Thursday 23 December 2010

इतिहास से हारता एक देश

सुभाष धूलिया

हाल ही में भारत यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा ने थोड़ा हिचकिचाहट के साथ कहा कि ‘एक स्थिर और समृद्द पाकिस्तान ही भारत के हित में है’। आज ओबामा ये बात कह रहे हैं लेकिन सच्चाई ये है कि यही बात इन्ही शब्दों में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी वर्षों साल पहले कह चुके हैं। भारत का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा से ही इस तरह की भावनाओं को अभिव्यक्त करता रहा है। लेकिन अब सवाल यह पैदा होता है कि खोखले और हिंसक उग्रवाद से घिरे पाकिस्तान को स्थिर और समृद्ध कैसे बनाया जाए ?

ओबामा अपनी भारत यात्रा के दौरान भले ही भारत की अनेक अपेक्षाओं पर खरे उतरे हों और कुछ अन्य पर सहमति ना बन पायी हो लेकिन ओबामा का ये कथन एक नये दौर का आगाज है कि ‘भारत एक उभरती महाशक्ति नहीं बल्कि पहले ही एक महाशक्ति बन चुका है’। सुरक्षा परिषद में भारत के स्थायी सदस्य के रूप में प्रवेश का रास्ता भले ही कितना भी लंबा क्यों ना हो लेकिन इस मसले पर भारत को अमेरिका के समर्थन से दोनों देशों के राजनीतिक संबंधों को नई ऊचाइयां मिली हैं। सुरक्षा परिषद के मुद्दे का वास्तविक से कहीं अधिक प्रतीकात्मक महत्व है जिससे पाकिस्तान के सत्ता गलियारों में खलबली सी मच गई है। ओबामा ने भले ही पाकिस्तान पर सीधा निशाना न साधा हो लेकिन जितना भी उन्होंने कहा वह पाकिस्तान को विचलित कर देने वाला है। आंतकवाद के संदर्भ में ओबामा ने सिर्फ इतना ही कहा कि पाकिस्तान सरकार उसको खत्म करने के लिये प्रयासरत है। इसका मतलब यह भी है कि इन प्रयासों को प्रयास तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता।

पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरणों को देखते हुए इसकी उग्रवाद से लड़ने की इच्छा और क्षमता पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं। पाकिस्तानी लोकतंत्र की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में है जो किन्ही खास परिस्थितियों में चुनाव जीते और देश के राजनीतिक जीवन में इनकी कभी कोई खास हस्ती नहीं रही। आज पाकिस्तानी सत्ता की वास्तविक बागडोर सैनिक प्रतिष्ठान के हाथ में है। सैनिक प्रतिष्ठान इस लोकतांत्रिक सरकार को इसलिए स्वीकार किये हुए है क्योंकि पहला तो ये सेना के ऐजेंडे में कोई रुकावट डालने की हिम्मत नहीं जुटा सकती और दूसरा सैनिक तख्तापलट अमेरिका को भी स्वीकार्य नहीं होगा।

इस्लामी उग्रवाद को लेकर पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान के इतिहास पर एक नहीं अनेक काले धब्बे लगे हुए हैं। कश्मीर में आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व से कहीं बड़ा हाथ सैनिक प्रतिष्ठान का रहा है। अफगानिस्तान को अपने एक सामरिक क्षेत्र में तब्दील करने के मकसद से तालिबान को पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान ने ही खड़ा किया था। तालिबान से पाकिस्तान ने इसलिए हाथ नहीं झाड़े थे कि उसे कोई इस्लामी उग्रवाद से कोई परहेज रहा हो बल्कि 9/11 के उपरांत अमेरिका सैनिक कार्रवाई का मन बना चुका था और अगर पाकिस्तान इस युद्ध में अमेरिका का साथ नहीं देता तो खुद भी अमेरिका के निशाने पर होता।

इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ जो भी अभियान चला रहा है और जिस तरह भी चला रहा है उसमें आस्था बहुत कम और मजबूरी कहीं अधिक है। पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्टान के इस्लामी उग्रवाद के साथ इतने गहरे रिश्ते रहे हैं कि इसमें अब भी ऐसे प्रभावशाली तत्व मौजूद है जो आतंकवादी गतिविधियों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं। ऐसे में किसी भी आतंकवादी हमले की स्थिति में पाकिस्तान सरकार अपने आप को पाक-साफ अक्षम नजर आती है।

पाकिस्तान आज ऐसा विखंडित देश बन गया है जो दिशाहीन है और जिसकी आर्थिक दशा जर्जर है। यह एक ऐसी सैन्यीकृत व्यवस्था में जकड़ा हुआ है जो 21वीं सदी के साथ तालमेल बिठाने को तैयार नहीं है और जिसकी पूरी सोच युद्ध से प्रदूषित है। दुनिया के सभी देश आज इस बहुआयामी दुनिया में नये संतुलन, नये तालमेल बिठा रहे हैं पर पाकिस्तान अपनी सोच को युद्ध-प्रदूषित मानसिकता से मुक्त नहीं कर पा रहा है।

पाकिस्तान अब भी ओबामा की यात्रा के परिणामों को सही परिपेक्ष्य में नहीं देख पा रहा है और एक ऐसे ऐतिहासिक घटनाक्रम का विरोध कर रहा है जिसे रोका नहीं जा सकता। भारत आज एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। आर्थिक संकट के बाद दुनिया काफी कुछ बदल गयी है और इसमें भारत जैसी उभरती हुई महाशक्तियों की भूमिका कहीं अधिक अहम हो चुकी है। भारत अमेरिका में 10 अरब डॉलर का निवेश करने जा रहा है जिससे अमेरिका में 50 हजार रोजगार के अवसर पैदा होंगे। पाकिस्तान को हर साल विकास के लिए अमेरिका से एक अरब डॉलर और सेना के लिए दो अरब डॉलर खैरात में मिल रहे है। अमेरिका को अपनी आर्थिक सेहत के लिए भारत की जरुरत है जबकि पाकिस्तान का उपयोग अफगान युद्ध तक ही सीमित है। आज चीन से भी पाकिस्तान पहले जैसे समर्थन की उम्मीद नही कर सकता क्योंकि चीन अमेरिका को पीछे छोडते हुए भारत का सबसे का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बन चुका है। आज पाकिस्तान के पास ऐसा क्या है जो वह चीन और अमेरिका को दे सके।

ओबामा ने अफगानिस्तान के विकास में भारत के प्रयासों की भी सराहना की। पाकिस्तान अफगानिस्तान में एक पाकिस्तान-परस्त और भारत-विरोधी सत्ता कायम करना चाहता है लेकिन सच तो यह है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान का प्रभाव तभी तक कायम रह सकता है जब तक यह देश उग्रवादी हिंसा की चपेट में है। एक स्थिर अफगानिस्तान के उदय के उपरांत पाकिस्तान के पास अफगानिस्तान को देने के लिए भी क्या है जबकि अफगानिस्तान के पुनर्निमार्ण और विकास में मदद देने की भारत के पास अपार क्षमता है।

ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि पाकिस्तान कैसे सोच सकता है कि कश्मीर को भारत से छीना जा सकता है। भारत के साथ तनाव बरकरार रखकर भले ही पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्टानों के निहित स्वार्थों की पूर्ति हो लेकिन इससे पाकिस्तान के व्यापक हितों को चोट पहुंच रही है और इसके विफल राष्ट्र होने का खतरा पैदा हो रहा है।

इन परिस्थितियों में पाकिस्तान भारत और अमेरिका की साझेदारी के साथ तालमेल बिठाने की बजाय छाती पीट रहा है और संकट से निकलने की कोशिश करने की बजाय इसमें और भी गहरा धंसता जा रहा है।

इतिहास की वापसी !

सुभाष धूलिया

बर्लिन की दीवार को ढहे बीस वर्ष हो गए हैं। इस ऐतिहासिक घटना के साथ ही शीत युद्ध समाप्त हुआ था और जिसके परिणामस्वरूप 1981 में सोवियत संघ के अवसान के साथ ही एक वैकल्पिक विचारधारा और एक व्यवस्था का आदर्श भी ढह गया। बौद्धिक हलकों में समाजवाद और पूंजीवाद के भविष्य को लेकर अनेक बहसें छिड़ीं। समाजवादी विचारकों ने इसे समाजवाद की पराजय मानने के बजाय स्टालिनवादी नौकरशाही सत्ता का पतन करार दिया तो पूंजीवाद में यकीन रखने वालों ने इसके अधिनायकवाद के खिलाफ लोकतंत्र और स्वतंत्रता की विजय के रूप में देखा। अमेरिकी विचारक फ्रांसिस फुकुयामा ने इस विजय को "इतिहास का अंत" करार दिया। फुकुयामा का तर्क था कि मानव सभ्यता अपने ऐतिहासिक विकास के अंतिम पड़ाव पर पहुंच गयी है और अब पश्चिमी शैली के उदार लोकतंत्र और पूंजावादी अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है ।

नब्बे के पूरे दशक में पश्चिमी देशों में ऐतिहासिक विजय का नशा सा छा गया। समाजवाद के सोवियत मॉडल के पतन को पूंजीवाद के विजय के रूप में इस हद तक देखा गया कि इस व्यवस्था की खामियों और निहित कमजोरियों की ओर से ध्यान हट गया। पूंजीवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की विजय का झंडा दुनिया भर में फहरने लगा। सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि मुक्त अर्थव्यवस्था ही गतिशील साबित हुई है और इसमें ही पूंजी और श्रम दोनों को कुशलता और उत्पादकता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने की क्षमता निहित है। निश्चित ही सोवियत मॉडल की नियंत्रित अर्थव्यवस्था जड़ता का शिकार होती चली गयी। इसी के समांतर इसने राजनीतिक असहमति और विमर्श का हर दरवाजा ही नहीं बल्कि हर खिड़की तक बंद कर दी और अधिनायकवादी केन्द्रवाद हावी होता चला गया। आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही स्वतंत्रताओं के छिनने से इस व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास उठ गया और अवसर मिलते ही कहीं गहरा धंसा आक्रोश फूट पड़ा और बर्लिन की दीवार ढह गयी ।

इसके साथ ही पूरी दुनिया में मुक्त अर्थव्यवस्था उन्मुख सुधारों का दौर चला। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने नया आवेग ग्रहण किया और राष्ट्रीय अर्थतंत्रों के वैश्विक अर्थतंत्र में एकीकरण के लिए उदारीकरण की गूंज हर तरफ उठने लगी। लेकिन केवल एक दशक के भीतर ही उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने ऐसा रूप धारण कर लिया कि अनेक हलकों में यह कहा जाने लगा कि यह समृद्धि का नहीं बल्कि गरीबी का भूमंडलीकरण हो रहा है और इस पर बहुराष्ट्रीय निगमों के दबदबे से इसे कॉर्पोरेट भूमंडलीकरण का नाम दिया गया।

नोबेल पुरुस्कार विजेता जोजेफ स्टिग्लिट्ज जैसे अर्थशास्त्री जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के प्रबल हिमायती हुआ करते थे उनसे ही विरोध के स्वर उठने लगे। इस सदी के प्रारंभ होने के साथ ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विकास के तत्वों को समावेश करने की जोरदार मांग उठने लगी। इसी के समांतर वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक संकट ने झकझोर दिया। 1997 में एशियाई टाइगरों के वित्तीय संकट ने पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को इतना झकझोर दिया कि मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातीर ने कहा कि जिस अर्थव्यवस्था के निर्माण में हमें चालीस वर्ष लगे, एक सट्टेबाज आया और उसने चालीस घंटों में ही सब बर्बाद कर दिया। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर वित्तीय पूंजी हावी होने लगी थी। संकटों इस इस श्रंखला में 1997 के तत्काल बाद 1998 में पूंजी के प्रबंधन का संकट पैदा हुआ और 2001 में डॉटकॉम का गुब्बारा भी फूट गया। तब से लेकर 2008 की बड़ी मंदी तक अनेक तरह के संकट आते रहे। इन घटनाओं से बर्लिन की दीवर के ढहने से उपजा विजयवाद ठंडा पड़ने लगा और सवाल उठाए गए कि सरकार और बाजार के संबंधों को नए सिरे से देखने की जरूरत है। सब कुछ बाजार की शक्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता ।

1930 की महामंदी के बाद जिस तरह मुक्त अर्थव्यवस्था को पूरी तरह मुक्त करने के बजाय सरकार के हस्तक्षेप की पैरवी की गई और प्रख्यात अर्थशास्त्री कीन्स ने कहा कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की भलाई इसी में है कि रोजगार पैदा करने में सरकार का हस्तक्षेप करे। आज मौजूदा नव-उदारवादी व्यवस्था पर संकट के उपरांत भी दुनिया के अनेक जाने-माने अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि सरकार को किसी ना किसी रूप में बाजार को रेग्यूलेट करना होगा। 15 सितंबर 2008 में अमेरिका की एक 158 वर्ष पुरानी प्रमुख विनियोग बैंक लेहमान ब्रदर्स दिवालिया होने पर जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने कहा कि जिस तरह 1989 में बर्लिन की दीवार का ढहना समाजवाद के पतन का प्रतीक था उसी तरह लेहमान ब्रदर्स का दिवालिया होना पूंजीवाद के मौजूदा स्वरुप के पतन का प्रतीक है। लेहमान ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद अमेरिका की अनेक बड़ी-बड़ी वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने के कगार पर खड़ी थी और अमेरिकी सरकार को "मुक्त" अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर अरबों डॉलर के पैकेज के बल पर इन संस्थाओं को डूबने के बचाने पर विवश होना पड़ा।

बर्लिन दीवार के ढहने से जो पूंजीवाद विजयी हुआ था आज उसे लेकर सवाल उठ रहे हैं। कई बहसें हो रही है कि मुक्त अर्थव्यवस्था को कितना मुक्त रखा जाए और इसे रेग्यूलेट करने के लिए किस हद तक सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है? लेकिन इसके साथ ही यह बहस भी हो रही है कि पूंजीवादी व्यवस्था में अनेक अन्तर्विरोध निहित हैं और अगर इस पर बार-बार आने वाले संकटों से मुक्ति पानी है तो पूंजीवादी व्यवस्था की जड़ों की ओर देखना होगा और राहत पैकेज तो केवल तात्कालिक सामाधान है।

निश्चय ही बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद उपजे उदारीकरण का आवेग तीव्र ढलान पर लुढक रहा है और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया दुम दबाकर भागती सी दिखाई दे रही है। दुनिया भर में ऱाष्ट्रीय अर्थतंत्र को संरक्षण देने का दौर शुरु हो चुका है। पर विकल्प को लेकर कोई ठोस अवधारण विकसित नहीं हो रही है इसकी अभिव्यक्ति अमेरिका की एक बहुत बड़ी वित्तीय संस्था मेरिल लिन्च के अध्यक्ष बर्नी सुचर के इस कथन में होती है कि "हमारी दुनिया बिखर गई है और हमें नहीं मालूम कि इसका स्थान कौन लेने जा रहा है"। लेकिन दुनिया के दो सबसे बड़े अमीरों- बिल गेट्स और वारेन बफेट -ने कहा है कि संकट टल गया है और पूंजीवाद पूरी तरह स्वस्थ है। लेकिन स्टिग्लिट्ज और अमृर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों का कहना है कि संकट टला भर है और जब तक मुक्त बाजार की मनमानी पर रोक नहीं लगाई जाएगी तब तक इस तरह के संकट आते ही रहेंगे।

आज पूंजीवाद के मौजूदा चरित्र और स्वरूप पर "समाजवादी" नहीं बल्कि पूंजीवादी दर्शन में आस्था रखने वाले ही सवाल उठा रहे हैं। बर्लिन की दीवार ढहने से जिस पूंजीवाद की विजय हुई थी वह निश्चय ही इतिहास का अंत नहीं है और बर्लिन की दीवार ढहने जैसी एक और ऐतिहासिक घटना की किरणें क्षितिज में कहीं दिखाई दे रही हैं।

अफगानिस्तान:एक स्थायी युद्ध का मैदान

सुभाष धूलिया

अमेरिका में यह अहसास गहराता जा रहा है कि अफगान युद्द जीता नहीं जा सकता। राष्ट्रपति ओबामा स्वयं ‘विजय’ के बजाय ‘समाधान’ की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने 2011 तक अपनी सेनाएं बुलाने का ऐलान कर दिया है। अमेरिका में यह धारणा प्रबल हो चुकी है कि अफगान युद्ध में जब अबतक विजय हासिल नहीं हुई तो अगले एक साल में ऐसा कुछ हासिल नहीं होने जा रहा जो अब तक नहीं हासिल हुआ है। अफगानिस्तान में सैनिक अमेरिका की वापसी से जो राजनीतिक शून्य पैदा होगा उसकी भरपाई को लेकर अभी तक कोई साफ तस्वीर नहीं उभरी है। लेकिन इतना तय है कि करजई सरकार अमेरिका की वापसी के उपरांत टिक नहीं सकती। अचरज की बात तो यह है कि नौ सालों से सैनिक अभियान चला रहे अमेरिका ने अबतक भावी अफगानिस्तान का कोई स्पष्ट नक्शा पेश नहीं किया है।

असमंजस और अनिश्चय के इस माहौल में पाकिस्तान बेहद सक्रिय हो गया है और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में अपनी पिठ्ठू सरकार कायम करना चाहता है। हाल ही में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कियानी और कुख्यात खुफिया एजेंसी के प्रधान जनरल पाशा ने काबुल की यात्राएं की। कई अन्य स्तरों पर भी पाकिस्तान करजई सरकार के संपर्क में है। करजई पाकिस्तान के कट्टर विरोधी रहे हैं और भारत समर्थक के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन अब बदली परिस्थितियों में पाकिस्तान करजई सरकार को लुभाकर और डराकर साथ लाना चाहता है। पाकिस्तान का केन्द्रीय लक्ष्य अफगानिस्तान में भारत विरोधी सत्ता कायम करना है। इस मकसद को हासिल करने के लिये इस्लामी इस्लामी उग्रवादी संगठन पाकिस्तान का साथ दे रहे हैं।

पाकिस्तान करजई को ये संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि अगर वे इस्लामी उग्रवादियों को सत्ता में भागीदार बना लेते हैं तो अमेरिकी वापसी के बाद भी अफगान के राजनैतिक जीवन में करजई का वजूद बना रहेगा। करजई ने कभी भी पाकिस्तान पर भरोसा नहीं किया है लेकिन उनको अहसास है कि अमेरिकी वापसी के उपरांत वे तालिबान से टक्कर नहीं ले सकते । पाकिस्तान ने इस रणनीति के पहले चरण में एक इस्लामी उग्रवादी हक्कानी के गुट को सत्ता में भागीदार बनाने का प्रस्ताव दिया है। हक्कानी वे शख्स हैं जिन्होंने आईएसआई की मदद से अफगानिस्तान में कई भारतीय ठिकानों पर आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया था। पाकिस्तान की रणनीति यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि मौका मिलने पर वे तालिबानी नेता मुल्ला उमर और कट्टरपंथी नेता हिकमतयार को भी सत्ता में घुसाने की कोशिश करेंगे। पाकिस्तान काफी समय से ‘उदार’ तालिबान की भी बातें करता रहा है और यह तर्क देता है कि अफगानिस्तान में तालिबान के बिना कोई स्थायित्व लाना संभव नहीं है। यहां चौंकाने वाली बात ये है कि सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी पाकिस्तान के साथ इस मैदान में कूद पड़े हैं और करजई को ‘मध्यस्थ’ की भूमिका अदा करने की सलाह दे रहे हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विश्वभर में यही वो तीन देश थे जिन्होंने 1996 में तालिबानी सत्ता को विश्व भर में मान्यता दी थी।

यह घटनाक्रम अमेरिकी लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है लेकिन विडंबना यह है कि अमेरिकी की वापसी की स्थिति में और विकल्प भी क्या है ? इस बीच पाकिस्तान ने अमेरिकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए चीन के साथ नाभिकीय समझौता किया है जिसके तहत चीन पाकिस्तान में दो नाभिकीय संयंत्र लगाने जा रहा है। यह इसलिये अधिक चिंताजनक है कि दुनिया में पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है जिसका नाभिकीय प्रोद्योगिकी के प्रसार में बेहद खराब रिकॉर्ड रहा है और यही एक ऐसा देश है जिसे लेकर शंका पैदा होती है कि पता नहीं कब और कैसे इसकी नाभिकीय प्रोद्योगिकी ऐसे गुटों के हाथ ना चले जाये जो दुनिया में विनाश फैला सकते हैं।

अफगानिस्तान में केवल पाकिस्तान और अमेरिका के हित ही दांव पर नहीं लगे हैं बल्कि भारत-ईरान और रूस भी अफगानिस्तान में इस्लामी उग्रवादी सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकते। ये तीनों देश तालिबान के खिलाफ उत्तरी गठजोड़ को समर्थन देते रहे हैं जिसमें ताजिकों का वर्चस्व है। अफगानिस्तान में ताजिक और पख्तून दो प्रभावशाली जातीय समुदाय हैं जिनके बीच सत्ता के नियंत्रण को लेकर हमेशा टकराव रहा है। उत्तरी गठजोड़ काबुल में ऐसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा जिसमें पख्तूनों का दबदबा हो। अमेरिका में इन तीनों देशों को अफगान समस्या से अलग थलग रखा। लेकिन आज एक ऐसी परिस्थिति पैदा होती हो रही है जिसमें उत्तरी अफगानी गठजोड़ भारत-रूस और ईरान की मदद से पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के खिलाफ नया संघर्ष छेड़ सकता है।

भारत ने अफगानिस्तान में करजई सरकार के सत्तासीन होने के बाद 1.3 अरब डॉलर की मदद दी और अफगानिस्तान में सड़कों, पुलों, बिजली, अस्पताल और स्कूलों का निर्माण किया। भारत के इन प्रयासों को विफल करने के लिये ही आईएसआई ने हक्कानी गुट की मदद से भारतीय ठिकानों पर हमले कराये। पाकिस्तानी रणनीति के तहत अफगानिस्तान में कोई भी राजनीतिक समाधान तभी हो सकता है जब वहां ऐसी कोई सत्ता कायम हो जिस पर इस्लामी कट्टपंथियों का नियंत्रण हो। ऐसे में इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने और नौ सालों तक अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ने के अमेरिकी लक्ष्यों की नियति क्या होगी ? अमेरिका 2011 के बाद अमेरिका अफगानिस्तान में इसलिए नहीं रह सकता क्योंकि नौ सालों में जो हासिल नहीं किया जा सका उसको आगे भी हासिल नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर अफगानिस्तान में पाकिस्तान का लक्ष्य पूरा होता है तो निश्चय ही भारत रूस और ईरान को यह मंजूर नहीं होगा और जाहिर है इस तरह की सत्ता को अमेरिका का भी समर्थन हासिल नहीं होगा। इस परिदृश्य में बलूचिस्तान में भारत के प्रभाव और उजबेकिस्तान में भारत के वायुसैनिक अड्डे से पाकिस्तान विचलित है।

पाकिस्तान की रणनीति अफगानिस्तान में एक नया युद्द का शुरु करेगी और यह एक ऐसा युद्द होगा जिससे लड़ने के लिए जर्जर और अस्थिर पाकिस्तान के पास कोई दमखम नहीं है। इस पाकिस्तानी रणनीति का संचालन का सैनिक प्रतिष्टान के हाथ में है और भारत विरोधी उन्माद से ग्रसित पाकिस्तानी सेना एक बार फिर पाकिस्तान को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इस भावी अफगान टकराव के दूरगामी परिणाम होंगे और इसकी सबसे अधिक तपिश अफगानी लोगों को झलनी पड़ेगी जो पिछले तीन दशकों से युद्द की आग में झुलस रहे हैं।