बाद इसे “आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध” के बजाय “हिंसक उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष” नाम तो दे दिया गया लेकिन इसके रूप –स्वरूप में कोई अंतर नहीं आया. आज इस संघर्ष का केंद्र पाक-अफगान भूभाग बना हुआ है और अमेरिका की रणनीति सैनिक ताकत के बल पर आतंकवाद को परास्त करने पर ही केंद्रित है. इस्लामी दुनिया को लेकर अमेरिका में हमेशा ये सवाल उठाया जाता रहा है कि “वे हमसे नफरत क्यों करते हैं” और इसका जवाब यहीं तक सीमित रहा की इस्लामी दुनिया के साथ संवाद को सही करने की जरुरत है और वे नफरत इसलिए करतें हैं की वे हमें ठीक से नहीं जानते.

अमेरिका में इस्लामी दुनिया के दिलो-दिमाग को जीतने के लिए अध्ययन पर अध्ययन होते चले गए और “थिंक टैंक्स” ने विचारों और रणनीतिओं का अम्बार खड़ा कर दिया पर दस वर्ष के इतिहास में अमेरिका ने कोई भी ऐसी कोशिश नहीं की, कोई भी ऐसा संघर्ष नहीं किया, जिससे दिलोदिमाग जीते जा सके बल्कि अमेरिका सिर्फ युद्ध ही लड़ता रहा है और सैनिक ताकत का ही सहारा लेता रही है. दस वर्ष के युद्ध के शुरू से ही अमेरिका यह कहता रहा की ये युद्ध आतंकवाद के खिलाफ है इस्लाम के खिलाफ नहीं लेकिन सच तो ये है की इस युद्ध के जितने भी निशाने रहे वे सभी इस्लामी देश हैं या इस्लाम के प्रतीक हैं. अमेरिका ने जिस तरह से यह युद्ध लड़ा और चाहे मकसद कुछ भी क्यों न रहा हो पर यह युद्ध किसी न किसी रूप में इस्लाम-विरोधी रूप अख्तियार करता चला गया. अमेरिका का हर युद्ध आज किसी इस्लामी देश में लड़ा जा रहा है और इस्लामी दुनिया की नफ़रत कम नहीं हुई है और न ही दिलोदिमाग जीते जा सकें हैं. अमेरिकी “थिंक टैंक्स” यही कहते रहे की इस्लामी दुनिया से संवाद बढ़ाना चाहिए ताकि वे हमें वे हमें सही ढंग से समझ सकें पर इस बारे में बहुत कुछ नहीं सोचा गया की अमेरिका इस्लामी दुनिया को कितना समझता है और दस वर्ष तो यही अधिक दर्शाते हैं कि इस्लामी दुनिया के सन्दर्भ में अमेरिका ‘युद्ध’ और ‘संघर्ष’ के बीच फर्क करने में ही असमर्थ है.
दस वर्षों में निश्चय ही अमेरिका ने सैनिक ताकत के बल पर काफी हद तक अमेरिका-विरोधी आतंकवादी संगठनों की कमर तोड़ दी है और खुद तो एक तरह के “इलेक्ट्रोनिक किले” में तब्दील कर दिया है. आज अमेरिका की जमीन पर कोई आतंकवादी हमला लगभग नामुमकिन सा हो गया है. लेकिन अमेरिका की सैनिक रूप से ही सफल भर हो पाया है. आतंकवाद की ऊपजाऊ जमीन धार्मिक उग्रवाद तो पहले से कहीं अधिक गहरा और व्यापक हो गया है.
अगर अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को अगर युद्ध के बजाय संघर्ष के रूप में लिया होता तो निश्चय ही उसे इससे लड़ने के लिए सैनिक गठजोड़ों के सामानांतर राजनीतिक गठजोड़ों की भी जरुरत होती और आज अफगानिस्तान और लगभग समूचे इस्लामी जगत में उस स्थिति का सामना न करना पड़ता जो आज करना पड़ रहा है. अमेरिका ने आतंकवाद को लेकर दोहरे मानदंड अपनाये. अब अमेरिका खुद आतंकवाद के निशाने पर आया तब जाकर आतंकवाद अमेरिका के लिए वैश्विक मुद्दा बना. शीत युद्ध के पूरे इतिहास में अमेरिका ने इस्लामी जगत में उदार राजनीतिक धाराओं की कीमत पर धार्मिक उग्रवाद तो समर्थन दिया. अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोविएत संघ को परास्त करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान का दमन थामा और इस्लामी उग्रवाद की उस धारा को जन्म दिया जो आज दुनिया के सबसे बड़े आतंकवाद का आधार है. सोविएत संघ के पतन के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान को पाकिस्तान के हवाले कर दिया. पाकिस्तान की मदद से तालिबान सत्तासीन हुआ और फिर तालिबान के अल कायदा को काबुल में अपना मुख्यालय खोलने के लिए आमंत्रिक कर डाला और अफगानिस्तान वैश्विक आतंकवाद के गढ़ के रूप में उभरा. काबुल में तालाबानी सत्ता को पूरी दुनिया में केवल पाकिस्तान और सउदी अरब ने ही मान्यता दी थी और ये दोनों ही देश अमेरिका के सहयोगी नहीं बल्कि पिट्ठू रहे हैं. जब तालिबानी सत्ता बुद्ध कि प्राचीन मूर्तियों को तोपों से गिरा रही थी तो पूरी दुनिया सकते में थी पर कहीं किसी तरफ से भी कोई कारवाही नहीं कि गई. मानवजाति की ऐतिहासिक धरोहर और सांस्कृतिक विरासत को इस तरह ध्वस्त किया गया लेकिन पूरी दुनिया खामोश बैठी रही. इसी वक्त विश्व नेता होने का दावा करने वाले अमेरिका को एहसास हो जाना चाहए था कि अगर आज बुद्ध आक्रमण के निशाने पर हैं तो कल स्टैचू ऑफ लिबरटी पर भी निशाना साधा जा सकता है. और यही हुआ. अमेरिका पर ९/११ आतंकवादी हमलों को खुद राष्ट्रपति बुश ने लोकतंत्र और स्वतंत्रता पर आक्रमण करार दिया. ९/११ के बाद विश्व का पूरा परिदृश्य बदल गया. २००१ में अमेरिका ने अफ्घान्सितन पर आक्रमण किया और पाकिस्तान को मजबूरन अमेरिका के युद्ध में शामिल होना पड़ा. अमेरिका ने आतंकवाद को पराजित करने के लिए किसी राजनैतिक गठजोड़ को कायम करने कि कोशिश नहीं कि बल्कि पाकिस्तान के साथ सैनिक गठजोड़ कायम कर सैनिक ताकत के बल पर ही आतंकवाद को पराजित करने का रास्ता अपनाया. इसी का परिणाम है कि आज एक ओर अमेरिका अफगानिस्तान अपनी फौजें वापस बुलाने कि तयारी कर रहा है और दूसरी और अफगानिस्तान में आतंकवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. संयुक्त राष्ट्र कि एक रिपोर्ट के अनुससार पिछले छह महीनों में अफगानिस्तान में जितनी हिंसा हुई है वह इससे पहले दस वर्षों में कभी नहीं हुई थी. अमेरिका ने वैश्विक आतंकवाद को ध्वस्थ करने के लिए किसी राजनैतिक गठजोड़ का सहारा नहीं लिया जिसमें स्वाभाविक रूप से भारत, रूस और यहाँ तक कि ईरान का भी साथ लिया जा सकता था. क्यूंकि यह सभी देश अफगानिस्तान के करीब हैं और वहाँ के घटनाक्रम को लेकर इनके हित भी उतने ही दाव पर लगे थे जितने कि अफघानिस्तान से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित अमेरिका के हित दाव पर लगे थे.
आज अफघानिस्तान के स्थिति बहुत नाज़ुक बन चुकी है. पाक- अफगान भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जटिल होता चला जा रहा है. अमेरिका जहाँ सैनिक वापसी के लिए अपने कुछ मकसद जल्द से जल्द पूरे कर देना चाहता है वहीँ पाकिस्तान इसमें एक रोड़ा साबित हो रहा है.
लादेन को मारने की कार्रवई और सीमा पर बढते हवाई हमलों से पाकिस्तान की सेना का एक वर्ग अमेरिका विरोधी भावनाएं भड़क उठी हैं. पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई अपने आप को उस आतंकवाद से अलग नहीं कर पा रही है इसे इसने पिछले 30 वर्षों से पाला-पोसा है और जिसका इस्तेमाल भारत और अफगानिस्तान दोनों के खिलाफ किया है. आज भी आई.एस.आई अफगानिस्तान में उग्रवादी गुटों से पल्ला नहीं झाड रहा है. अमेरिका का मानना है की आतंकवाद के खिलफ अभियान इसलिए सफल नहीं हो पा रह है क्योंकि पाकिस्तान में आतंकवादी अड्डे हैं और फिर अफगानिस्तान के भीतर तमाम ऐसे आतंकवादी गुट हैं जिन्हें पाकिस्तान अपनी “सामरिक सम्पतियें” मानता है ताकि कभी इनका इस्तेमाल काबुल में पाक-परस्त सत्ता कायम करने के लिए किया जा सके. हक्कानी गुट इनमे सबसे ऊपर है और अमेरिका इस पर लगातार प्रहार किये जा रहा है.

अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका ने पाकिस्तान को खुश रखने के लिए भारत को हमेशा दूर ही रखा. भारत ने भी अफगानिस्तान में अपना सहयोग पुनर्निर्माण तक ही सीमित रखा. इतिहास में तालिबान के शाशनकाल को छोड़कर कभी भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सम्बन्ध दोस्ताना नहीं रहे हैं. जबकि भारत ओर अफगानिस्तान सम्बन्ध हमेशा ही मैत्रीपूर्ण रहे हैं. पाकिस्तान अफगानिस्तान अपने प्रभुत्व में रहना चाहता है. और काबुल में एक ऐसे सत्ता देखना चाहता है जो भारत विरोधी हो. आज अफगानिस्तान एक ऐसी गुत्थी बना हुआ है जिसके भावी राजनैतिक मानचित्र कि कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभरती . अमेरिका अफगानिस्तान से हटना चाहता है, वहाँ एक स्थायित्व कायम करना चाहता है और एक ऐसी सत्ता के हवाले उसे करना चाहता है जो अमेरिका विरोधी न हो. लेकिन अफगानिस्तान में पाकिस्तान के जो भी सहयोगी हैं वे इस्लामी उग्रवादी है और अमेरिका के घनघोर विरोधी हैं. ऐसे में किसी सत्ता के उदय कि संभावना नहीं है जो अमेरिका विरोधी भी न हो और पाकिस्तान-परस्त भी हो. ऐसे में अमेरिका को भारत कि भूमिका को स्वीकार करना होगा. अफगानिस्तान राजनैतिक जीवन में जो भी थोडा बहुत उदार राजनैतिक शक्तियां हैं वे भारत समर्थक हैं और अगर अमेरिका एक ऐसा अफगानिस्तान चाहता है जो अमेरिका विरोधी न हो और अपने पैरों पर खड़े होने कि संभावना रखता हो उसे तभी कायम किया जा सकता है जब पाकिस्तान को अफगान समस्या के समाधान के केंद्र से हटाकर इसमें उन ताकतों को भी शामिल किया जाए जो पाकिस्तान को रास नहीं आती है. इस भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई पाकिस्तान के बूते पर नहीं लड़ी जा सकती ओर आज अमेरिका को भी अहसास हो रहा है कि आतंकवाद को लेकर दोहरे मानदंड नहीं हो सकते. यह कभी भी कहीं भी हमला कर सकता है इसलिए अब ९/११, २६/११ और हाल ही के मुंबई पर हुए हमलों को अलग अलग डिब्बों में बंद नहीं रखा जा सकता.
पाक-अफगान भूभाग में अमेरिका एक दलदल में फसा हुआ है जिससे निकलने के लिए वह पाकिस्तान पर निर्भर है. विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान अगर ऐसी कोई उम्मीद कि गई थी कि अमेरिका पाक-अफगान भूभाग में उभर रहे समीकरण में भारत को भागीदार बनाएगा तो इस दृष्टि से यह यात्रा निराशाजनक ही रही. अमेरिका ने भारत के आंतरिक सुरक्षातंत्र को पुख्ता करने के लिए मदद के प्रस्ताव किये हैं लेकिन अफगानिस्तान सन्दर्भ में दक्षिण एशिया के सामरिक समीकरणों में भारत को भागीदार बनाने के लिए अमेरिका अब भी तैयार नही है. पाकिस्तान के आतंकीतंत्र को लेकर खुफिया जानकारियाँ भी भारत को अमेरिका देने में कतरा रहा है. अफगानिस्तान भारत के सामरिक हितों कि अमेरिका अब भी अनदेखी कर रहा है और इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि अफगान समस्या का कोई भी टिकाऊ समाधान तब तक संभव नहीं होगा जब तक भारत कि इस में सक्रिय भागीदारी नहीं होगी.

इतिहास का सबसे जटिल युद्ध

सुभाष धूलिया


पाकिस्तान आज ऐसे देश की श्रेंणी में आज चुका जो अब तक अन्य देशों में आतंकवाद को हवा देता रहा लेकिन आज खुद इसी कारण से एक युद्धग्रस्त देश बन चुका है. एक ऐसे मौके पर जब पाकिस्तान को एक मजबूत सत्ता के सबसे अधिक जरुरत है, यह सत्ता विहीन सा हो गया गया है. यहीं सत्ता का कोई एक केंद्र नहीं रह गया है. एक तरफ तथाकथिक लोकतन्त्र है जिसके नेतृत्व की साख और धाक पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं और दूसरी तरफ सैनिक प्रतिष्टान जिसके जिसके हाथ में वास्तविक सत्ता है . पाकिस्तान का दुर्भाग्य है के इसके पूरे इतिहास में सेना का हे वर्चस्व रहा जिसने इस गरीब देश के पूरी व्यवस्था का सेन्यीकरण किया. सैनिक व्यय इतना हो चुका है कि लगभग एक तिहाई संसाधन सेना हड़प लेती है और शिक्षा -स्वस्थ जैसे सामाजिक क्षेत्र हासिये पर चले गए हैं.

नाभिकीय पाकिस्तान में एक विशाल आतंकीतंत्र पैदा हो चुका है जो केवल 9/11 या 26/11 के लिए ही जिम्मेदार नहीं रहा है बल्कि आज विश्व आतंकवाद का वैश्विक मुख्यालय बन चुका है जिसे भले ही पाकिस्तान सरकार का समर्थन प्राप्त न हो लेकिन इसे सैनिक प्रतिष्टान और बदनाम आई यस आई के प्रभावशाली तबकों का संरक्षण प्राप्त है जिसके बदौलोत लादेन इतने वर्षों तक वहां छिपा रहा और अब हेडली के मामले को लेकर जो सबूत सामने आये हैं उनसे भी साफ हो गया है कि पाकिस्तान का ख़ुफ़िया तंत्र किस हद तक भारत पर 26/11 के आतंकी हमलों के पीछे था. पाकिस्तान के समाज में धार्मिक उग्रवाद गहरी जड़ें जमा चुका है जो आंतकवाद को उपजाऊ जमीन मुहय्या करता है. पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से हे यहाँ के शासक धार्मिक उग्रवाद को राजीनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहें हैं और आज यही इन्ही हथियरों ने पाकिस्तान अपने इतिहास सबसे घहरे संकट कें डाल दिया है. पाकिस्तान का हर संकट पहले के संकट से अधिक गहरे होते चले गए. आज का संकट तो ऐसा है कि यहाँ तक कहा जा रहा है की पाकिस्तान एक विफल राज्य की और अग्रसर है जहाँ कानून का राज ख़त्म हो जाता है और सिविक सोसायटी और हर जनसंघठन अस्तित्वविहीन हो जातें हैं .
अपने पूरे इतिहास में पाकिस्तान की राजनीती भारत-विरोध और इस्लामी उग्रवाद के केंद्र में रही. लेकिन आज यह एक कैसे आतंकवाद से जूझ रहा है जिसका मुख्या निशाना विश्व के इतिहास की सबसे बड़ी सुपर पॉवर अमेरिका है जिसने नाभिकीय पाकिस्तान की प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उडा कर रखीं हैं. लादेन को मारने के लिए अमेरिका ने इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में किया और रोज-रोज ही पाकिस्तान पर अमेरिकी हवाई हमले होते रहतें हैं . एक नाभिकीय देश बेचारा बन कर रह गया है पर इस बेचारगी और विवशता के परिणाम घातक हो सकतें हैं –केवल पाकिस्तान के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए.

आज पकिस्तान अमेरिका के चंगुल में फंसा है. पाकिस्तान के भीतर अमेरिका ने एक मजबूत सैनिक और खुफियातंत्र कायम कर लिया है. पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान को इन परिस्थितियों में चीन से भी ऐसी मदद नहीं मिल सकती जिसकी इसे दरकार है. अमेरिका के इस्लामी उग्रवाद के निशाने पर आने के बाद सब कुछ बदल गया. पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा की वह पुराने समीकरणों का पूरी तरह परित्याग नहीं कर पाया और 9 /11 के उपरान्त उभरी व्यवस्था के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया जिसका खामियाजा उसे आज भुगतना पड़ रहा है और एक राष्ट्र- राज्य के रूप में इसका अस्तित्व ही दाव पर लग गया है. जिस तरह 9 /11 के उपरांत दुनिया बदली, ठीक उसी तरह पाकिस्तान पर लादेन को मरने के लिया अमेरिकी आक्रमण से एशिया का यह भूभाग भी बदल चुका है और ऐसे में भी यह देश दिशाहीन है. इन बदली परिस्थितिओं का सामना करने के लिए अब तक पाकिस्तान कोई स्पष्ट रणनीति नहीं विकसित कर पाया है . ऐसी परिस्थितिओं कई बार आत्मघाती दुस्साहस को जन्म देती है और पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान की इस तरह के दुस्साहस की क्षमता को बिलकुल भी कम करके नहीं आँका जा सकता. लेकिन . पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ युद्ध की अग्रिम पंक्तियों में स्वयं अमेरिक खड़ा है. अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने और सैनिक वापसी के लिए अमेरिका को पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद को पराजित करना होगा. बहुत लम्बे समय तक पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद किए निशाने पर केवल भारत ही रहा है लेकिन आज प्रत्यक्ष रूप से तो यह अमेरिका का ही युद्ध बन चुका है . पाकिस्तान के भीतर के भावी सत्ता समीकरणों को तय करने में अमेरिका की एक बड़ी भूमिका हो गयी है. अमेरिका इस इस दखल के खतरे भी हैं और इससे अंध-राष्ट्रवाद और उग्रवाद को ताकत मिलती है जिसके अपने ही खतरें हीं.

शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान के जरिये सोवियत संघ के खिलाफ इस्लामी उग्रवाद को खड़ा किया और नब्बे के दशक मैं अफगानिस्तान पर प्रभुत्व कायम करने के लिए पाकिस्तान ने तालिबान को खड़ा किया लेकिन 9 / 11 के बाद ये राजनितिक निवेश ध्वस्त हो गया. दरअसल 9/11 के उपरांत उभरे राजीनीतिक और सामरिक समीकारों से पाकिस्तान को उस इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ अमेरिकी युद्ध मैं शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा
.
लेकिन आज के परिस्थियों में पाकिस्तान के नाभिकीय हथियार एक बार फिर चर्चा का विषय बने गए हैं और अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया में ये डर रहा है की कहीं आतंकवादियों के हाथ नाभिकीय हथियार न आ जायें और जब भी ये आशंका होती है, हर निगाह पाकिस्तान की तरफ जाती है . पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र देश हैं जिसे नाभिकीय स्मगलर का ख़िताब मिला है .और पाकिस्तान ही दुनिया कि एकमात्र ऐसी नाभिकीय शक्ति है जो इन विनाशकारी हथियारों के प्रयोग करने कि धमकियाँ देती है. लादेन के मारे जाने के बाद पाकिस्तान सरकार ने बयान दिए इस तरह के सैनिक कार्रवाई दुबारा होने के स्थिति के गंभीर परिणाम होंगे और यहाँ तक कहा है की ऐसी किसी भी कार्रवाई के पूरी दुनिया के लिए विनाशकरी परिणाम होंगे. इस तरह के बयान एक तरह से नाभिकीय युद्ध के धमकी है. अब तक पाकिस्तान भारत के साथ नाभिकीय ब्लैकमेल का सहारा लेता रहा और आब पूरी दुनिया को धमकी दे डाली है. इस तरह का नाभिकीय ब्लैकमेल संकटग्रस्त पाकिस्तान को काफी भरी पड़ सकता है. . पाकिस्तान संसद सरकार , सेना और कुख्यात आई एस आई के रुख से लगता है के सैन्य प्रतिष्टान पर अमेरिका का निशाना एक वास्तविक सम्भंवना है.

विश्व समुदाय के अनेक हलकों में इनकी सुरक्षा के लेकर संदेह व्यक्त किये जा रहें हीं. पाकिस्तान ने भारत के साथ सैनिक होड के चलते नाभिकीय हथियार तो हासिल कर लिए लेकिन आज यही नाभिकीय हथियार पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं. आज पाकिस्तान को सबसे बड़ा खतरा भारत नहीं बल्कि पश्चिम-विरोधी आतंकवाद है जिस पर काबू करने में पाकिस्तान असमर्थ प्रतीत होता है और जो पाकिस्तान-अफगान भूभाग में इतनी गहरी जड़ें जमा चुका है कि इसे जड़ से मिटाना मुश्किल प्रतीत होता है. इसके समान्तर पाकिस्तान में अमेरिका विरोध उग्र रूप धारण कर चुका है .

पाकिस्तान आज केवल एक संकटग्रस्त देश नहीं है . यह एक शर्म और अपमान में डूबा देश है. नाभिकीय हथियारों से लैस यह. सैनिक शक्ति आज बेबस है. अमेरिका ने इसकी प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उड़ाते हुए इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में ओसामा को मार गिराया. इसके कुछ हे दिनों बाद पाकिस्तान के नौसैनिक प्रतिष्टान पर एक बड़ा आतंकवादी हमला हुआ. इससे पाकिस्तान के सुरक्षा तंत्र को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे हैं और ये सवाल और भे गंभीर हो जातें हैं क्योंकि यह देश नाभिकीय हथियारों से लैस है. . ओसामा अगर बिना इन तबकों की मदद से पांच साल तक पाकिस्तान की राजधानी के करीब रहा रहा था तो फिर यह तो और भी खतरनाक स्थिति हैं और पाकिस्तना के सैनिक और ख़ुफ़िया तंत्र के निकम्मेपन की पराकाष्टा है और अगर ऐसा है तो कैसे ये माना जाये के पाकिस्तान के नाभिकिये हथियार किन्ही सुरक्षित हाथों मैं हैं और ये हाथ कितने सुरक्षित हैं ?

पाकिस्तान अपने इतिहास में हमेशा से ही संकटग्रस्त रहा है और इसका हर संकट पहले के संकट से अधिक गहरे होते चले गए. आज का संकट तो ऐसा है कि यहाँ तक कहा जा रहा है की पाकिस्तान एक विफल राज्य की और अग्रसर है जहाँ कानून का राज ख़त्म हो जाता है और सिविक सोसायटी और हर जनसंघठन अस्तित्वविहीन हो जातें हैं . पाकिस्तान के भीतर ही कहा जा रहा है कि अब अमेरिका का अगला निशाना पाकिस्तान का सैनिक प्रतिष्ठान और इसके नाभिकीय हथियार होंगे. इससे पहले भी एक बार जब पाकिस्तान में अमेरिका -विरोधी इस्लामी उग्रवाद इतने चरम पर था और पाकिस्तान सरकार इस पर नियंत्रण करने में असमर्थ सी दिख रही थी तब भी खबरें थीं कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में विशेष दस्ते तैनात कर दिए हैं जो जरुरत पड़ने पर पाक नाभिकीय हथियारों पर नियंत्रण कायम कर लेंगे.

अफगानिस्तान में नाटो और अमेरिकी सेना को विभिन्न तरह के साजो-सामान की आपूर्ती पाकिस्तान के रास्ते होती है. हाल हे मैं पाकिस्तान ने ये भी धमकी दी वह इन रास्तों को बंद भी कर सकता है . अमेसिका ने आगे वर्ष अफघानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने के प्रक्रिया शुरू करने का इरादा जाहिर किया है और तब तक वह अफगानिस्तान में किसी न किसी तरह का स्थावित्व कायम करना चाहेगा और इसमें सबसे बड़ी बाधा पाकितान ही साबित हो रहा है. . लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने पर अफगान राष्ट्रपति करज़ई ने कहा की इससे उनकी ये बात सही साबित हो गयी हैं की आतंकवाद से लड़ने के लिए उनके देश के गाँव और गरीवों के खिलाफ युद्ध निरर्थक है और आतंकवाद का असली गढ़ पाकिस्तान हैं और युद्ध वहां छेड़ा जाना चाहिए..

आज के परिस्थियों में अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी खतरे में पड़ रही है और सारा दवाब पाकिस्तान पर है जो बेबस, दिशाहीन और नेतृत्व विहीन नज़र आता है. पड़ोस में एक ऐसा युद्ध हो रहा है जो इतना जटिल है के इससे पहले ऐसा हद कभी नहीं देखा गया और आज भावी परिदृश्य का खाका खींचना मुमकिन नहीं दिखता.

पड़ोस का सर्द-गर्म युद्ध और भारतीय विदेश नीति

सुभाष धूलिया

आज भारत का सामना एक ऐसे पाकिस्तान से है जो इससे पहले कभी अस्तित्व में नहीं था. आज पाकिस्तान के साथ संबंधों में हार-जीत के अर्थ बदल चुकें हैं. अब एक दूसरे को कमजोर करने का मतलब खुद को कमजोर करना होगा. पाकिस्तान आज स्वयं से युद्धग्रस्त है और पाकिस्तान को लेकर भारत के हित इस इस रूप में दाँव पर लगे हैं कि पाकिस्तान के भीतर चल रहे युद्ध में किन ताकतों के विजय होती है. इस दौर में भारत की विदेश नीति का लक्ष्य यही होना चाहिए की पाकिस्तान में ऐसी शक्तियों ताकत न मिले जिनकी राजनीति भारत-विरोधी उन्माद पर टिकी है.

पाकिस्तान आज केवल एक संकटग्रस्त देश नहीं है . यह एक शर्म और अपमान में डूबा देश है. नाभिकीय हथियारों से लैस यह सैनिक शक्ति आज बेबस है. आज हर पाकिस्तनी देशभक्त को शर्मशार और अपमानित होना चाहिए. शर्मशार इसलिए के दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी पांच सालों से उसके सिरहाने तले छिपा बैठा रहा और अपमानित इसलिए के अमेरिका ने इसकी प्रभुसत्ता और अखंडता की धज्जियाँ उड़ाते हुए इसकी राजधानी के एकदम पास एक सैनिक आक्रमण में ओसामा को मार गिराया. एक राष्ट्र का अपमानित और बेबस होने के अपने ही खतरे हैं. आज पाकिस्तान की इस हालत के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार इसका सैनिक और खुफिया तंत्र है जिसके कुछ प्रभावशाली तबके धार्मिक उग्रवाद को पनाह देते रहे हैं . ओसामा अगर बिना इन तबकों की मदद से पांच साल तक पाकिस्तान की राजधानी के करीब रहा रहा था तो फिर यह तो और भी खतरनाक स्थिति हैं और पाकिस्तना के सैनिक और ख़ुफ़िया तंत्र के निकम्मेपन की पराकाष्टा है और अगर ऐसा है तो कैसे ये माना जाये के पाकिस्तान के नाभिकिये हथियार किन्ही सुरक्षित हाथों मैं हैं और ये हाथ कितने सुरक्षित हैं ? पाकिस्तान की वास्तविक सत्ता का नियंत्रण इन्ही 'सुरक्षित' हाथों में है जिन्होंने हर सामरिक युद्ध मैं पराजय झेली है और केवल आतंकवादी युद्धों में ही 'विजय' का दावा कर सकतें हैं . यही वह पाकिस्तानी सत्ता है जिसने इतिहास में हर संकट की घडी में राष्ट्रवाद के उन्माद की आड़ में सत्ता हड़पी और इस पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए भारत-विरोधी उन्माद का सहारा लिया. स्वाभातावा अमेरिकी आक्रमण के उपरांत राष्ट्रवाद का उफान आया है और एक बार फिर इस गुमराह राष्टवाद के घोड़े पर सवार होने की कोशिश करेगी जो पहले ही शुरू हो चुकी है और आने वाले दिनों में भारतीय सीमा और खास तौर से कश्मीर मैं सीमा पर झड़पें हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. पाकिस्तान में आज के कशमश की स्तिथि होनी चाहिए. अगर पाक के एक देश के रूप में कोई भविष्य हैं तो भारत-विरोधी उन्माद की टक्कर में एक ऐसे विवेकशील नेतृत्व का अस्तित्व होना चाहेए जो भारत से सहयोग का रास्ता अपनाकर पाक को इस संकट से निकलने के लिए के लिए किसी रास्ते का निर्माण करे . पाकिस्तान का भविष्य इस कशमकश के परिणाम पर निर्भर करता है .

कुछ ख़ास ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण, भारत में भी एक प्रभावशाली पकिस्तान-विरोधी तबका अस्तित्व में रहा है जो समय समय पर पाकिस्तान के प्रति भारतीय नीति को प्रभावित करता रहा है. 9 /11 और 26 /11 और हाल ही में अमेरिकी सैनिक कारवाही जैसी परिस्थितियों में पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कमर कस लेता है. भारतीय मीडिया का एक तबका भी पाकिस्तान-विरोधी उन्माद का शिकार रहा है जो पाकिस्तान हे नहीं चीन के साथ संबंधों को लेकर भी अनावश्यक राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करता रहा है. सच तो यह है की भारत के भीतर पाकिस्तान- विरोधियों और पाकिस्तान के भीतर भारत-विरोधियों की कभी भी कमी नहीं रही और दोनों देशो की विदेश नीति पर इनका प्रभाव भी कभी कम नहीं रहा. लेकिन आज की स्थिति में 'विरोध' ये परंपरागत समीकरण बिखर चुके हैं और इसी के अनुरूप विदेश नीति को बदलना होगा जिससे पाकिस्तान के भीतर के भारत-विरोधियो को पराजित किया जा सके. आखिर आज भारत उस पाकिस्तान से रूबरू नहीं है जो 1947 में अस्तित्व में आया था बल्कि यह एक ऐसा पाकिस्तान है जिसका बिखरना भारत के लिए एक बड़ा खतरा होगा . अमेरिकी कारवाही के एक दम बाद भारतीय सैनिक नेतृत्व ने कुछ ऐसे बयान दिए जिनसे पाकिस्तान के भारत- विरोधी उन्मादियों को ताकत मिली. लेकिन इसके एकदम बाद राजनैतिक नेतृत्व ने विवेक का परिचय दिया और स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा की भारत अमेरिका नहीं है और न ही भारत के तौर-तरीके अमेरिका जैसे हैं. उन्होंने पाकिस्तान के साथ मौजूदा राजनैतिक प्रक्रिया को बनाये रखने पर जोर दिया.


ऐतिहासिक रूप से एक अपमानित देश में सकारात्मक परिवर्तन नहीं आयें हैं. पहले विश्व युद्ध में जर्मनी के अपमान ने दुसरे विश्व युद्ध को जन्म दिया लेकिन दुसरे विश्व युद्ध में अपमानित जापान अलग ही रास्ता अपनाने को मजबूर था. अपमानित पाकिस्तान कौन सा रास्ता अपनाएगा -यह इस बात पे निर्भर करता है की पाकिस्तान के भीतर चल रही कशमकश में कौन सा पक्ष मजबूत होकर उभरता है. आज पकिस्तान अमेरिका के चंगुल में फंसा है. पाकिस्तान के भीतर अमेरिका ने एक मजबूत सैनिक और खुफियातंत्र कायम कर लिया है. पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान को इन परिस्थितियों में चीन से भी ऐसी मदद नहीं मिल सकती जिसकी इसे दरकार है. पाकिस्तान में इस्माली उग्रवाद गहरी जड़े जमा चूका है जिसका इस्तमाल सैनिक प्रतिष्ठान ने भारत के खिलाफ और अफगानिस्तान पर प्रभुत्वा कायम करने के लिए लिया. लेकिन अमेरिका के इस्लामी उग्रवाद के निशाने पर आने के बाद सब कुछ बदल गया. पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा की वह पुराने समीकरणों का पूरी तरह परित्याग नहीं कर पाया और 9 /11 के उपरान्त उभरी व्यवस्था के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया जिसका खामियाजा उसे आज भुगतना पड़ रहा है और एक राष्ट्र- राज्य के रूप में इसका अस्तित्व ही दाव पर लग गया है.

ऐसी परोस्थितियाँ कई बार आत्मघाती दुस्साहस को जन्म देती है और पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान की इस तरह के दुस्साहस की क्षमता को बिलकुल भी कम करके नहीं आँका जा सकता. लेकिन पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ युद्ध की अग्रिम पंक्तियों में स्वयं अमेरिक खड़ा है. अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने और सैनिक वापसी के लिए अमेरिका को पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद को पराजित करना होगा. बहुत लम्बे समय तक पाकिस्तान के इस्लामी उग्रवाद किए निशाने पर केवल भारत ही रहा है लेकिन आज प्रत्यक्ष रूप से तो यह अमेरिका का ही युद्ध बन चुका है . पाकिस्तान के भीतर के भावी सत्ता समीकरणों को तय करने में अमेरिका की एक बड़ी भूमिका हो गयी है. अमेरिका इस इस दखल के खतरे भी हैं और इससे अंध-राष्ट्रवाद और उग्रवाद को ताकत मिलती है.

इसलिए एकदम पड़ोस में भड़क रहे इस सर्द-गर्म और जटिल युद्ध के प्रति भारत को एक नयी नीति का सृजन करना होगा जिसमें अलगाव भी न हो और ऐसा जुडाव भे न हो की दीर्घकालीन हितों पर चोट पहुंचे और कुछ ऐसी समस्याएं भारत के दरवाजे पर आज टपकें जिन्हें दूर रखा जा सकता है. पुराने राजनीतिक और सामरिक समीकरण ध्वस्त हो चुकें हैं और नए उभर रहे हैं जिनका सामना करने के लिए नयी नीति और नए दृष्टिकोण की जरुरत है -जिस तरह 9 /11 के उपरांत दुनिया बदली, ठीक उसी तरह पाकिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण से एशिया का यह भूभाग भी बदल चुका है.

अब आतंकवाद के निशाने पर कौन ?

सुभाष धूलिया

पाक- अफगान भूभाग में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जटिल होता चला जा रहा है. अमेरिका जहाँ सैनिक वापसी के लिए अपने कुछ मकसद जल्द से जल्द पूरे कर देना चाहता है वहीँ पाकिस्तान इसमें एक रोड़ा साबित हो रहा है .यूं तो लादेन को मरने के लिए की गयी सैनिक कार्रवाई से ही तनातनी शुरू हो गयी थी पर इसके बाद पाकिस्तान ने कई ऐसे कदम उठाये जिनसे अमेरिका नाराज है. पाकिस्तान ने लादेन के मारे जाने के बाद न केवल सी.आई.ए. के पाकिस्तानी एजेंटों के धरपकड की गयी बल्कि अब अमेरिका के 200 ट्रेनरों को भी बाहर कर दिया है और आरोप लगाया कि ये पाकिस्तान में सी.आई.ए का तंत्र कायम करने में जुटे थे. अमेरिका ने अब साफ़ कर दिया है कि पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई लगाम लगाये बिना आतंकवाद का सफाया कठिन होगा. अमेरिका आई.एस.आई के प्रमुख जनरल पाशा को हटने के लिए भे दवाब डाल रहा है . तनाव इतना है के पाकिस्तान ने अमेरिका को शांत करने के लिए जनरल पाशा को अमेरिका रवाना करना पड़ा पर इसके कोई खास परिणाम नहीं निकले.
अब अमेरिका ने पाकिस्तान को सबसे बड़ा झटका दिया है और 80 करोड डॉलर की सैनिक मदद रोक दी है. पाकिस्तानी सेना काफी हद तक अमेरिका की मदद पर निर्भर है . 2001 में अफगान युद्ध शुरू होने से अब तक अमेसिका पाकिस्तान को १२ अरब डॉलर की प्रत्यक्ष सैनिक मदद दे चुका है . लादेन को मारने की कार्रवई और सीमा पर बढते हवाई हमलों से पाकिस्तान की सेना का एक वर्ग अमेरिका विरोधी भावनाएं भड़क उठी हैं और ऐसे में पाकिस्तान के लिए वह सब कर पाना मुश्किल हो रहा है जिसकी अमेरिका को दरकार है. अमेरिका का मानना है की आतंकवाद के खिलफ अभियान इसलिए सफल नहीं हो पा रह है क्योंकि पाकिस्तान में आतंकवादी अड्डे हैं और फिर अफगानिस्तान के भीतर तमाम ऐसे आतंकवादी गुट हैं जिन्हें पाकिस्तान अपनी “सामरिक सम्पतियें” मानता है ताकि कभी इनका इस्तेमाल काबुल में पाक-परस्त सत्ता कायम करने के लिए किया जा सके. हक्कानी गुट इनमे सबसे ऊपर है और अमेरिका इस पर लगातार प्रहार किये जा रहा है. आई.एस.आई अपने आप को उस आतंकवाद से अलग नहीं कर पा रही है इसे इसने पिछले 30 वर्षों से पाला-पोसा है और जिसका इस्तेमाल भारत और अफगानिस्तान दोनों के खिलाफ किया है. आज भी आई.एस.आई अफगानिस्तान में उग्रवादी गुटों से पल्ला नहीं झाड रहा है और अब अमेरिका का दवाब इस कदर बढ़ गया है कि पाकिस्तान को कुछ ठोस निर्णय लेने ही होंगे.

इसके सामानांतर अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने के प्रयासों बड़ा धक्का लगा जब राष्ट्रपति हामिद करज़ई के सौतेले भाई अहमद वली करज़ई के हत्या कर दी गयी. अहमद वली को कंधार का नेरश कहा जाता था और इनकी ताकत के पीछे अफीम के तस्कर तक शामिल थे. इन्हें अत्यंत भरष्ट माना जाता था पर तालिबान के गढ़ कंधार में इनकी तूती टूटी बोलती थी. सी..आई. ए. ने भी माना की तालिबान के गढ़ में इससे लड़ने के लिए अहमद वली की ताकत की जरुरत है. अहमद वली के जाने के बाद से कंधार में एक सत्ता शुन्य पैदा हो गया है जिसे भरना आसान नहीं होगा और इससे राष्ट्पति करज़ई की ताकत कमजोर हुयी है. अफगान युद्ध में तालिबान को परास्त करने के लिए कंधार का नियंत्रण अहम है.
इस पृष्टभूमि से यह स्पष्ट है अब पाक-अफगान भूभाग में अमेरिका की रणनीति आतंकवाद को खत्म करने से कहीं अधिक आतंकवादिओं ध्वस्त करने पर केंद्रित है. आने वाले दिनों में इस क्षेत्र सैनिक अभियान तेज होगा और पाकिस्तन को अपना रुख बदलने पर मजबूर होना होगा. इन सैनिक अभियानों से काफी हद तक वैश्विक आतंकवाद कमजोर हुआ है पर अब लादेन के उत्तराधिकरिओं को भी अपने आप को साबित करना होगा और निश्चय ही वे किसी “काफिरस्तान” पर आतंकी हमले करेंगे. आज अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश एक तरह के इलेक्ट्रोनिक किले बन चुकें हैं. इस इलेक्ट्रोनिक नज़र से बच कर आतंकवादी हमला कफी मुश्किल हो चुका है. इसी परिप्रेक्ष्य में मुंबई पर हमलों का आंकलन करना होगा. भारत एक विशाल देश है और इसका सुरक्षातंत्र अमेरिका जैसा नहीं हो सकता और इस दृष्टि से भारत आतंकवादिओं के लिए एक ‘सोफ्ट टारगेट’ हो जाता है. यूं तो अफगानस्तान और पाकिस्तान में रोजमर्रे ही आतंकवादी हमले हो रहे हैं पर भारत पर आतंकवादी हमलों के परिणाम अलग तरह के हंगे और स्थिति नाजुक तब और हो जाती है जब इस तरह के हमलों आई.एस.आई का हाथ हो. भारत पर हमलों से आतंकवादी इस इस क्षेत्र में एक तनाव का माहोल पैदा कर सकते हैं और पूरे क्षेत्र मैं चल रही विभिन्न राजनीतिक प्रक्रियायों ध्वस्त कर सकतें हैं. सरकारें भले कितनी ही परिपक्व क्यों न हों, किन्ही खास परोस्थियों में लोगों के आक्रोश की अनदेखे नहीं कर सकतीं. लेकिन जो भी हो इतना माना जा सकता है कि आज भारत के वैश्विक आतंकवाद के निशाने पर होने की वास्तविक सम्भावनाएं मौजूद हैं.

यह भी दिलचस्प है के आज की तारीख में जहाँ अमेरिका और पाक संबंधों मैं तनातनी है वहीँ भारत-पाक सम्बन्ध पटरी पर आते नज़र हैं. इस बार मुंबई हमलों के उपरांत किसी तरह के पाक विरोधी उन्माद पैदा नहीं हुआ और विदेश मंत्री ने स्पष्ट किया कि वार्ता और आतंकवाद के अलग रखन होगा और ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए कि सरहद के पर के उग्रवादिओं और भारत-विरोधी उन्माद तो ताकत मिले. पाकिस्तान में भी शायद ये अहसास जग रहा है के वह अपने इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा हो और आज अपने राष्ट्रीय जीवन को भारत-विरोधी धुरी पर बनाये रखने के गंभीर परिणाम होंगे. पाकिस्तान का अफगानिस्तान से लगी पश्चिमी सरहद में बहुत लंबे समय तक शांति कायम नहीं होने जा रही है और अफगानिस्तान में कैसी भे सत्ता अस्तित्व में आये –पाकिस्तान को शुकून नहीं देने जा रही. इस वक्त अफगानिस्तान में ऐसी किसी सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती हो अमेरिका-परस्त भी हो और पाकिस्तान को भी रास आये. ऐसे में कोई भी जरा सा भी विवेकशील पाकिस्तानी नेतृत्व भारत के साथ लगी पूरवी सरहद पर अमन चाहेगा.

आज इस भूभाग में आतंकवाद से लड़ने की हर रणनीति के केंद्र में आई.एस.आई है जो पाकिस्तान कि सत्ता का इ हिस्सा है. कोई भी आतंकवादी हमला जिसे आई एस आई के तत्त्वों का समर्थन प्राप्त हो उसे राज्य – प्रायोजित आतंकवाद ही कहा जाएगा.ऐसे में पाकिस्तान के सत्ता तंत्र को आई एस आई को साफ़ सूत्र करना होगा. इसके बिना न तो पाकिस्तान वह कर सकता जिसकी अमेरिका को दरकार है और भारत के साथ बेहतर संबंधों के लिए यह भी ज़रूरी है कि भारत पर ऐसा कोई आतंकवादी हमला न हो जो ऐसी श्रेणी में आता हो जिसमें आई एस आई का हाथ हो.
अब हर सवाल का जबाव इसी मैं छिपा है की क्या पाकिस्तान का सत्तातंत्र आई.एस.आई पर लगाम लगायेगा? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसका ऐसा इरादा है और क्या वह यह करने में समर्थ है? इस तरह का इरादा न होना और इस तरह से समर्थ न होने कि स्तिथि में पाकिस्तान हमेशा शक के दायरे में रहेगा और मौजूदा परिस्थितियों में पाकिस्तान का ऐसा बना रहने स्वयं उसके लिए बहुत घातक है. इस सप्ताह भारत पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों कि वार्ता और अमेरिकी विदेश मंत्री क्लिंटन कि भारत यात्रा से पैदा हुआ माहौल पाकिस्तान के लिए अवसर भी पैदा करता है और चुनौती भी. यह पाकिस्तान पर निर्भर है कि वह किस हद्द तक इस अवसर का लाभ उठा पाता है और अपने इतिहास के सबसे बड़े संकट से कैसे और किस रूप में उभर पाता है. आज कई हलकों में पाकिस्तान के विखंडन की चर्चा होने आगे है.

अरब वसंत और अब तुर्की के चुनाव

सुभाष धूलिया

इक्कीसवीं सदी के विश्व के राजनीतिक मानचित्र के निर्माण और अनेक तरह के टकरावों का केंद्र इस्लामी दुनिया बनती जा रही है . शीत युद्ध के उपरांत पूरी इस्लामी दुनिया में उग्र राजीतिंक इस्लाम उफान पर था और 9/11 के उपरांत अमेरिका के आंतंकवाद के खिलाड वैश्विक युद्ध में इस्लामी देश ही निशाने पर रहे और इसले लगा कि दुनिया पश्चिम और इस्लाम के बीच एक ऐसे टकराव की ओर बढ़ रही हैं जिसका कोई अंत नहीं होगा और अस्थिरता एक स्थायी रूप धारण कर लेगी.
लेकिन हाल ही में इस्लामी दुनिया में कुछ ऐसे रुझान पनपने शुरू हुए हैं जिनमे कुछ बुनियादी और सकारात्मक परिवर्तनों के तत्त्व निहित हैं. अरब जगत के हाल के ही जन विद्रोह ने सन्देश दिया कि अब तो कुछ बदलना ही चाहिए भले ही यह अरब वसंत के पास अभी बदलाव की स्पष्ट रूपरेखा नहीं है और न ही यह कोई संघटित राजनीतिक ताकत है. पर इसने एक सन्देश यह दिया कि इस्लामी दुनिया सिर्फ कट्टरपंथ और आतंकवाद तक सीमित नहीं है. इसके भी एक बेहतर जिंदगी के कुछ सपने हैं.इन्हें भी भ्रष्ट तानाशाहों से मुक्ति चाहिए. इनके देश में भी स्वंत्रता की हवाएं बहनी चाहिए. लेकिन पूरा इस्लामी जगत कट्टरपंथ और युद्ध के एक ऐसे मकडजाल में फंसा है के परिवर्तन की अवधारणा ही धूमिल रही.

इन रुझानों के बीच हाल ही के तुर्की के चुनाव परिणाम और अनेक उग्र इस्लामी धाराओं में कुछ उदार तत्वों के उदय से परिवर्तन के एक नक़्शे के बनाने की छोटी सी आशा दिखती है. तुर्की के चुनावों में इस्लामी पार्टी ने लगातार तीसरी बार चुनाव जीते. 2002 से अब तक के अपने शासन में तुर्की ने यह साबित कर दिया के इस्लाम और लोकत्रंत्र परस्पर विरोधी नहीं हैं और लोकत्रंत्र को इस्लामी मूल्यों और संस्कृति के अनुरूप ढला जा सकता है. आज यह धारणा पनप रही है कि तुर्की इस्लामी दुनिया के लिए एक मॉडल हो सकता है जिसमें इस्लाम और लोकत्रंत्र एक एक साथ फल फूल सकतें हैं. तुर्की में पहले विश्व युद्ध के बाद कमाल अतातुर्क ने जिस धर्मनिरपक्ष गणतंत्र के नीव राखी थे वह आज इस्लामी पार्टी के सत्ता में आने के बाद भी फलफूल रही है . तुर्की में कई बार सेना ने इस्लामी सत्ता के उदय नहीं होने दिया और निवार्चित सरकारों को बर्खास्त किया लेकिन आज तुर्की में लोकत्रंत्र और इस्लाम का इस तरह का समावेश चुका है की “इस्लामी सता” के उदय का डर खत्म हो गया है . तुर्की के सफल प्रयोग ने यह साबित कर दिया कि इस्लामी सत्ता का पश्चिम-विरोधी होना अनिवार्य नहीं हैं और अब पूरे इस्लामी जगत के सन्दर्भ में पश्चिम को यह साबित करना होगा कि हर इस्लामी लोकत्रंत्र के पश्चिम-परस्त होना भी अनिवार्य नहीं है तभी इस्लामी दुनिया में ऐसे परिवर्तन संभव हैं जिनसे युद्ध और अस्थिरता को खत्म किया जा सकता है .

इस संदर्भ में इस बात को नहीं भूल जाना चाहिए कि हर देश कि अपनी संस्कृति है, अपनी एक पहचान और यही इसकी किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के आधार हो सकतें हैं. लोकत्रंत्र का निर्यात संभव नहीं है और यह न तो अफगानिस्तान ने सफल हुआ न इराक में और न ही लीबिया में सफल होने जा रहा है. इसके विपरीत इरान और सूडान जैसे देशों में इस्लामी सत्ता का जूनून भी कम हो रहा है और इक्कीसवीं सदी के साथ जीने के बदलाव के स्वर उठ रहे हैं. इस दौर में इस्लाम में कट्टरता के बजाय उदारता कि एक धारा पैदा हो रही है. मिस्र में इस्लामी ब्रदरहूड में नरम धारा पनप रही है और अरब वसंत के दौरान इसे साफ़ देखा जो सकता था. लेबनान में हिजबुल्लाह ने अस्सी के दशक में आत्मघाती हमलों के आतंकवाद कि शुरुआत की थी लेकिन आज यह एक राजनीतिक दल है और उग्रवादी तत्त्व हासिये पर चले गए हैं.
सत्तर के दशक से जो इस्लामी कट्टरपंथ पनप रहा था और जिसकी एक धारा आतंकवाद के रूप में पनपी, वह आज ढलान पर है. इस्लामी दुनिया के नया उफान है. तुर्की एक मॉडल पेश करता है और अगर मिस्र में भी इस्लाम और लोकत्रंत्र का समावेश हो पता है तो ये दोनों देश पूरी इस्लामी पर जबरदस्त असर डाल सकतें हैं. इस परिवर्तन का अग्रिम दस्ता युवा वर्ग है जिसकी उम्र तीस साल से कम है और जो इस्लामी जगत के आवादी का सत्तर प्रतिशत है. यही युवा अन्याय से लड़ने के लिए इस्लामी उग्रवाद की और खिंचा और आज इसी युवा के सपने कुछ और हैं . अरब वसंत ने यह साबित कर दिया कि इस्लामी दुनिया में ऐसी राजनीतिक धाराएं मौजूद हैं जो उदार व्यवस्थायों के निर्माण का आधार बन सकतीं हैं. इसने यह भी साबित कर दिया की भ्रष्ट तानाशाहों के खिलाफ कितना आक्रोश है जिन्हें हमेशा पश्चिम का समर्थन मिलता रहा. यही सब देश हैं जो दावा करतें हैं के उनकी सत्ता का विकल्प केवल पश्चिम-विरोधी इस्लामी सत्ताएं है. लेकिन अरब बसंत और तुर्की के सफल इस्लामी प्रयोग साबित कर दिया है कि जरुरी हैं है के परिवर्तन दी दिशा यही हो.

इस्लामी दुनिया और इसके तेल संसाधनों पर नियंत्रण के लिए अमेरिया ने तमाम तरह की तानाशाहियों को ही समर्थन देता रहा और इस्लामी उग्रवाद के उदय के बाद यह समर्थन गहरा होता चला गया. आज के इस्लामी दुनिया में इराक , अफगानिस्तान और अब लीबिया में अमेरिका के सैनिक अभियान चल रहें हैं और कोई भी ये उम्मीद नहीं करता के इनके परिणाम से कोई लोकत्रंत्र उभरेगा बल्कि पूरा ध्यान इस बात पर है कि स्थायित्व कैसे कायम किया जाये जो पश्चिम की बुनियादी चिंता है . फिर इरान हैं जहाँ एक घोर पश्चिम-विरोधी इस्लामी सत्ता है जिसके खिलाफ बार-बार अमेरिकी सैनिक आक्रमण की संभावना बनी रहती है पर के सच्चाई ये भी है के इस पूरे क्षेत्र में इरान एकमात्र ऐसा देश है जिसमें सबके अधिक बार चुनाव हुए हैं. और आज भी वहाँ चुनाव होते हैं. एक अल्जीरिया हैं जहाँ एक दशक पहले में इस्लामी पार्टी के सत्ता में आने के संभावना के कारण सेना ने चुनाव रद्द कर दिए और सत्ता संभल ली और तब से अब तक ये देश एक तरह के गृह युद्ध मैं फंसा है.

इस्लामी दुनिया में के नयी सूच पनप रही है. नयी पीड़ी सामाजिक और राजीनीतिक जीवन के केंद्र मैं आ रही है जिसकी सोच के के केन्द्र् में धार्मिक कट्टर्पंध नहीं है बल्कि वे स्वत्रन्त्रता चाहते हैं , वे एक आधुनिक समाज चाहतें हैं पर इसका मतलब या भे नहीं लगाया जाना चाहिए कि की वे निश्चित रूप से कोई पश्चिम-परस्त या पश्चिमी शैली के लोकत्रंत्र के भी समर्थक हैं. अब ये देखना भी बाकी है कि क्या अमेरिका और पश्चिम इस्लामी जगत मैं ऐसी सत्ताओं के साथ तालमेल बिठाने को राजी होंगे जो एकदम पश्चिम-परस्त न हों? क्या वे मौजूदा स्थिति का इस रूप में मूल्याकन करेंगे कि परिवर्तन को रोकने का मतलब अस्थिरता होगी जो स्वयं इनके हितों की पूर्ती नहीं करता ?

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