Thursday 29 October 2009

८ से २० होने के अर्थ

सुभाष धूलिया

दुनिया का आर्थिक मानचित्र बदल रहा है. विश्व अर्थव्यवस्था पर लम्बे समय तक के उन्नत आद्योगिक देशों के प्रभुत्व का लगभग अंत आ गया है और एक नए प्रभुत्वकारी गुट का उदय हुआ है जिनमें भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती आर्थिक ताकतें शामिल हैं. एशिया के १९९९ के वित्तीय भूचाल ने मलेशिया जैसे एशियायी टाइगर्स को हिला कर रख दिया था और अगर और गहरा होता तो पूरे विश्व को ही संकट के दलदल में फँस सकता था. इस संकट के उपरांत सात औदौगिक देशों का गुट बना था जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस , जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान शामिल थे और बाद मैं इसमें रूस को भी शामिल कर इसे आठ का गुट बना दिया गया था. इस बार जब २००८ में और भी बड़ा वित्तीय संकट आया तो आठ के गुट को लगा की दुनिया की अर्थव्यस्था को संभाले रखना इस गुट के बस में नहीं रह गया है इसलिए भारत और चीन जैसी उभरती आर्थिक ताकतों को भी शामिल कर अब बीस देशों का गुट बना दिया गया है और इस गुट के देशों मैं दुनिया के दो तिहाई लोग बसतें हैं, ८० प्रतिशित विश्व व्यापर पर इनका नियंत्रण है और लगभग ८५ प्रतशित सकल घरलू उत्पादन इन्ही देशों का है - इसका मतलब ये भी है की नयी व्यवस्था मैं भले ही उभरती ताकतों को शामिल कर दिया गया है पर मानव सभ्यता के एक बड़े हिस्से को बहार भी रख दिया गया है.

जाहिर है की इस मंदी के महामंदी में बदलने से रोकने के लिए ही इन उभरती आर्थिक ताकतों को साथ लिया गया है. बूढे शेर ने जवान चीत्ते को साथ लेकर आर्थिक जंगल मैं अपना राज कायम रखने का रास्ता अपनाया है. पर इस रूप में यह एक बड़ा परिवर्तन है की अब दुनिया का आर्थिक शक्ति संतुलन बदल गया है और विश्व आर्थिक व्यवस्था के प्रबंध और संचालन का जिम्मा बीस के गुट के हाथ मैं आ गया है और आठ का गुट अब गैर-आर्थिक मुद्दों तक ही सिमित रहेगा यानि गपशप का काफीहाउस बन कर रह जायेगा . इसी के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष मैं भी अब नयी आर्थिक ताकतों को अधिक हिस्सा दे दिया गया है जो एक नहीं विश्व आर्थिक व्यवस्था के उदय को प्रतिबिंबित करता है.

लेकिन बुनियादी सवाल यह उठता है की क्या आठ को बीस कर देने से बार बार आने वाले वित्तीय संकटों पर काबू पाया जा सकता है. दुनिया के अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने कहा है की मंदी पर अभी एक नियंत्रण भर किया गया है और अभी वे कारण ज्यों के त्यों बने हुए हैं जिनसे मंदी आई थी. यहं तक कहा गया है की आज भी हालत वैसे ही हैं जैसे मंदी से पहले २००७ में थे . बार बार यह सवाल उठ रहा ही की मौजदा आर्थिक व्यवस्था मैं मौलिक परिवर्तन किये बिना किसी तरह का स्थायित्व हासिल नहीं किया जा सकता है. दरअसल मुक्त अर्थ व्यवस्था की पूरी तरह बाज़ार की शक्तिओं के हवाले के देने से वित्तीय अर्थव्यवस्था का उदय हुआ है और ये एक एस व्यवस्था है कोई उत्पादन नहीं करती बस यहाँ का पैसा वहां डालकर अरबों-खरबों का मुनाफा बटोरती है. यह पूँजी एक तूफ़ान की तरह दुनिए मैं दौड़ पड़ती है औए अपने पीछे आर्थिक विनाश के अवशेष छोड़ती चली जाती है. एशियायी टाइगर्स के आर्थिक संकट के बाद मलेशिया के तत्कालिन प्रधानमंत्री महातिर ने कहा था की जिस अर्थ व्यवस्था की बनाने मैं हमें ४० वर्ष लगे , एक सट्टेबाज आया और ४० घंटों मैं इसे तबाह कर चला गया. उनका एब कथन वित्तीय अर्थ व्यवस्था में निहित कमजोरिओं का साफ तौर से व्यक्त करता है . २००८ के संकट पर काबू पाने के लिए खुद मुक्त व्यवस्था के सबमे बड़े झंडाबरदार अमेरिका में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा था और अरबों डॉलर का पैकेज देकर संकट को काबू मैं किया था. ये एक ऐसी स्थति थी की वित्तीय संस्थाओं ने सट्टेबाजी की और तुरत मुनाफा कामने के लिए खुल कर कर्जे दिया और जब संकट आया तो जनता के पैसे से इन्हें संकट से उभरा गया. अमेरिका की एक बड़ी और पुरानी विनिवेश कंपनी लहमान्न ब्रदर्स के दिवालिया होने पर नोबल पुरस्कार से समान्नित अर्थिशास्त्री जोसेफ स्तिग्लित्ज़ ने कहा था की यह उसी तरह पूंजीवाद का अंत है जिस तरह १९८९ में बर्लिन की दीवार के ढहने से सोवियत समाजवाद का अंत हुआ था. इस संदर्भ में सवाल पैदा होता है की कहीं ऐसा तो नहीं की बीस का गुट बनाकर इस बात की अनदेखी की जा रही है की मौजूदा विश्व आर्थिक वस्थ्वा में कहीं कोई बुनियादी खोट है और इसे सम्बोधित किये बिना बार बार आने वाले आर्थिक संकटों से मुक्ति पाने का कोई वास्तविक प्रयास से बचा जा रहा है . ये भी सच है की हल की मंदी का जितना असर विकसित मुक्त अर्थव्यवस्था वाले देशों पर पड़ा था उसकी तुलना मैं भारत और चीन जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश इस पर जल्द काबू पाने में सफल रहे और अगर ये मंदी एक महामंदी मैं तब्दील होती तो भी ये कहा जा सकता है की ये देश उस तरह के आर्थिक विनाश के शिकार नहीं होते जिस तरह इसका असर पशिमी देशों पर होता.

८ के २० होने से निश्चय ही दुनिया मैं एक नयी आर्थिक व्यवस्था कायम हो गयी है और एक नया आर्थिक संतुलन पैदा हो गया है और विश्व अर्थतंत्र पर पश्चिमी देशों का एकाधिकार खत्म हो गया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की २० का गुट कैसे ८ के गुट से अलग विश्व की आर्थिक व्यवस्था का प्रबंध और संचालन करता है और आने वाले समय किस तरह के परिवर्तनों का रास्ता तैयार करता है . एक नए रास्ते के निर्माण के अभी कोई संकेत नहीं हैं और अभी तो एक नयी साझदारी भर पैदा हुयी है. ८ के गुट ने १२ के साथ हाथ तो मिला लिया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की इन्हें आर्थिक मंदी के नकारात्मक परिणामों को झेलने के लिए साथ लिया गया है या फिर ऐसा कुछ होने जा रहा ही की विश्व अर्थव्यवस्था में निर्णय लेने में भी इन्हें प्राप्त रूप से साझीदार बनाया जाता है ताकि ये बीस का गुट कुछ बुनियादी परिवर्तनों का मार्ग प्रसस्थ कर सके.

Wednesday 28 October 2009

समकालीन मीडिया परिदृश्य

समकालीन मीडिया परिदृश्य
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सुभाष धूलिया

अतंराष्ट्रीय मीडिया परिदृश्य को समझने के लिए विश्व राजनीति पर एक निगाह डालना जरूरी हो जाता है। पिछले दो दशकों में दुनिया में कुछ ऐसे परिवर्तन आए हैं जिससे विकास की दिशा और दशा दोनों बदल गए। लेकिन यह कह सकते हैं अब तक कोई ऐसी विश्व व्यवस्था नहीं आ पायी है जिसमें स्थायित्व निहित हो। पिछली सदी की अस्सी-नब्बे के दशक की कुछ घटनाओं ने राजनीतिक, आर्थिक और सूचना संचार की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं को एक तरह से फिर से पारिभाषित कर दिया जिससे विश्व राजनीति के चरित्र और स्वभाव में बड़े परिवर्तन आए। अस्सी के दशक में विकास के सोवियत समाजवादी मॉडल के चरमराने की प्रकिया शुरु हुई और 1991 में सोवियत संघ का अवसान हुआ। इस घटना को पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थव्यवस्था के विजय के रूप में देखा गया। इसी दशक में सूचना क्रांति ने भी बेमिसाल ऊंचाइयां हासिल की और इसी के समांतर दुनिया भर में मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख आर्थिक सुधारों की प्रकिया भी शुरु हुई। इस आर्थिक प्रकिया के पूरक के रूप में भूमंडलीकरण ने भी नई गति हासिल की।

इन घटनाओं के उपरांत विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था का भी उदय हुआ। एक रूप से इस व्यवस्था ने विकासशील देशों की उन तमाम दलीलों को ठुकरा दिया जो उन्होंने विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था कायम करने के लिए छठे और सातवें दशक में पेश की थीं और जिन्हें 1980 में यूनेस्को मे मैक्बाइट कमीशन की रिपोर्ट के रूप में एक संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। विकासशील देशों की मांग थी कि विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन है और फिर इन पर विकसित देशों की चंद मीडिया संगठनों का नियंत्रण है। इसकी वजह से विकसशील देशों के बारे में नकारात्मक सूचना और समाचार ही छाए रहते हैं जिससे विकासशील देशों की नकारात्मक छवि ही बनती है जबकि विकसित देशों को लेकर सबकुछ सकारात्मक है।
यूनेस्को ने इन तमाम मसलों को संबोधित करने के लिए मैक्बाइट कमीशन का गठन किया और इसने 1980 में 'मैनी वॉइसेज वन वर्ल्ड'( दुनिया एक, स्वर अनेक) शीर्षक से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन को दूर करने के लिए अनेक सिफारिशें की गयी थीं। लेकिन अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों ने इन सिफारिशों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इनमें असंतुलन को दूर करने के नाम पर सरकारी हस्तक्षेप का न्यौता निहित है और इस तरह ये सिफारिशें प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करती हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर तो इस मसले पर यूनेस्को से अलग हो गए और इन देशों के अलग होने से यूनेस्को को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद हो गयी जिसकी वजह से यूनेस्को एक तरह से पंगु हो गया।

लेकिन अस्सी-नब्बे दशक की घटनाओं के उपरांत इस तरह की नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था की मांग भी बेमानी हो गयी। इसका सबसे मुख्य कारण तो यही था कि इस मांग को करने वाले सबसे प्रबल स्वर ही शांत हो गए। विकासशील देशों में इस मांग को उठाने वाले अधिकांश देशों ने आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के मॉडल का रास्ता छोड़कर उदार भूमंडलीकरण का रास्ता अपना लिया था। दूसरा प्रमुख कारण यह भी था कि यहां आते-आते सूचना क्रांति एक ऐसी मंजिल तक पहुंच चुकी थी जिसमें दूरसंचार,सेटेलाइट और कम्प्यूटर प्रोद्योगिकी के बल पर एक ऐसे तंत्र का उदय हुआ जिसमें सूचना समाचारों के प्रवाह पर किसी भी तरह का अंकुश लगाना संभव ही नहीं रह गया। विकासशील देश सूचना-समाचारों के जिस एकतरफा प्रवाह की शिकायत करते थे उसका आवेग इस नए दौर अब पहले से कहीं अधिक तेज हो गया और इसे रोक पाना वास्तविक रुप से संभव नहीं रह गया था।

नया परिदृश्य

सूचना क्रांति से निश्चय ही दुनिया एक तरह के वैश्विक गांव में परिवर्तित हो गयी। सूचना -समाचारों और हर तरह के मीडिया उत्पादों का प्रवाह बाधाविहीन होने के उपरांत वैश्विक मीडिया के स्वरूप में भी बड़ा परिवर्तन आया। पहले वैश्विक मीडिया जो विश्व भर में सूचना और समाचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता था लेकिन उसका काफी हद तक एक देश के भीतर इसका सीधा नियंत्रण नहीं होता था-यानी नियंत्रण का स्वरूप अप्रत्यक्ष था और ये स्वदेश संगठनों से माध्यम से ही घरेलू बाजार में मीडिया उत्पाद वितरित करते थे। लेकिन आज वैश्विक मीडिया का प्रसार देशों की सीमा के भीतर तक हो चुका है जहां वो प्रत्यक्ष रूप से मीडिया के बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुके हैं। आज भले ही सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से जुड़े सवाल समय-समय पर उठते रहते हों और अनेक परिस्थितियों में इनका प्रतिरोध विभिन्न तरह के कट्टरपंथ के रूप में उभर रहा है( धार्मिक कट्टरपंथ और आतंकवाद के सामाजिक आधार का एक कारण यह भी है) लेकिन फिर भी विभिन्न देशों की सीमाओं के संदर्भ में इन अहसासों का कोई खास प्रतिरोध नहीं है।

मीडिया उत्पादों के वैश्विक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नए तरह का सूचना और संचार का परिदृश्य पैदा हुआ है।
समकालीन परिदृश्य में मीडिया उत्पादों और इनके वितरण के माध्यमों में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। प्रिंट,रेडियो टेलीविजन और मल्टीमीडिया इंटरनेट बहुत सारे मीडिया उत्पाद और व्यापक विकल्प पेश कर रहे हैं। विकसित देशों इस उभरते बाजार में प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विकसित देशों में समाचार पत्रों का सर्कुलेशन घट रहा है और अनेक पुराने और प्रतिष्ठित मीडिया संगठन बंद होकर बाजार से बाहर हो गए हैं। नए बाजार में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लगभग हर समाचार पत्र और मीडिया संगठन इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है और इंटरनेट पर ये उपलब्ध हैं। लेकिन इंटरनेट पर इनकी मौजूदगी ने संकट को दूर करने की बजाय इसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। दरअसल विकसित देशों में जहां लगभग तीन-चौथाई लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और वह समाचार पत्रों को इंटरनेट पर ही पढ़ लेते है। इस वजह से समाचार पत्र पढे़ तो जा रहे हैं लेकिन वह सर्कुलेशन के दायरे से बाहर हो रहे और इसका समाचार पत्रों की बिक्री पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

विकसित देशों में मीडिया बाजार एक ठहराव की स्थिति में आ गया है और एक मीडिया की कीमत पर दूसरे मीडिया के चयन की प्रक्रिया शुरु हुई है। इस कारण प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के बीच एक तरह होड़ शुरु हो गयी है। भारत जैसे विकसाशील देशों में मीडिया बाजार में अभी ठहराव की स्थिति पैदा नहीं हुई है और हर मीडिया प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट का विस्तार हो रहा है। समाज के नए-नए तबके मीडिया बाजार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं। भारत में यह माना जा रहा है कि लगभग 30 करोड़ लोग मध्यवर्गीय हो चुके हैं जिनके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और इस कारण वे नए-नए उपभोक्ता उत्पाद के खरीददार होने की क्षमता रखते हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर वर्ष 3 करोड़ लोग मध्यमवर्ग की श्रेणी में शामिल हो रहे हैं और इन लोगों की क्रय शक्ति इतनी बढ़ रही है कि वे विभिन्न तरह के मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि में लोगों के मीडिया उत्पादों के उपयोग में भी परिवर्तन आ रहे हैं। अगर आज प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के उपभोक्ताओं का तुलनात्मक उपभोग पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोगों की मीडिया उत्पादों को खरीदने की प्राथमिकताओं में लगातार परिवर्तन आ रहे हैं। इस संदर्भ में हम बात का उल्लेख करना सामयिक होगा कि रेडियो माध्यम की जब लगभग अनदेखी की जा रही थी तो अचानक ही इस माध्यम ने जबर्दस्त वापसी की और भारत में पिछले दो वर्षों में रेडियो माध्यम की वृद्धि दर अन्य माध्यमों से कहीं अधिक रही।

नया वैश्विक मीडिया

समकालीन मीडिया परिदृश्य में केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। एक ओर तो नई प्रोद्योगिकी और इंटरनेट ने किसी भी व्यक्ति विशेष को अपनी बात पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक पहुंचाने का मंच प्रदान किया है तो दूसरी ओर मुख्यधारा मीडिया में केन्द्रीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है। पूरे विश्व और लगभग हर देश के भीतर मीडिया शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है। एक ओर तो मीडिया का आकार विशालकाय होता जा रहा है और दूसरी ओर इस पर स्वामित्व रखने वाले संगठनों कॉर्पोरेशनों की संख्या कम होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों से यह प्रक्रिया चल रही है और अनेक बड़ी मीडिया कंपनियों ने छोटी मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। इसके अलावा कई मौकों पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के बीच विलय से भी मीडिया सत्ता के केन्द्रीकरण को ताकत मिली है।

आज वैश्विक संचार और सूचना तंत्र पर चन्द विशालकाय बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है जिनमें से अधिकांश अमेरिका में स्थित हैं। बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन स्वयं अपने आप में व्यापारिक संगठन तो हैं ही लेकिन इसके साथ ही ये सूचना-समाचार और मीडिया उत्पाद के लिए एक वैश्विक बाजार तैयार करने और एक खास तरह के व्यापारिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करते हैं। इन कॉर्पोरेशनों के इस व्यापारिक अभियान में पत्रकारिता और सांस्कृतिक मूल्यों की कोई अहमियत नहीं होती। इस रूझान को आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट रूप से भी देखा जा सकता है। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि वैश्विक मीडिया वैश्विक व्यापार के अधीन ही काम करता है और दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं।
पूरी वैश्विक मीडिया व्यवस्था पर इस वक्त मुश्किल से नौ-दस मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है और इनमें से अनेक कॉर्पोरेशनों का एक-तिहाई से भी अधिक कारोबार अपने मूल देश से बाहर दूसरे देशों में होता है। उदाहरण के लिए रूपर्ट मडॉक की न्यूज कॉर्पोरेशन का अमेरिका ,कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और लैटिन अमेरिका में मीडिया के एक हिस्से पर स्वामित्व है। जर्मनी के बर्टैल्समन्न कॉर्पोरेशन का विश्व के 53 देशों की 600 कंपनियों में हिस्सेदारी है। विश्व की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी एओएल टाइम वार्नर भी अमेरिका की है और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी वियाकॉम कंपनी भी अमेरिका की है जिनका विश्व के मीडिया बाजार के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण है। सोनी कॉर्पोरेशन शुरु में इलेक्ट्रोनिक्स के उत्पादों में नाम कमा चुका था लेकिन आज एक मीडिया कंपनी के रूप में दुनिया भर में इसकी एक हजार सहयोगी कंपनियां काम कर रही हैं। इनके अलावा डिज्नी, वियाकॉम, एमटीवी, टेली-कम्युनिकेशन इंक, यूनीवर्सल( सीग्राम), माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू का भी एक बड़े बाजार पर कब्जा है जो लगभग दुनिया के हर देश में फैला हुआ है। अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक जैसी हथियार बनाने वाले कॉर्पोरेशन ने भी मीडिया जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है और अमेरिका के एक प्रमुख समाचार चैनल एनबीसी पर इसका नियंत्रण है।

इन विशालकाय कॉर्पोरेशनों के बाद दूसरी परत के भी मीडिया संगठन हैं जिनका व्यापार दुनिया भर में बढ़ रहा है। इस वक्त विश्व में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से उभरते सेक्टरों में से एक है और रोज नई-नई कंपनियां अपना नया और अलग मीडिया उत्पाद लेकर बाजार में कूद रही हैं। अधिकांश बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन संचार के क्षेत्र के जुड़े कई सेक्टरों में काम कर रहे हैं जिनमें समाचार-पत्र और रेडियो और टेलीविजन चैनल के अलावा पुस्तक प्रकाशन, संगीत, मनोरंजन पार्क और अन्य तरह के मीडिया और मनोरंजन उत्पाद शामिल हैं। प्रोद्योगिक क्रांति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए अपार संभावनाओं को जन्म दिया है। आज अधिकांश बड़े मीडिया कॉर्पोरेशन दुनिया भर में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। अनेक कॉर्पोरेशनों ने या तो किसी देश में अपनी कोई सहयोगी कंपनी खोल ली है या किसी देशी कंपनी के साथ साझेदारी कर ली है। हमारे देश में ही अनेक बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों के भारतीय संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। ये वैश्विक संगठन अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए स्थानीयकरण की ओर उन्मुख हैं और स्थानीय जरूरतों और रुचियों के अनुसार अपने उत्पादों को ढाल रहे हैं। इस तरह भूमंडलीकरण स्थानीयता का रूप ग्रहण कर रहा है और बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों की ये स्थानीयता दरअसल उनके ही वैश्विक उपभोक्ता मूल्यों और व्यापार संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं।

इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की अवधारणा भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही है और आज यह अवधारणा पहले से कहीं अधिक व्यापक गहरी और विशालकाय हो चुकी है। वैश्विक सूचना और संचार तंत्र पर आज पश्चिमी देशों का नियंत्रण और प्रभुत्व उससे कहीं अधिक मजबूत हो चुका है जिसे लेकर कुछ दशक पहले विकासशील देशों में विरोध के प्रबल स्वर उठ रहे थे। लेकिन आज अगर सांस्कृतिक उपनिवेशवाद पर पहले जैसी बहस नहीं चल रही है तो इसका मुख्य कारण यही है कि शीत युद्ध के बाद उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों की सामुहिक सौदेबाजी की क्षमता लगभग क्षीण हो गयी है। दूसरा शीत युद्ध के बाद दो विचारधाराओं के बीच संघर्ष का अंत हो गया और पश्चिमी विचारधारा ही प्रभुत्वकारी बन गयी और इतिहास के इस दौर में इसका कोई विकल्प नहीं उभर पाया। इन कारणों की वजह से पश्चिमी शैली की उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक स्तर पर मुक्त अर्थतंत्र और इनके विस्तार के लिए भूमंडलीकरण और विश्व बाजार के विस्तार - यही आज की विश्व व्यवस्था के मुख्य स्तंभ हैं। राजनीति और आर्थिकी के इस स्वरूप के अनुरूप ही सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य ढल रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में पश्चिमी जीवन शैली और सांस्कृतिक मूल्यों का ही विस्तार हो रहा है और वैश्विक मीडिया इसमें अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। दरअसल भूमंडलीकरण की मौजूदा प्रक्रिया एक " टोटल पैकेज" है जिसमें राजनीति, आर्थिकी और संस्कृति तीनों ही शामिल हैं। मीडिया नई जीवनशैली और नए मूल्यों का इस तरह सृजन करता है इससे नए उत्पादों की मांग पैदा की जा सके और एक बाजार का सृजन किया जा सके। अनेक अवसरों पर मीडिया ऐसे उत्पादों की भी मांग पैदा करता है जो स्वाभाविक और वास्तविक रूप से किसी समाज की मांग नहीं होते हैं।

निष्कर्ष के तौर पर यह कह सकते हैं कि शीत युद्ध के उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था पर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पश्चिम का दबदबा है और वैश्विक मीडिया को भी यही नियंत्रित करता है। मीडिया पर नियंत्रण का मतलब किसी भी व्यक्ति, देश, संस्कृति, समाज आदि की छवि पर भी नियंत्रण करना है और इसी नियंत्रण से सही-गलत के पैमाने निर्धारित होते हैं। मीडिया के नियंत्रण से विरोधी को शैतान साबित किया जा सकता है और अपनी तमाम बुराइयों को दबाकर अपनी थोड़ी सी अच्छाइयों का ढिंढोरा पीटा जा सकता है। मीडिया ऐसे मूल्य और मानक तय करता है जिनके आधार पर यह तय होता है कि कौन सा व्यवहार सभ्य है और कौन सा असभ्य ? इसी निर्धारण से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की सीमा शुरु होती है।

हिन्दी मीडिया

भारतीय मीडिया के मानचित्र पर भारी परिवर्तन आ रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा और एक हद तक ऐतिहासिक परिवर्तन भारतीय भाषाओं और खास तौर से हिन्दी भाषा के मीडिया का भारी विस्तार है। देश में एक तरह की मीडिया क्रांति अगर आयी है तो इसका मुख्य कारण हिन्दी मीडिया की चहुंमुखी वृद्धि और विकास है। सत्तर के दशक में नई प्रोद्योगिकी के आने के समय से ही हिन्दी मीडिया का विस्तार शुरु हो गया था। नई प्रोद्योगिकी से समाचारों को कई केन्द्रों से प्रकाशित करना संभव हो गया। इससे मीडिया तक लोगों की पहुंच का विस्तार हुआ और इसी के साथ साक्षरता बढ़ने से नए-नए लोग समाचार पत्र पढ़ने लगे और क्रयशक्ति बढ़ने से भी अधिक लोग समाचार पत्र खरीदने लगे। साक्षरता के संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है हिन्दी भाषी क्षेत्रों में नव साक्षर केवल हिन्दी ही पढ़ लिख सकते थे जबकि अंग्रेजी पढ़-लिख सकने वाले पहले से ही समाचारपत्रों के पाठक थे। इसलिए पिछले कुछ दशकों में हिन्दीभाषी क्षेत्रों में समाचारपत्रों जितना भी विस्तार हुआ है उसका बहुत बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया के खाते में ही जाता है। 70 के दशक के दौरान देश में राजनीतिक संघर्ष भी तेज हो चुका था। यह दौर विचारधारात्मक राजनीति संघर्ष का दौर था और इस राजनीतिक कारण से भी समाचारपत्रों में लोगों की रुचि बढ़ती चली गयी जिसकी वजह से समाचार पढने (खासकर हिन्दी समाचारपत्र) वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई।

आज देश में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पहले और दूसरे नंबर के समाचार पत्र हिन्दी में हैं। देश के दस सबसे बड़े समाचार पत्रों में 9 हिन्दी भाषा के हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि सत्तर के दशक में हिन्दी मीडिया में एक क्रांति की शुरुआत हुई। इस दौर में हिन्दी मीडिया का जबर्दस्त विस्तार हुआ और साथ ही इसके ढांचे और स्वामित्व में भी बड़े परिवर्तन आए। परंपरागत रूप से भारतीय मीडिया को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, और जिला स्तर पर बांटा जाता था। इस समाचार पत्र की क्रांति के दौर में क्षेत्रीय मीडिया का सबसे अधिक विस्तार हुआ और राष्ट्रीय मीडिया के भी उस हिस्से का भी विस्तार हुआ जिसने क्षेत्रीय मीडिया में प्रवेश किया। समाचार पत्रों के अनेक स्थानों के प्रकाशन और समाचारों के स्थानीयकरण से जिला स्तर का वह छोटा प्रेस विलुप्त हो जिसका सर्कुलेशन हजार-दो हजार होता था और जो स्थानीय समस्याओं पर केन्द्रित था। अब बड़े अखबार ही स्थानीय अखबार की जरूरतों को पूरा करने लगे।

नब्बे के दशक के मीडिया का व्यापारीकरण और विस्तार भी भारतीय भाषाओं पर ही केन्द्रित रहा है और इस विस्तार का सबसे बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया का ही था। पिछले कुछ समय में मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जो बेमिसाल वृद्धि हुई है वह मुख्य रूप से भारतीय और हिन्दी भाषा में ही हुई है। टेलीविजन ने मात्र दस वर्षों में एक बड़े उद्योग का रूप धारण कर लिया है। टेलीविजन ने आज देश के राजनीतिक और सामाजिक मानचित्र पर अपने लिए अहम और महत्वपूर्ण भूमिका अर्जित कर ली है। आज देश के पूरे मीडिया और मनोरंजन उद्योग में टेलीविजन का हिस्सा सबसे अधिक है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा केबल टेलीविजन का बाजार है। दरअसल टेलीविजन माध्यम अपने स्वभाव से अंतरंग मीडिया है और साथ ही यह मीडिया लोकप्रिय संस्कृति से भी काफी गहरे से संबद्ध रहता है। इस कारण टेलीविजन मीडिया का हिन्दी भाषी राज्यों में जो विस्तार हो रहा है वह एर तरह से हिन्दी मीडिया का ही विस्तार है। सिनेमा और मनोरंजन के क्षेत्र में हिन्दी मीडिया केवल हिन्दीभाषी प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे देश में ही अच्छा-खासा बाजार पैदा कर चुका है। इस इकाई में भारतीय मीडिया के विकास के जिन रुझानों का विवरण दिया गया है उसी दिशा में हिन्दी मीडिया की भी वृद्धि और विकास हो रहा है। दरअसल भारत की मौजूदा मीडिया क्रांति के बाद हिन्दी मीडिया का ही सबसे तेजतर विस्तार हुआ है और आने वाले समय में यह रुझान और भी प्रबल होने की संभावना है।

समकालीन मीडिया परिदृश्य

समकालीन मीडिया परिदृश्य
विभाजित दुनिया, विखंडित मीडिया

सुभाष धूलिया

समकालीन मीडिया परिदृश्य अपने आप में अनोखा और बेमिसाल है। जनसंचार के क्षेत्र में जो भी परिवर्तन आए और जो आने जा रहे है उनको लेकर कोई भी पूर्व आकलन न तो किया जा सका था और ना ही किया जा सकता है। सूचना क्रांति के उपरांत जो मीडिया उभर कर सामने आया है वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जीवन के केन्द्र में है। आज मानव जीवन का लगभग हर पक्ष मीडिया द्वारा संचालित हो रहा है। आज मीडिया इतना शक्तिशाली और प्रशावशाली हो गया है कि लोकतांत्रिक विमर्श अधिकाधिक मीडिया तक ही सीमित होता जा रहा है। एक तर्क ये भी है कि लोकतंत्र का स्थान मीडिया तंत्र ले चुका है। संचार क्रांति के उपरांत आज पूरी दुनिया एक वैश्विक गांव बन चुकी है। दूरसंचार,सेटेलाइट और कम्प्यूटर के संबद्ध होने से आज हर तरह की सूचनाओं का आदान-प्रदान तत्काल और बाधाविहीन हो चुका है। आज इंटरनेट के रूप में एक ऐसा महासागर पैदा हो गया है जहां मीडिया की हर नदी, हर छोटी-मोटी धाराएं आकर मिलती हैं। इंटरनेट के माध्यम से आज किसी भी क्षण दुनिया के किसी भी कोने में संपर्क साधा जा सकता है। इंटरनेट पर सभी समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन चैनल उपलब्ध हैं। आज हर बड़े से बड़े और छोटे से छोटे संगठनों की अपनी वेबसाइट्स हैं जिन पर इनके बारे में अनेक तरह की जानकारियां हासिल की जा सकती है।

इंटरनेट पर नागरिक पत्रकार ने भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज की है। इंटरनेट पर ब्लॉगों के माध्यम से अनेक तरह की आलोचनात्मक बहसें होती हैं, उन तमाम तरह के विचारों को अभिव्यक्ति मिलती है जिनकी मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया अनदेखी ही नहीं उपेक्षा भी करता है। इनमें कॉर्पोरेट व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करने की भी क्षमता होती है। भले ही ब्लॉग एक सीमित तबके तक ही सीमित हो लेकिन फिर भी ये समाज का एक प्रभावशाली तबका है जो किसी भी समाज और राष्ट्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ब्लॉगिंग ने अत्याधिक व्यापारीकृत मीडिया बाजार में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करायी है। विकासशील देशों में ब्लॉग लोकतांत्रिक विमर्श के मानचित्र पर अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। ब्लॉग निश्चय ही आज की शोरगुल वाले मीडिया बाजार की मंडी में एक वैकल्पिक स्वर को अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस नए वैकल्पिक मीडिया में कुछ निहित कमजोरियां भी हैं। मीडिया बाजार में उपस्थित शक्तिशाली तबके ब्लॉग की दुनिया को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। बड़े कॉर्पोरेट संगठन और सरकारी एजेंसिया भी अनेक ब्लॉग खोलकर या पहले से ही सक्रिय ब्लॉगों में प्रवेश कर इस लोकतांत्रिक विमर्श को प्रभावित करने की अपार क्षमता रखते हैं। ऐसे में शक्तिशाली संगठनों का ब्लॉगसंसार में दखल के परिणामों का आकलन करना भी जरुरी हो जाता है। मीडिया के केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण को समझने के लिए शक्तिशाली संगठनों की इस क्षमता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । ब्लॉग के गुरिल्ला ने व्यापारीकृत मीडिया के बाजार में प्रवेश कर हलचल तो पैदा कर दी है लेकिन अभी ये देखा जाना बाकी है कि यह इस मंडी में अपने लिए कितने स्थान का सृजन कर पाता है और किस हद तक कॉर्पोरेट और सरकारी संगठनों के इसे विस्थापित करने के प्रयासों को झेल पाता है। इस दृष्टि से सबसे अधिक आशावाद इस बात से पनपता है कि मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया के समाचारों और मनोरंजन की अवधारणाओं में जो रुझान( विकृतियां) पैदा हो रही है उससे इसकी साख में जबर्दस्त गिरावट आ रही है और अब लोग इनसे ऊबने लगे हैं,निराश होने लगे हैं। मुख्यधारा कॉर्पोरेट मीडिया की साख में इस गंभीर संकट से ब्लॉगसंसार के लिए अपने स्थान से विस्तार की नई संभावनाएं पैदा हो गयी हैं। लेकिन अभी ये थोड़ा कशमकश का दौर है और ऐसा नहीं कहा जा सकता कि साख के इस संकट की कॉर्पोरेट मीडिया अनदेखी ही करता रहेगा और बाजार इस स्थिति में बदलाव लाने में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
आज मीडिया बाजार को लेकर भी भ्रम की स्थिति है। मीडिया उत्पाद, उपभोक्ता और विज्ञापन उद्योग के संबंध अभी स्थायित्व के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं। आज भले भी मीडिया के बाजार के प्रति कोई साफ सुथरी सोच विकसित नहीं हो पायी है लेकिन अभी एक बाजार है, इसे मापने के जो पैमाने हैं विज्ञापन उद्योग इससे ही प्रभावित होता है। इस बाजार को हथियाने की होड़ में इंफोटेंनमेंट नाम के नए मीडिया उत्पाद का जन्म हुआ है जिसमें सूचना के स्थान पर मनोरंजन को प्राथमिकता मिलती है। इसके तहत सूचना की विषयवस्तु बौद्धिक स्तर पर इतनी हल्की और मनोरंजक बना दी जाती है कि वह एक विशाल जनसमुदाय को आकृष्ट कर सके। अनेक अवसरों पर इस तरह के समाचार और समाचार कार्यक्रम पेश किये जाते है कि वो लोगों का ध्यान खींच सकें भले ही साख और विश्वसनीयता के स्तर पर वो कार्यक्रम खरे ना उतरें।

इसके साथ ही 'पॉलिटिकॉनटेंमेंट' की अवधारणा का भी उदय हुआ है जिसमें राजनीति और राजनीतिक जीवन पर मनोरंजन उद्योग हावी हो रहा है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के विषयों का चयन, इनकी व्याख्या और प्रस्तुतीकरण पर मनोरंजन के तत्व हावी होते चले जा रहे हैं। कई मौकों पर बड़े राजनीतिक विषयों को सतही रूप से और एक तमाशे के रूप में पेश किया जाता है और आलोचनात्मक होने का आभास भर पैदा कर वास्तविक आलोचना किनारे कर दी जाती है। कई अवसरों पर टेलीविजन के परदों पर प्रतिद्वंदी राजनीतिज्ञों की बहसों का इस दृष्टि से मूल्यांकन करें तो यह तमाशा ही अधिक नजर आता है। इन बहसों में वास्तविक विषयों और विभिन्न राष्ट्रीय परिपेक्ष्य नदारद रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम बुनियादी राजनीतिक मदभेदों के स्थान पर तूतू-मैंमैं के मनोरंजन की ओर ही अधिक झुके होते हैं। इससे अनेक बुनियादी सवाल पैदा होते हैं और राजनीति के इस सहतीकरण और एक हद तक विकृतीकरण से लोकतंत्र के ह्रास का आकलन करना जरुरी हो जाता है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के सतहीकरण की इस प्रकिया का सबसे बड़ा हथियार सेलेब्रिटी संस्कृति का उदय है। सेलेब्रिटीज का राजनीति में प्रवेश हो रहा है जिससे राजनीतिज्ञ सेलेब्रिटीज बन रहे हैं। सेलेब्रिटी संस्कृति की वजह से राजनीतिक विमर्श के संदर्भ में एक नए टेलीविजन का उदय हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों पर एक बड़ा फिल्मस्टार टेलीविजन के पर्दे पर आधे घंटे तक यह बताता है कि क्या करना चाहिए तो दूसरी ओर राष्ट्रीय पार्टी का एक बड़ा नेता सेलेब्रिटी बनने के लिए इसी राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध विषय को इस तरह पेश करता है कि देखने वालों को मजा आ जाए और वह विषय की तह में कम जाता है।

मुंबई पर आतंकवादी हमलों के उपरांत गंभीर समाचारों, राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध विषयों पर इस तरह का रुझान स्पष्ट रूप से देखने को मिला था। आतंकवाद से देश किस तरह लड़े- इस बात की नसीहत वो लोग टेलीविजन पर्दे पर दे रहे थे जिनका न तो सुरक्षा और न ही आतंकवाद जैसे विषयों पर किसी तरह की समझ का कोई रिकॉर्ड है ना इन विषयों पर कभी कोई योगदान दिया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि एक नरम ( सॉफ्ट) मीडिया का उदय हुआ है जो कड़े-कठोर विषयों का नरमी से पेश कर लोगों को रिझाना चाहता है और कुल मिलाकर इस तरह गंभीर राजनीतिक विमर्श का ह्रास हो रहा है। इसी दौरान लोकतांत्रित राजनीति के चरित्र में ही भारी बुनियादी परिवर्तन आए और इसी के अनुरूप मीडिया तंत्र के साथ इसके संबंध पुनरभाषित हुए। दूसरा विश्वभर में आर्थिक विकास से उपभोक्ताओं की नयी पीढी़ का उदय हुआ। इससे मीडिया के लिए नए बाजार पैदा हुए और इस बाजार में अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए एक नई तरह की बाजार होड़ पैदा हुई। इस बाजार होड़ के कारण मीडिया उन उत्पादों की ओर झुकने लगा जो व्यापक जनसमुदाय को आकृष्ट कर सकें।

ऐसा नहीं है कि समाचारों में मनोरंजन का तत्व पहले नहीं रहा है। समाचारों को रुचिकर बनाने के लिए इनमें हमेशा ही नाटकीयता के तत्वों का समावेश किया जाता रहा है। लेकिन अधिकाधिक उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने की होड़ में समाचारों को मनोरंजन के तत्वों का विस्तार होता चला गया। तीसरा मीडिया के जबर्दस्त विस्तार और चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों के कारण भी समाचारों की मांग बेहद बढ़ गयी जिसकी वजह से ऐसी अनेक घटनाएं भी समाचार बनने लगी जो मुख्यधारा की पत्रकारिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी। चौधा पहले विचारधारात्मक राजनीतिक संघर्ष , स्वतंत्रता और उसके बाद विकास की आकांक्षा के दौर में मुख्यधारा समाचारों में लोगों की दिलचस्पी होती थी। विकास की गति बढ़ने से ऐसे सामाजिक तबकों का उदय हुआ जो उन तमाम मुद्दों के प्रति उदासीन होते चले गए जो इससे पहले तक ज्वलंत माने जाते थे। इसी के समानांतर अतिरिक्त क्रय शक्ति के समाजिक तबके के विस्तार के कारण माडिया के व्यापारीकरण का दौर भी शुरु हुआ। नए अतिरिक्त क्रय शक्ति वाला तबका ही बाजार था और इस बाजार ने एक नया सामाजिक माहौल पैदा किया जिसमें 'ज्वलंत' समाचार 'ज्वलंत' नहीं रह गए और एक तरह की अराजनीतिकरण की प्रकिया शुरु हुई। अराजनीतिकरण की यह प्रकिया समाचारों के चयन को प्रभावित करने लगी।

समाज के संपन्न तबकों में राजनीति के प्रति उदासीनता कोई नयी बात नहीं है। विकास का एक स्तर हासिल करने के बाद इस तबके को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता की बागडोर किसके हाथ में है जबतक कि राजनीति किसी बड़े परिवर्तन की ओर उन्मुख ना हो। इस कारण भी समाचारों का मूल स्वाभाव और चरित्र प्रभावित हुआ और व्यापारीकरण की गति तेज हुई। लेकिन व्यापारीकरण की इस प्रकिया के प्रभाव और परिणामों के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच एक बड़ा बुनियादी अंतर है। विकसित देशों में व्यापारीकरण की यह प्रकिया तब शुरु हो गयी जब लगभग पूरा समाज ही विकास का एक स्तर हासिल कर चुका था। लेकिन विकासशील देशों में विकास की यह प्रकिया तभी शुरु हो गयी जब समाज का एक छोटा सा तबका ही विकसित की श्रेणी में आ पाया था। विकासशील देशों में विकसाशीलता के दौर में मीडिया से सहभागी होने की अपेक्षा की जाती थी जो संभव नहीं हो पायी और व्यापारीकरण के कारण विकास का एजेंडा काफी हद तक किनारे हो गया। विकसशील समाज पर व्यापारीकरण की इस प्रकिया के प्रभाव और परिणामों का सही मूल्यांकन कर पाना अभी संभव नहीं दिखता लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसके नकारात्मक परिणाम सकारात्मक परिणामों की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और गहरे होने जा रहे हैं। अपेक्षतया बौद्धिक रूप से कुशल उपभोक्ता-नागरिक और एक विकासशील समाज के एक 'आम' नागरिक पर एक ही तरह के मीडिया उत्पाद का प्रभाव भिन्न होगा-कहीं यह मनोरंजन-रोमांच पैदा कर सकता है तो अंयत्र यह वैज्ञानिक सोच पर कुठाराघात कर अंधविश्वास की जड़ों को गहरा कर सकता है।

मीडिया और मनोरंजन का रिश्ता भले ही नया नहीं है लेकिन नया यह है कि इतिहास में मीडिया इतना शक्तिशाली कभी नहीं था और मनोरंजन के उत्पाद लोकप्रिय संस्कृति से उपजते थे। आज शक्तिशाली मीडिया लोकप्रिय संस्कृति के कुछ खास बिंदुओं के आधार पर मनोरंजन की नई अवधारणाएं पैदा कर रहा है और इनसे लोकप्रिय संस्कृति के चरित्र और स्वरूप को बदलने में सक्षम हो गया है। यह प्रकिया आज इतनी तेज हो चुकी है कि यह कहना मुश्किल हो गया है कि 'लोकप्रिय' क्या है और 'संस्कृति' क्या है? यह कहना भी मुश्किल हो गया है कि इनका सृजन कहां से होता है और कौन करता है ? पर फिर भी अगर हम लोकप्रिय संस्कृति को उसी रूप में स्वाकार कर लें जिस रूप में हम इसे जानते थे तो हम यह कह सकते हैं कि आज लोकप्रिय संस्कृति समाचार और सामाचारों पर आधारित कार्यक्रमों पर हावी हो चुकी है और गंभीर और सार्थक विमर्श का स्थान संकुचित हो गया है। इस प्रकिया से तथ्य और कल्पना का एक घालमेल सा पैदा हो गया है जिससे पैदा होने वाला समाचार उत्पाद अपने मूल स्वभाव से ही समाचार की अवधारणा से भटका हुआ दिखायी पड़ता है।

नब्बे के दशक में एक नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के उपरांत एक उपभोक्ता की राजनीति और एक उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय हुआ और इसका सीधा असर समाचारों पर पड़ा। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नए-नए उपभोक्ता उत्पाद बाजार में आए और इनको बेचने के लिए नई-नई मीडिया तकनीकियों का इसतेमाल किया गया जिसके परिणामस्वरूप 'सेलेब्रिटी लाइफस्टाइल ' त्रकारिता का उदय हुआ। एक नया मेट्रो बाजार का उदय हुआ और इसके अनुरूप नए-नए उपभोक्ता उत्पादों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन देर सवेर इस बाजार और इस बाजार की मांग में ठहराव आना स्वाभाविक है। इस स्थिति में बाजार और समाचार के संबंद्ध भी प्रभावित होंगे। मेट्रो बाजार को हथियाने की होड़ में बाकी देश की अनदेखी की और एक हद तक तो स्वयं मेट्रो मध्यमवर्ग की संवेदनाओं को भी ठेस पहुंचायी। इस कारण एक राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में समाचार एक तरह से स्वाभाविक स्थान से विस्थापित होकर शरणार्थी बन गए जिनका कोई पता-ठिकाना नहीं बचा। समाचारों के विषय चयन, समाचार या घटनाओं को परखने की इनकी सोच और दृष्टिकोण के पैमाने और मानदंड बेमानी हो गए इसके परिणामस्वरूप आज किसी एक खास दिन एक उपभोक्त-नागरिक को इस बात का भ्रम होता है कि देश-दुनिया की महत्वपूर्ण घटनाएं कौन सी है? परंपरागत रूप से मीडिया एक ऐसा बौद्धित माध्यम होता था जो लोगों को यह भी बताता था कि कौन सी घटनाएं उनके जीवन से सरोकार रखती हैं और उनके लिए महत्वपूर्ण है। तब समाचारों को नापने-परखने के कुछ सर्वमान्य मानक होते थे जो आज काफी हद तक विलुप्त से हो गए हैं और एक उपभोक्ता-नागरिक समाचारों के समुद्र में गोते खाकर कभी प्रफुल्लित होता है, कभी निराश होता है और कभी इतना भ्रमित होता है कि समझ ही नहीं पाता कि आखिर हो क्या रहा है ?

गुफ्तगू बंद न हो, बात से बात चले

गुफ्तगू बंद न हो, बात से बात चले
सुभाष धूलिया


दक्षिण एशिया पर हिंसक धार्मिक कट्टरपंथ के बादल गहरे होते जा रहे हैं। यह सकंट इसलिए भी गंभीर हो जाता है कि दक्षिण एशिया के दो सबसे बड़े देश नाभिकीय हथियारों से लैस हैं। पाकिस्तान में तो हिंसक धार्मिक कट्टरपंथ और इस्लामी उग्रवाद की ताकत अनेक कारणों से बढ़ रही है और स्वयं पाकिस्तान के राजनीतिक और सैनिक प्रतिष्ठान में इस तरह के तत्वों की कमी नहीं है। ऐसे में नाभिकीय पाकिस्तान केवल भारत के या समूचे विश्व के लिए नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह चिंता इस कारण भी और गहरी हो जाती है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाएं इस कदर कमजोर हैं कि बार-बार आशंकाएं पैदा होती है कि क्या ये सरकार हिंसक इस्लामी कट्टरपंथ और धार्मिक उग्रवाद से प्रभावशाली ढंग से लड़ पा रही है। पाकिस्तानी सैनिक शासन भी इस तरह के उग्रवाद को ताकत के बस पर दबाने में सफल रहे हैं और अपने इतिहास में अधिकांश समय तक सैनिक तानाशाहियों से शासित पाकिस्तान की समस्याओं का हल नहीं हुआ बल्कि ये गहराती चली गयीं और नई नई समस्याएं पैदा होती चली गयीं।

अस्तित्व में आने बाद से ही पाकिस्तान के पूरे राजनीतिक जीवन की धुरी भारत-विरोधी रही और इसी के समांतर भारत में भी पाकिस्तान विरोध प्रबल रहा और दोनों देश एक-दूसरे को अस्थिर करने में ही केन्द्रित रहे। कश्मीर पाकिस्तान की नकारात्मक राजनीति का केन्द्र बना रहा और इस सवाल पर पाकिस्तान के शासकों ने व्यावहारिक रुख अपनाने और वास्तविक राष्ट्रीय हितों को संबोधित करने के बजाय छद्म राष्ट्रवाद का सहारा लिया। भारत में भी पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद का अस्तित्व बना रहा। इस तरह राष्ट्रवाद के अस्तित्व में रहने से कभी भी दोनों देशों के बीच ऐसी कोई वार्ता नहीं हो पायी जो दीर्घकाल में सैनिक होड़ और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति से ऊपर उठकर वास्तविक रुप से अच्छे संबंधों का मार्ग प्रशस्त करती। दोनों देशों के बीच अब तक के इतिहास में जितनी भी वार्ताएं हुई, जितने भी शिखर सम्मेलन हुए वे किसी तात्कालिक संकट के समाधान के लिए ही हुए। जब कोई संकट या तकरार पैदा हुई तो वार्ता हुई, शिखर सम्मेलन हुए। ऐसा कभी नहीं हुआ कि संकट या टकराव की स्थिति ना होने पर कोई वार्ता या शिखर सम्मेलन हुआ हो जिसका मकसद वास्तविक रूप से अच्छे संबंध कायम करना और इस क्षेत्र को तनाव और युद्ध से मुक्त करना रहा हो।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल का इस पृष्ठभूमि और संदर्भ में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने सही ही कहा है कि अगर दुनिया बदल गयी है तो नई परिस्थितियों को अब पुराने चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। दरअसल मनमोहन सिंह की इस पहल का जितना भी विरोध हो रहा है तो इसका आधार कहीं ना कहीं पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद ही है। लेकिन आज इस बात का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है कि क्या आज पाकिस्तान भारत के लिए उस तरह का खतरा है जितना कि अस्तित्व में आने से लेकर अमेरिका पर आतंकवादी हमलों तक बना रहा? अमेरिका पर आतंकवादी हमलो के उपरांत पाकिस्तान उन देशों में अफगानिस्तान के बाद दूसरे नंबर पर था जिन पर अमेरिकी आक्रमण के बारे में सोचा गया था। अफगानिस्तान पर तो आक्रमण होना ही था लेकिन क्योंकि अफगानिस्तान की इस्लामी सत्ता का सबसे बड़ा संरक्षक पाकिस्तान था इसलिए पाकिस्तान को चेतावनी नहीं बल्कि धमकी दी गयी थी कि अमेरिका के साथ आओ, मदद लो या अमेरिका के विनाशकारी आक्रमण के लिए तैयार हो जाओ। पाकिस्तान के दृष्टिकोण से जनरल मुशर्रफ को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने 180 डिग्री की पलटी खाकर पाकिस्तान अमेरिकी हमले से बचा लिया।

अफगानिस्तान में मौजूद हिंसक इस्लामी कट्टरपंथ और धार्मिक उग्रवाद के खिलाफ पाकिस्तान ने जिस दिन अमेरिका के साथ हाथ मिलाया उसी दिन दक्षिण एशिया का वह शक्ति संतुलन बदल गया जो पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से बना हुआ था। अब पाकिस्तान इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ अमेरिकी वैश्विक युद्ध में साझीदार था और भारत को वह चुनौती देने में समर्थ नहीं रह गया था जो अबतक देता आया था। कश्मीर में इस्लामी उग्रवाद को सैनिक और राजनीतिक मदद देने के सवाल पर भी पाकिस्तान काफी दह तक विकल्पहीन हो गया। अमेरिकी दवाब और पाकिस्तानी भूमि पर सीधे सैनिक कार्रवाई की चेतावनी के कारण पाकिस्तान को अफगान सीमा से लगे इलाकों और खासतौर पर स्वात घाटी में बड़ा सैनिक अभियान चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

अब सवाल यह पैदा होता है कि इस तरह के पाकिस्तान से भारत कैसे निबटे? प्रधानमंत्री की पहल को इस रूप में क्यों देखा जा रहा है कि यह पाकिस्तान स्थिति आतंकवाद को कई रियायत है? प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा है कि पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करनी होगी वरना एक संपूर्ण संवाद की प्रक्रिया को शुरु करना संभव नहीं हो पाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने बार-बार ये भी कहा कि अगर भारत कोई बातचीत ना करे तो क्या करे? युद्ध? पाकिस्तान के साथ बातचीत न करने का विकल्प क्या है? 26/11 के आतंकवादी हमलों को देश कभी नहीं भूल सकता लेकिन कम से कम अब जाकर तो यह मानना ही होगा कि इस हमले में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी तत्वों का हाथ था जिन्हें आईएसआई के तत्वों का संरक्षण प्राप्त था लेकिन इन हमलों में पाकिस्तान सरकार शामिल नहीं थी। निश्चित तौर पर इस मसले पर पाकिस्तान ने जो कुछ भी किया वह काफी अपर्याप्त रहा है लेकिन क्या बातचीत कर पाकिस्तान से यह नहीं कहना चाहिए कि वह आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करे? बहुत लंबे समय तक पाकिस्तानी सरकार भारत के खिलाफ आतंकवादियों को पूरी सैनिक और राजनैतिक मदद देती रही है लेकिन आज का परिस्थितियों में पाकिस्तान के लिए यह आत्महत्या से कम नहीं होगा।

आज की परिस्थितियों का मूल्यांकन, पुराने पड़ चुके पैमानों से नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री की पहल का जो भी विरोध संसद में हो रहा है, टेलीविजन के पर्दों पर विश्लेषण करने वाले रिटायर्ड राजनयिक और सैनिक जनरल पुराने पड़ चुके पैमानों से ही नई स्थिति का मूल्यांकन कर रहे हैं और ऐसा माहौल पैदा कर रहे हैं मानो भारत ने पाकिस्तान के सामने समर्पण ही कर डाला हो। एक समाचार पत्र के संपादकीय में कहा गया था कि "इस बयान से पाकिस्तान में खुशी की लहर दौड़ पड़ी है " । क्या दक्षिण एशिया की इस तरह की गंभीर राजनीतिक और सैनिक स्थिति का इस तरह का सतही मूल्यांकन किया जा सकता है? एक खास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर घरेलू राजनीति का काफी प्रभाव होता है। कई मौकों पर राजनीतिक नेतृत्व की सोच और जनमत के बीच टकराव भी पैदा होता है। दोनों देशों के बीच जब कभी भी कोई वार्ता, कोई पहल होगी, इस पर राजनीतिक नेतृत्व की सोच एक हो सकती है लेकिन देश के भीतर जनमत के स्तर पर जो प्रतिक्रिया होगी उसकी दोनों देशों की कोई भी सरकार अनदेखी नहीं कर सकती। कई मौकों पर सरकारों को वैदेशिक मामलों में फैसले लेने में इस घरेलू जनमत का भी सामना करना होता है और इससे बड़ा फैसला लेने में अड़चनें भी पैदा होती हैं। फिर दोनों देशों में राजनीति का स्वरूप ऐसा रहा है कि जो भी विपक्ष में होता है वह राष्ट्रीय हितों की बजाय लोकप्रिय संवेदनाओं और कभी-कभी सस्ती लोकप्रियता को ही अधिक संबोधित करता नजर आता है। प्रधानमंत्री की पहल को लेकर कुछ विपक्षी दलों और खासतौर पर भाजपा ने जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया है वह इस तरह की राजनीति की और ही इशारा करता है। निश्चय ही मिस्त्र में जारी किये गए संयुक्त बयान में बलूचिस्तान का उल्लेख एक राजनीतिक भूल है और इसे इसी रूप में लिया जाना चाहिए। इस राजनीतिक भूल से क्या वह सब कहा जा सकता है जो कहा जा रहा है और क्या इस भूल के आधार पर संयुक्त बयान के उन सारी बिंदुओं को नकारा जा सकता है जिनका संबध दक्षिण एशिया के भविष्य से है

आज की वैश्विक और दक्षिण एशिया की परिस्थितियां नई चुनौतियां पेश कर रही हैं और कुछ नए अवसर भी दे रही हैं। भारत की मौजूदा पहल इन चुनौतियों का सामना करने और इन अवसरों का लाभ उठाने की ओर उम्मुख है। अगर भारत और पाकिस्तान के बीच कभी कोई स्थायी शांति कायम हो सके तो इससे समूचे दक्षिण एशिया और यहां रहने वाले करोडो़-करोड़ो लोगों की तकदीर बदल जाएगी। और, अगर इस दिशा में एक बहुत छोटा सा कदम भी उठाना है तो बातचीत तो करनी ही होगी। मनमोहन सिंह भले ही इतिहास न रच पाएं पर यह छोटा सा कदम उन्होंने निश्चित रूप से उठाया है।

ऐतिहासिक द्वंद में फंसा अमेरिका

ऐतिहासिक द्वंद में फंसा अमेरिका
सुभाष धूलिया

दुनिया की बेमिसाल आर्थिक और सैनिक शक्ति आज अपने इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है। अमेरिका का सत्ता प्रतिष्ठान और अमेरिकी समाज -किसी ना किसी द्वंद में फंसा हुआ है। ओबामा ने परिवर्तन का नारा देकर अमेरिकी समाज में एक हलचल पैदा की - उस अमेरिका में जिसे लगता है कि कहीं कुछ बदलना चाहिए लेकिन क्या बदले इसकी कोई सुस्पष्ट तस्वीर उभरकर सामने नहीं आई थी । अब यह अमेरिका इस बदलाव की तस्वीर रचना चाहता है और दूसरा अमेरिका वह है जिसके पास इस विशालकाय आर्थिक और सैनिक ताकत का नियंत्रण है। यह वह अमेरिका है जिसकी नीतियां गहरे दलदल में फंसी थीं और उसे भी, परिवर्तन न सही, परिवर्तन का आभास पैदा करने की जरूरत थी, इसके लिए एक प्रतीक की जरुरत थी। शुरु में हमने हिचकिचाहट दिखाई लेकिन अंतत एक अश्वेत अमेरिकी को राष्ट्रपति स्वीकार कर लिया।

ओबामा आज अमेरिका के उस ऐतिहासिक टकराव के केन्द्र में हैं जो आर्थिक और सैनिक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सत्ता प्रतिष्ठान और अमेरिकी समाज के बीच पैदा हो गया है। इस टकराव का सबसे मुखर रूप अफगानिस्तान में सैनिक अभियान को लेकर प्रतिबिंबित हो रहा है। एक ओर ओबामा पर अफगानिस्तान और इराक से वापसी का दवाब है तो दूसरी ओर आर्थिक बदहाली की गिरफ्त में फंसे अमेरिका की स्वास्थ्य-शिक्षा में सुधार का दवाब है।

शीतयुद्धकालीन व्यवस्था में अमेरिकी सैन्यतंत्र ने बेमिसाल आयाम ग्रहण कर लिए थे। लेकिन शीतयुद्ध खत्म होने के बाद भी इसमें बेलगाम विस्तार जारी रहा। शीतयुद्ध के दौरान पूरी अमेरिकी व्यवस्था एक बड़े दुश्मन पर केन्द्रित थी लेकिन इसके पराभाव से अचानक भ्रम की सी स्थिति पैदा हो गई कि अब इस बेमिसाल सैनिक ताकत का भविष्य क्या होगा? सैनिक प्रतिष्ठान के अनेक सिद्धांतकारों ने तर्क दिए कि अब इस सैनिक ताकत का प्रयोग दुनिया को 'सभ्य और लोकतांत्रिक' बनाने के लिए करना चाहिए और इस संदर्भ में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' और 'उदार साम्राज्यवाद' जैसी अवधारणाओ को प्रतिपादित किया गया।

9/11 हमले से ऐसे कई सवालों का जवाब मिल गया और अमेरिकी सैन्यतंत्र की भूमिका फिर से केन्द्र में आ गई। अमेरिकी प्रशासन की डोर उस तबके के हाथ में आ गई जो दुनिया में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' के झंडे गाड़ना चाहता था। इस अभियान में वे आर्थिक हित भी जुड़ गये जो तेल संसाधनों पर नियंत्रण कायम करना चाहते थे और विशालकाय हथियार उद्योग भी गदगद हो उठा जो शीतयुद्ध खत्म होने की वजह से अपने भविष्य को लेकर आशंकित था। 9/11 ने एक ऐसा अवसर पैदा किया जिससे इन सभी हितों का गठजोड़ कायम हो गया और जिसके परिणामस्वरूप पहले अफगान और फिर इराक में सैनिक अभियान शुरु किए गए । अगर ये अभियान जरा भी सफल हुए होते तो ईरान के लक्ष्य पर भी अब तक गोला दागा जा चुका होता। 9/11 हमलों के आवेग में अफगान सैनिक अभियान का कहीं कोई प्रतिरोध नहीं हुआ लेकिन आवेग के थमने के साथ ही इन सैनिक अभियानों का औचित्य साबित करने के लिए लोकतंत्र और राष्ट्र-निर्माण के दावों का सहारा लिया गया। लेकिन आज ये सारे तर्क बेमानी साबित हो चुके हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि विदेशी सैनिक आधिपत्य के रहते लोकतंत्र का बीज नहीं बोया जा सकता और न ही युद्ध की धधकती आग के बीच राष्ट्र-निर्माण संभव है।

आज अफगानिस्तान और इराक में 'लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद' की अवधारणा की भी धज्जियां उड़ चुकी हैं और अगर इन दोनों देशों से अमेरिका वापस जाता है तो एक ऐसा शून्य पैदा होगा जिससे इन देशों के राष्ट्र-राज्य बने रहने पर भी संदेह पैदा होता है। ऐसे में अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर गंभीर मतभेद उभर रहे हैं। अफगानिस्तान में अमेरिका के सैनिक कमांडर स्टेनली मेक्रिस्टल सार्वजनिक रुप से कहा डाला कि अगर अफगानिस्तान में कई हजार और सैनिक भेजकर एक बड़ा जमीनी युद्ध नहीं छेड़ा गया तो एक वर्ष में अमेरिका पराजित हो जाएगा । इस जनरल को अमेरिका के सैनिक प्रतिष्ठान का पूरा समर्थन प्राप्त है। इससे स्पष्ट है कि अमेरिका में सैनिक प्रतिष्ठान ने अपनी कमर कस ली है और ओबामा पर इतना दवाब बना लिया है कि उनके विकल्प सीमित हो गये हैं। उपराष्ट्रपति बिदेन का मानना है कि जमीनी युद्ध के विस्तार के बजाय हवाई हमलो का अधिक इस्तेमाल किया जाये लेकिन वे भी युद्ध के ही विस्तार की वकालत कर रहे हैं -अंतर सिर्फ इतना है कि बिदेन की रणनीति से अमेरिका की वापसी का रास्ता आसान होगा और जमीनी युद्ध का मतलब अफगान बीहड़ों में गहरे से फंस जाना होगा।

यह लगभग वैसी ही स्थिति है जिसका सामना 1965 में राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को करना पड़ा था। जॉनसन एक नए समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे लेकिन सैनिक प्रतिष्ठान वियतनाम युद्ध में और ताकत झोंकने के लिये दवाब बना रहा था। जॉनसन सैनिक प्रतिष्ठान के दवाब को नहीं झेल पाए और वियतनाम में अधिक सैनिक झोंकते चले गए । 1968 आते-आते तय हो गया कि वियतनाम युद्ध एक ऐसा युद्ध बन चुका है जिसे जीता नहीं जा सकता। युद्ध मोर्चे के साथ-साथ घरेलू जनमत भी इतना प्रतिकूल हो चुका था कि जॉनसन ने दुबारा राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की हिमम्त भी नहीं जुटा पाये। आज आम धारणा बनती जा रही है कि अफगान युद्ध भी नहीं जीता जा सकता और अगर युद्ध का विस्तार किया गया तो कम से कम दस वर्षों तक अमेरिका को अफगानिस्तान में सैनिक अभियान जारी रखना होगा अर्थात ओबामा के वर्तमान कार्यकाल समाप्त होने के लंबे अर्से बाद भी अमेरिका अफगान युद्ध में फंसा रहेगा। अब यह देखा जाना बाकी है कि ओबामा उस स्थिति से कैसे रूबरू होंगे जिसका सामना राष्ट्रपति जॉनसन को करना पड़ा था।

अमेरिका के मौजूदा वैचारिक टकराव की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसके सैनिक प्रतिष्ठान की ताकत और अमेरिकी लोकतंत्र में इसकी भूमिका का आकलन जरुरी हो जाता है। 17 जनवरी 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहाबर ने राष्ट्र ने नाम अपने विदाई संबोधन में कहा था कि “देश को औद्योगिक-सैनिक गठजोड़ की बढ़ती ताकत से सजग रहना होगा। इस तरह की ताकत का उदय हमारी स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के किए खतरा होगा”। इस पृष्ठभूमि यह सोचना भी जरूरी हो जाता है कि अश्वेत ओबामा राष्ट्रपति निर्वाचित क्यों और कैसे हुए? क्या वे उन सभी राजनीतिक धाराओं संतुष्ट कर पाएंगे जिनका उनकी विजय में योगदान रहा है ? क्या इस तरह का संतुलन संभव है और अगर नहीं तो अमेरिका किधर जायेगा?